पाटलीपुत्र में नवनिर्मित देवविमान सदृश भव्यातिभव्य जिनालय की प्रतिष्ठा का महामहोत्सव कल ही संपन्न हुआ था।
श्रमण भगवंतों के निवास की विशाल जगह में एक कोने में, आर्य सुहस्तिसूरिजी विराजमान थे। यह स्थान एकांत में आया हुआ था। और श्री लता गुल्मवल्ली के विस्तार से पूरी तरह ढँका हुआ था। जिस उद्यान में सैकड़ों की संख्या में स्थविरकल्पी श्रमण विराजे हुए थे, उस उद्यान में आनेवाले किसी को भी तुरंत यह स्थान का पता चले ऐसा नहीं था। इस स्थान में प्रासुक भूमि पर सुहस्तिसूरीजी के सन्मुख नीचे आसन पर विनयावनत मुद्रा में दो श्रमण और एक श्रमणोपासक विराजमान थे। श्रमणोपासक तो जैसे कि सम्राट संप्रति थे परंतु वे दोनों श्रमण कौन थे?
"महाराजश्री! पाटलीपुत्र के विषय में मुझे इतना ही कहना है, कि पाटलीपुत्र को मुझे छोड़ना पड़ा है ऐसा नहीं है। परंतु, पाटलीपुत्र को मैंने स्वेच्छा से छोडा है और उसके साथ एक हकीकत यह भी है कि पाटलीपुत्र को मैंने मन से छोड़ा है पर अभी तक उसे मन से नहीं छोड़ा है। अभी तक उसकी ममता मरी नहीं है। पूर्वजों की विद्यमानता की सुगंध से भीगी बनी हुई इस धरती पर मौर्यों की मौर्य साम्राज्य की मूलभूमि को छोड़ते हुए मुझे बहुत कष्ट हुआ है।"
"उम्र के सात दशक बीत जाने पर भी आज पाटलीपुत्र के सिंहासन पर मुझे गर्व है। उसकी इज्जत करता हूँ। भले ही यहाँ के शासक निर्बल हो, यह स्थान महान है। भले ही यहाँ के महाराजा “सम्राट” के रूप में मेरी इज्जत नहीं करते हों, पर मेरा “फर्ज बनता है - पाटलीपुत्र के मान को बरकरार रखने का।"
"वह रात आज भी मुझे याद है गुरुदेव! जब मैंने पितामह सम्राट अशोक के पाटलीपुत्र को छोड़कर, उज्जयिनी में जाकर मौर्य साम्राज्य को चलाने के लिए समझाया था।"
"पितामह ने कहा- संपदि! तू एकबार तो कह कि तुझे पाटलीपुत्र में आने से रोकने वाला कौन है? देख फिर उसकी क्या दशा होती है? षड्यंत्रकारियों से मुझे बहुत ही चिड़ है संपदि! तू जो कहेगा वह करने को तैयार हूँ। पर भाई! इस पाटलीपुत्र के सिंहासन को तू संभाल ले। यह सिंह का आसन है। यहाँ पर सियार बैठे यह मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा भाई।"
"पर मैंने ही उनको समझाया, मैंने कहा “पितामह! एक तरफ पाटलीपुत्र का सिंहासन है और दूसरी तरफ अखंड मौर्य साम्राज्य है। दोनों को नहीं संभाला जा सकता। या तो पाटलीपुत्र के भोग से मौर्य की अखंडता को टिका लो और या तो मौर्य साम्राज्य की अखंडता की बलि चढ़ाकर पाटलीपुत्र को टिका लो।"
"पितामह ने कहा "मुझे समझ में आ रहा है वत्स! तू क्या कहना चाहता है? मौर्य साम्राज्य अखंड रहे यही तेरी प्राथमिकता है और इसी घर के हित शत्रुओ - जिन्होंने एक टुकड़ा राज्य पाने के लिए मेरे पुत्र कुणाल की निर्ममता से आँखें फोड़ डाली। इन हितशत्रुओ से बचे तो किस तरह से? इन सभी का मूल ही यह है कि मेरे पुत्र कुणाल को मैं पहले से पाटलीपुत्र का वारिस नहीं बना सका। पाटलीपुत्र के लिए जो सर्वथा लायक था, उसी के साथ अन्याय हुआ। उसके भयंकर परिणाम हुए। उसका एक परिणाम यह आया कि पाटलीपुत्र बिल्कुल अनाथ हो गया। संपदि! यदि तू यहाँ नहीं आया तो मैं यहाँ पर किसी की नियुक्ति करके नहीं जाऊँगा। फिर भले ही पाटलीपुत्र का जो होना हो वह हो जाए।
"महाराजश्री। पितामह अशोक के स्वर्गगमन पश्चात् पाटलीपुत्र कई राज कलहों और षड्यंत्रों का अखाड़ा बन गया। सम्राट के जाने के तीन वर्ष बाद तक पाटलीपुत्र के सिंहासन के लिए मौर्य राजवंशियों में भीतर ही भीतर खींचतान चली। उसमें कइयो के खून बहे। कितने ही पटक गए और कितनों के साथ अन्याय हुआ। मैं उज्जैन में बैठकर पाटलीपुत्र के सिंहासन के सत्ताधिकार का यह ताल-तमाशा चुपचाप देखता रहा मैं।
मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि यह तो होने वाला ही था। यदि मैं पाटलीपुत्र में बैठा होता, तो आज जो अंदर-अंदर लड़ रहे है, मर रहे है और मार रहे है। यह सभी साथ मिलकर मुझे मारकर ही दम लेते। फिर जो होना हो, वो हो जाए पर पाटलीपुत्र का सिंहासन खाली रहना चाहिए। मैंने बिना किसी हिचकिचाहट से उनकी इच्छा स्वीकार कर ली। मैंने सामने से सिंहासन खाली कर दिया और पाटलीपुत्र तथा सत्तालोभी महत्वाकांक्षियों को उनकी नियति पर छोड़ दिया। मैंने मौर्य साम्राज्य के विकास और प्रजा के कल्याण की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया।
मुझे लगा कि जैनधर्म के प्रभाव से जीवमात्र का यह भव-परभव में कल्याण है, तो मैंने सभी को धर्म का रागी बनाया। असूर्यंपश्या साम्राज्ञियों और राजकुमारियो, और अनेक सुभट, सामंतों और मंत्रियों को साधुवेश पहनाकर दूर-दूर के देश जैसे - चीन, ब्रह्मदेश, सिंहल, विजिर जनपद, नेपाल, उत्तरापथ आदि मौर्य साम्राज्य के परवर्ती राज्यों में भेजा। तथा आंध्र, तमिल, रथिक, भोजक, सुराष्ट्रा, गुर्जर, राजपूताना आदि साम्राज्यो के भीतर के विभागो में जैनधर्म की ज्योति को अधिक ज्वलंत और उज्जवल बनाया। इन सभी कल्याण के कार्यो में मैं पाटलीपुत्र को बिलकुल ही भूल गया।....”
"पर नहीं, भले ही मुझे एसा लगता था कि मैं पाटलीपुत्र को भूल गया हूँ, पर मेरे मन के
किसी कोने में अभी भी पाटलीपुत्र जीवंत था और अभी भी यहाँ का आकर्षण था। मुझे अभी-भी पाटलीपुत्र बुला रहा था।”
"महाराजश्री! 47 वर्ष बीत गए पाटलीपुत्र को सम्राट का वियोग होने में। मैंने सोचा अभी तो सबकुछ बराबर हो गया है। यहाँ पर पुण्यरथ की दूसरी पाट आ गई है। अब तो यहाँ के राजवियों की सत्ता लोलुपता अंकुश में आ गई होगी। नयी पीढ़ी ऐसी नहीं होगी। पर, गुरुदेव! मैं गफलत में रह गया, मैं गलत साबित हो गया।"
"भारतवर्ष के इस पूर्व विभाग को, मौर्यों के साम्राज्य के इस हिस्से को मैंने गृहक्लेश के भय से उपेक्षित-अस्पृश्य रखा था। उसके कारण से यहाँ के शासकों की सत्तालोलुपता घटने के बजाय उल्टा और भड़कती हुई ज्वाला बन गई थी। यहाँ पर साम्राज्य के समान शासन चालू हो गया था। पूरे भारतवर्ष के सामंत राजा मेरे सामने झुकते थे। जबकि अवंती में जीवितस्वामी की रथयात्रा होती थी तब हमेशा हाजिर रहते थे पर पाटलीपुत्र के शासक इतनी भी मर्यादा नहीं रखते थे।"
"और आज जब भारतवर्ष का सम्राट संप्रति - अन्य किसी प्रयोजन से नहीं अपितु एक धार्मिक प्रसंग पर मेहमान बनकर पाटलीपुत्र आए थे। एक धार्मिक वृद्ध सम्राट पर बृहद्रथ ने आत्मघाती हमला करवाया। गुप्तचरों ने कहा है कि यदि मैं मौर्य सिंहासन पर बैठा होता तो तीर सीधा ही मेरे कपाल में घुस जाता था। सिंहासन पर बैठा इसलिए हमलाखोर को प्रहार करने के लिए निशान लेने में देर लगी और कालिंग कुमार खारवेल की अद्भूत चपलता ने मुझे कुछ साल धर्मशासन की सेवा का लाभ लेने हेतु अभी तक जीवित रखा।”
"यह सारी कथा थी, जो मुझे आपको और आपके पट्टधर गुरुभगवंत को एकांत में बतानी थी। जब मेरा जन्म हुआ था तब मेरे पिता कुणाल मुझे झोले में लेकर अपनी पहचान छिपाकर पितामह के पास गए। अपनी गायकी की अद्भूत कला से पितामह को प्रसन्न किया और कुछ भेंट माँगने को कहा, तब उन्होंने "काकणी" माँगी।"
पितामह को समझ में नहीं आया कि यह संगीत सम्राट माँग- माँगकर काकणी- कोडी क्यों माँग रहा है। उन्होंने कहा, "भाई! इसमें तुझें क्या दूँ?" पिताजी मौन रहे। तब बाजू में खड़े हुए "महामात्य ने कहा, "सम्राट! क्षत्रियों की भाषा में “काकणी” का अर्थ होता है- राज्य।”
"पितामह ने फिर से उनके चहरे को देखा, नजर भर-भर के देखा और उन्होंने कहा "वत्स! कुणाल?" मेरे पिताजी ने सम्राट के चरणों को चूमा। सम्राट ने पिताजी को बाँहों में भर लिया। कई सालों के बाद पिता-पुत्र का मिलन हुआ था।
"फिर गंभीर होकर पिताजी बोले "वत्स! क्या माँगा? जरा फिर से कहो तो? और पिताजी बोले,
"चंदगुत्तपपुत्तोय, बिंदुसारस्स नत्तुओ,
असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायह कागिणी"
चंद्रगुप्त का प्रपौत्र, बिंदुसार का पौत्र, सम्राट अशोक का पुत्र, एक अंध मात्र “काकणी” माँग रहा है।“
"पर भाई! तू शरीर की क्षतिवाला है। पुत्र! तुझे किस तरह से साम्राज्य दे दूँ। ये महत्वकांक्षी मौर्य तेरे वश में कैसे रहेंगे वत्स!"
"मैं तो इसके लिए राज्य माँग रहा हूँ सम्राट! मेरे पिता ने झोले में से मुझे बाहर निकालकर सम्राट की गोदी में सौंपा "यह कौन है?" सम्राट ने पूछा। पिताजी ने कहा - "आपका पौत्र और मेरा पुत्र है।”
"तुझे पुत्र हुआ?" सम्राट ने मेरे नन्हें हाथो को चूमते हुए कहा, "कब वत्स!,"
"संप्रति, अभी ही" मेरे पिता ने कहा उस दिन से सम्राट ने पिताजी से कहा- "वत्स! आज से यह बालक संप्रति के नाम से जाना जाएगा। मगध जनपद तो कुमारभुक्ति में दे दिया गया है। तू अवंती जनपद रख। तुझे और पुत्र संपदि को अवंती जनपद कुमार भुक्ति में देता हूँ। और पुत्र! तू तेरे इस पुत्र को ऐसा लायक बनाना कि इस अखंड मौर्य साम्राज्य का वह भावी सफल सूत्रधार बन सके। मौर्य सम्राट कुणाल का पुत्र सम्राट संप्रति।”
"हर एक शासक की अपनी-अपनी समस्यायें होती हैं। अपने-अपने प्रश्न होते हैं। सम्राट थे तब तक तो मेरी जिम्मेदारी मात्र अवंती तक ही सीमित थी। पर सम्राट के जाने के बाद समग्र भारत का संचालन करने की जिम्मेदारी मेरे सर पर आ पड़ी।
(क्रमशः)
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