top of page

महानायक खारवेल Ep. 29

  • May 25
  • 5 min read

ree

जंगल के बीच छोटी पहाड़ी का ढ़लान जहाँ से शुरु होता था और सपाट मैदानी प्रदेश जहाँ पूरा होता था, उस जगह पर एक काले पत्थर की उभरकर आयी हुई शिला को खारवेल ने खोज निकाला था। यह उसके बैठने की स्थायी बैठक थी। वहाँ से नीचे गहरी खाई, उसमें घनी-घनी हरित वनराजी की अपार फैली हुई चादर, खाई के उस तरफ मैदान और उसमें वनस्पति के बीच में, छोटे-छोटे कस्बे, उसके पीछे सर उठाकर खड़ा हुआ और आकाश को छूता हुआ आधा हरा और आधा काला पहाड़। उसके पीछे उदय हो रहे सूर्यनारायण। खारवेल को यह जगह पसंद आ गयी थी।

 

"अभी तो सप्ताह बीता है। पूरा वर्ष इस जंगल में कैसे गुजरेगा, यह समझ में नहीं आ रहा है।" बप्पदेव ने कहा। जब खारवेल समग्रता से पर्वत के पीछे सर उठा रहे सूर्य को देखने में मग्न था। यह बात उसके ध्यान में नहीं आई।

"युवराज! कहता हूँ चलो वापिस नगर में। हम यहाँ रहकर क्या करेंगे? यदि ज्यादा रहेंगे तो मुझे लगता है कि, हम भी 'जंगली' और 'वनवासी' बन जाएँगे। यह जंगल ऐसा है कि यहाँ से भागने का मन करता है।


चारों तरफ का घना वन, गंदे रास्ते और जंगली बंदर, खरगोश, नीलगाय के बीच जीने में तुझे क्या मजा आता है? अरे मेरे भाई! तू युवराज है युवराज... राजधानी के राजमहल, नरम गलीचे, सोने का वैभव, नृत्यालय और क्रीड़ागार तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। और भिक्खुराय! तुम तुम्हारे जीवन का सुनहरा समय यहाँ जंगलों में भटकने में व्यर्थ ही गँवा रहे हो, ऐसा तुम्हें नहीं लगता? यहाँ रहकर क्या हाँसिल कर लोगे तुम?”


बप्पदेव एक साँस में बोल गया। फिर भी खारवेल ने एक भी बात को कान में नहीं धरी। बप्पदेव का आक्रोश और बढ़ गया।

 

"खारवेल! मित्र! तुझे कहता हूँ। सुन रहा है तू?"

 

"शी... श...” खारवेल ने तर्जनी को होंठ पर रखकर शांत रहने का इशारा किया और बप्पदेव ने देखा कि उसका वदन अपार प्रकाश से झगमगा रहा था। उसने खारवेल से मुँह फेरकर पहाड़ की तरफ किया तो वहाँ पहाड़ के पीछे से सूर्यनारायण को निकलते हुए देखा। उसके प्रकाश का पुंज पहाड़ के नीचे के मैदान को और उसके बाद की खाई को आधे उजियारे में डूबो रहा था। सच में मनोहर दृश्य था वह। सुबह के धुएँ में से छनी हुई पीली चट्टक धूप, जैसे आकाश में सुनहरी अभ्रक का चूर्ण फैला हो, ऐसा सुहावना था।"

 

"मनुष्यों को जीवन में रोज प्राकृतिक वातावरण में सूर्योदय को देखने की आदत डाल लेनी चाहिए।" खारवेल की आवाज सुनाई दी। जिसमें कोई उद्वेग नहीं था, कोई उत्सुकता नहीं थी। नितान्तता, शांति और उत्साह भरपूर नजर आ रहा था। "हमारे राजगुरुजी के पास से सुना था कि रोज प्रातःकाल में जो सूर्योदय को देखने की आदत डालता है, उसके जीवन में भी भव्य उदय होता है।”

 

"जब मैं छोटा बच्चा था तो मैंने इसे पूरे आत्मविश्वास के साथ स्वीकार किया था। पर बड़े होने के बाद मन में सवाल खड़े हुए।


मैं प्रतिदिन राजमहल की चढ़ती दिशा में चन्द्रशाला की ओर जाता था और उस खिड़की पर खड़ा हो जाता था जो कभी कोने में में थी और अब खंडहर जैसे हो गई है। और मैं रोज सूर्योदय को देखता। सभी फरियाद, सभी विवाद, सभी चिंताएँ बह जाती हुई दिखाई देती, और नयी आशाएँ और अरमानों से भरपूर हुआ नजर आता था। पर उसका कारण नहीं समझ में आ रहा था, कि ऐसा क्यों होता है?"

 

"और मुझे यह जानना था। इसलिए राजगुरु को पूछा था, गुरुजी! सूर्योदय के दर्शन करने के पीछे क्या रहस्य है? यह मुझे बताओ।"

 

खारवेल खड़ा हो गया। परोपकार की प्रतिमा समान सूर्य को उसने प्रणाम किया और वन की विषम पगडंडियों पर चलने लगा। बप्पदेव स्तब्ध था। वह भी उसके पीछे चल पड़ा। पर उसके मन में प्रश्नों के ढेर उमड़ रहे थे। उसका मित्र आज पहेली रचा रहा था।

 

"धैर्य...” खारवेल ने कहा, "राजगुरुजी ने मुझ से कहा हुआ वह शब्द मुझे आज भी बराबर याद है। राजगुरुजी ने कहा - "बेटा भिक्खुराय! उगता हुआ सूरज हमारे प्राणों को नया उल्लास और ताजगी से भर देता है। मनुष्य सूर्य की तरह अपने उद‌य की कल्पना में डूब जाता है। यह बात बहुत सकारात्मक होती है। एक अवर्णनीय मनोबल खड़ा होता है। जो मनुष्य को धैर्य देता है। उल्लास देता है। आशावादी बनाता है। उसकी एकदम सूखी आँखों में रंगेबिरंगे सपने उगाता है। इन्सान को प्राणवान बनाता है। प्रकाश की किरणे उसकी आँखों के द्वारा अंतर में उतरकर भीतर के अंधकार को दूर हटाकर प्रकाशित कर देता है और उसे एक विलक्षण निश्चिंतता का अनुभव कराता है। उस सूरज को देखकर उसे प्रतिभास होता है कि मेरा भी उदय होगा। यह कितनी मनोहर कल्पना है।”

 

"मित्र बप्पदेव! जीवन में प्रतिपल चयन के दो मार्ग खुलते हैं। एक रास्ते पर सफलता त्वरित मिलती है। पर कमजोर, तुच्छ और असार... दूसरें रास्ते से सफलता मिलते-मिलते बहुत देर लगती है। बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहुत-सी आफत - संकट – आपत्तिओं को सहन करना पड़ता है। पर उसके बाद सोने के सिक्के जैसी नगद और खनखनाती सफलता हाथ लगती है।"

 

"मेरी जिंदगी में दो मार्ग खुले थे। एक रास्ता जो पिताश्री ने बताया था वो, और दूसरा रास्ता जो आचार्य तोषालिपुत्र लेकर आए थे वो था। इन दोनों मार्गों में से मैंने दूसरे मार्ग को पसंद कर लिया है।"

 

"यह लंबा, दुर्गम और कष्टदायक है। पर मुझे जिस गंतव्य पर पहुँचना है, वहाँ पहुँचने के लिए अन्य कोई विकल्प नहीं है। धैर्य रखे बिना कोई चारा ही नहीं है। इसलिए तू, मेरी चिंता करना छोड़ दें। मैं यहाँ प्रसन्न हूँ। तुझे जंगल में जमता है ना? मेरे पीछे तुझे हैरान होने की जरूरत नहीं है। तू चाहे तो...

 

"अब एक शब्द भी ज्यादा मत बोलना।” बप्पदेव भड़क उठा। "मुझे तेरी और तेरे युवराज के पद के गौरव की चिंता खाए जा रही है। मैंने अपनी कोई भी चिंता कभी-भी नहीं की है। मैं हमेशा तेरे साथ ही हूँ। चाहे जंगल हो, चाहे नृत्यशाला हो...”

 

खारवेल अटक गया। वह अपने मित्र के सन्मुख देखता रहा। "देख क्या रहा है? विश्वास नहीं होता है?" बप्पदेव पुनः चिल्लाया।

 

"नहीं होता विश्वास! तेरी निष्ठा पर नहीं, पर मेरी पात्रता पर। आप सभी मुझ पर इतना अधिक विश्वास किसलिए रखते हो? मुझ में ऐसा क्या है? यह मुझे समझ नहीं आता।"

 

"चल, चल"... बप्पदेव ने कहा, "आचार्य के अगडं-बगडं जाड़ी लट्ठ रोटी को तोड़ने का समय हो गया है। उसे चबाते-चबाते दिमाग को कष्ट देना। अभी छोड़ो इस पंचायत को...” ऐसा कहकर बप्पदेव चलने लगा।

 

"कैसी जंगली रोटियाँ है ज्यादा रुके तो दाँत तोड़ डालेगी। खारवेल! मुझे भय लगता है कि हम भी जंगली बन जाएँगे। नखशिख जंगली जानवर जैसे..." ऐसा सब बोलते-बोलते बप्पदेव आगे चला गया और उसके पूरे प्रतिपादनों पर मुस्कुराता हुआ खारवेल उसके पीछे चलता गया। "जंगलवासी खारवेल, या जंगली खारवेल” उसे विचार आ गया।

 

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page