महानायक खारवेल Ep. 28
- Muni Shri Tirthbodhi Vijayji Maharaj Saheb
- May 18
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[ खारवेल पिता के पैर छूने जा रहा था तभी ही वृद्धराज ने रोक दिया। पिता पुत्र की परीक्षा ले रहे थे। या ऐसा कहो कि आखिरी दाँव खेल रहे थे। पर आश्चर्य, यहाँ पिताजी के समक्ष जब वह खड़ा था, तब उसे अपना संकल्प टूटता हुआ नजर आ रहा था। तर्क तो बहुत थे, तैयारी पूरी थी, पर कुछ ऐसा था कि, जो उसे रोक रहा था पिता से विरुद्ध जाने के लिए... पूरी दुनिया के सामने लड़ सकता था, पर पिता के सामने... नहीं, नहीं...। यह संभव नहीं था खारवेल के लिए...। आगे क्या होता है पढ़िए ]
खारवेल ने महाराज वृद्धराय के चरण पकड़ लिए थे और वह निरंतर पिता के सामने नजरें उठाए देख रहा था। पर पिता वृद्धराय अभी एकदम से किसी भी प्रत्युत्तर को देने को तैयार नहीं हैं, ऐसा लग रहा था। आखिर में उन्होंने खारवेल को कंधे से पकड़कर खड़ा किया, खुद भी खड़े हो गए। 15 वर्ष की उम्र होने पर भी खारवेल उनके कंधों तक पहुँच गया था।
उसकी लंबी पानीदार आँखें, उसकी आँखों में झलक रहे भरपूर जिंदगी जी लेने के सपने, उसका उन्नत ललाट, नक्काशीदार नाक, पतले होंठ, होंठ के ऊपर बलखाती हुई मूँछे, संकल्पबद्ध भींचा हुआ जबड़ा, बाहर खींची हुई दाढ़ी, शंख जैसी गरदन और उभरी हुई चिबुक, विशाल कंधे, आजान बाहु, उभरा हुआ सीना और पतली कमर.. पिता वृद्धाराय अपने युवान पुत्र खारवेल का नख शिख निरीक्षण कर रहे थे।
उसके कंधों पर रखे हुए अपने हाथों से थपथपाते हुए उन्होंने कहा, "माता-पिता को संतान हमेशा बालक ही लगती है। आखिर में एक समय संतान को स्वयं ही साबित करना पड़ता है कि वह समझदार हो गई है। विचारशील और स्वप्नसेवी बन गई है। अब वह बड़ा हो गया है।
"मान गया बेटा! अब तू बड़ा हो गया है। पर तेरे सपने तो उससे भी ज्यादा बड़े हैं। वे तो मेरी आँखों में भी नहीं समा सकते हैं। मैं ऐसा सपना नहीं देखता हूँ, मेरे लिए यह व्यर्थ है, बेकार है।"
"यह राज्य, वैभव, भोग, सुख समृद्धि ये सभी कुछ पुण्य के आधीन हैं, भाई! पुण्य है तब तक सब कुछ है, पुण्य खत्म हो जाए तो राजा भी रंक बन जाता है। जो अस्थिर है, अशाश्वत है उसके लिए इतना अधिक रंज क्यों? है तो भी ठीक, नहीं है तो भी ठीक...। सामान्य प्रजा में हमें ऐसी विचारधारा को फैलाना चाहिए। नाम-मात्र की पराधीनता को उखाड़ने के लिए इतने महाआरंभ की कल्पना क्यों करनी चाहिए?"
"फिर भी जैसी तेरी भवितव्यता। मैं पिता हूँ इसलिए मुझे तेरे मन को, अरमानों को या सपनों को कुचलने का कोई अधिकार नहीं है। तेरा सत्व, साहस, पुरुषार्थ और प्राण बहुत महान हैं। तू जो चाहेगा उसमें पराकाष्ठा तक पहुँचकर ही रहेगा। उसके आर-पार उतर जाएगा, चाहे फिर वह कर्म हो या धर्म।"
"पर भाई! उतना ध्यान रखना कि यह सब करके चाहे हम कितना भी पसारा करते हैं, पर आख़िर में तो समेट ही लेना पड़ता है। इतना सारा फैला हुआ कुछ भी काम का नहीं है। आख़िर तो मन लगाकर किया हुआ धर्म पुरुषार्थ ही तारणहार है, सार रूप है।"
"कपड़े पहनेंगे नहीं तो साफ ही रहते हैं। पर बिना कपड़ों के घूम थोड़ी सकते हैं? हाँ, किसी को राजसी कपड़े पहनने का अरमान हो, तो किसी को अंग ढँक सके उतने वस्त्र, पर कपड़े तो पहनने ही पड़ते हैं और उन कपड़ो को पहनोगे तो वह मलिन होंगे ही... मलिन हुए कपड़ों को फिर से शुद्ध करना, साफ कपड़े को पहनकर मलिन करना और मलिन हुए कपड़ों को फिर से साफ रखना... ।"
"जीवन लेकर आए है। जन्म हुआ तब यह जीवन-वस्त्र शुद्ध-स्वच्छ होता है। पर जिंदगी जीते - जीते हम कर्म करते रहते हैं। उसकी प्रभाव इस जीवन-वस्त्र पर पड़ता है और वह थोड़ा - बहुत मलिन हो जाता है। आरंभ जितना मर्यादित करो, उतना वस्त्र कम मलिन होता है और आरंभ जितना ज्यादा, उतना वस्त्र अधिक मलिन होता है। कोई जीवन-वस्त्र को संभाल लेता है और कोई ऐसे-वैसे कर्म करके, महाआरंभ करके जीवन-वस्त्र को दाग-दाग कर देता है। वस्र हमारा है बेटा! उसे महाआरंभ से जितना मलिन कर देंगे, उतना ही उसे हमें साफ-शुद्ध भी करना पड़ेगा। तू जिस रास्ते पर जा रहा है, उस रास्ते पर जाने से रोकने के पीछे मेरा एक ही उदात्त आशय है बेटा! मैं मात्र तेरा पिता ही नहीं हूँ, धर्मपिता हूँ। तेरा जन्म मेरे निमित्त से हुआ है, तो फिर तेरे जीवन में धर्म का जन्म हो जाए उसकी जिम्मेदारी भी मेरी ही है। तुझे संभालने की जिम्मेदारी भी मेरी है। तो तेरे संस्कारों को और धर्म को बनाए रखने का फर्ज भी मेरा है।”
"इसीलिए मैं तुझे रोकता हूँ। तू महाआरंभ के कीचड़ में रेंगकर तेरे जीवन वस्त्र को भयानक रूप से मलिन नहीं करे ऐसी मेरी मनीषा है।"
"पर जब तेरा निर्णय अडिग है, तो कोई दिक्कत नहीं है। तू बेशक अपने रास्ते पर जा। मैं तुझे जीवन-वस्त्र को
कादव-कीचड़ से मलिन करने की छूट नहीं दे रहा हूँ। पर मुझे विश्वास है कि एक समय पर तू जरुर इस कर्म के जंजाल से संपूर्ण निवृत्त होकर पूरे जोश के साथ धर्म के महालय के सोपानों को चढ़ने लगेगा। आज तू जितना नीचे गिर रहा है, उतना ही ऊपर उठकर दिखाएगा। मेरे इस विश्वास को सफल करना अब तेरे हाथ में है। मेरे आशीष हमेशा तेरे साथ है। सोच - समझकर योग्य निर्णय करके आगे बढ़ता रहा..." पिता महाराजा ने खारवेल के सर पर हाथ रख दिया।
इसी क्षण के लिए खारवेल तरस रहा था। पिता की अंतर की आरजू को सुनकर या फिर पिता के आशीष मिल गए उस कारण से जो भी हो, पर खारवेल की आँखों से अनायास ही आँसू निकल पड़े, जब उसके पिता ने सर पर हाथ रखा। उसको उसके पिता में राज सिंहासन पर बैठे हुए महायोगी के दर्शन हुए। पिता की त्यागभरी विचारधारा उसे बहुत गहराई से छू गई। उसी वक्त...
"कलिंग सम्राट की जय हो! महाराज योगी की जय हो!” दरवाजे से आचार्य तोषालिपुत्र भीतर प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने आकर महाराज को नमन किया। अब उनके नमस्कार में बिलकुल औपचारिकता नहीं थी, उल्टा भाव-विभोरता नजर आ रही थी।
"महाराज! आज ऐसा समझ में आया कि आपका मन तो राज सिंहासन पर बैठकर भोग के सागर के बीच भी निःस्पृह और निर्लेप है। आपमें मुझे आज महान राजसंन्यासी के दर्शन हुए हैं। आपकी विचारधारा आश्चर्यजनक रूप से उन्नत है। जंगल में अभावों के बीच जीने वाले जीव को भी भोगों की तृषा हैरान करती है और राजधानी में भोग-समृद्धि के ढेरों के बीच रहकर भी आप सभी से निर्लेप हो।"
"आपको पहचानने में आचार्य की भूल हो गई थी। उसके लिए इस नगण्य दासानुदास को क्षमा प्रदान कीजिए महाराज!”
"अनुमति देने का या क्षभा करने का अभी अवसर नहीं है आचार्य!” महाराज ने पूरी स्वस्थता से कहा- “कोई किसी को संपूर्णतः नहीं समझ सकता है। यदि ऐसा हो जाए तो सभी सर्वज्ञ नहीं बन जाएँगे? बोलो! है कोई सर्वज्ञ हम में से?”
"रास्ता भले ही सीधा लो या लंबा, सरल लो या कठिन, ढलानवाला लो या चढाववाला, पसंदगी आपकी, पर इतना निश्चित होना चाहिए कि वे सारे रास्ते आख़िर में मंजिल तक पहुँचने वाले होने चाहिए।”
"मैं आपकी निजी भावनाओं को जानता हूँ। आप ब्रह्मचारी हो। आप संसार का त्याग करने के लिए उत्सुक हो और संसार देख चुके हो। पर पुत्र खारवेल अभी अपरिपक्व है। अनुभवी नहीं है। उसके मन में क्या है, उसका शायद उसे खुद को भी पता नहीं है।"
"मैं उसकी इच्छानुसार उसे आपको समर्पित करता हूँ क्योंकि मुझे विश्वास है कि आप उसे अनुभव-समृद्ध बनाएँगे और ज्यादा व्यवहारिक बनाएँगे, और... अच्छा सक्षम वीरयोद्धा तो आप बनाने वाले ही हो, यह मुझे कहना नहीं है या रोकना नहीं है। जैसी उसकी भवितव्यता। पर जो कुछ भी आरोपण उसमें करो, तो इतना अवश्य ध्यान रखना कि उसका लक्ष्य गंतव्य से कहीं भटक ना जाए। उसका रास्ता अंतिम लक्ष्य की तरफ ही झुका हुआ रहे, झूकता रहे। ऐसा आप ध्यान में रखोगे ऐसा मुझे विश्वास है। इसलिए आप उसे अपने साथ ले जा सकते हो।"
"अद्भूत त्याग महाराजा!” सेनापति वप्रदेव हाजिर हो गए। “क्षमा करना, बिना अनुमति के दाखिल हो गया हूँ। पर बप्पदेव के लिए चिंता हो रही थी। इसलिए पितृहृदय दौड़ा चाला आया।"
"और यहाँ आकर जो दृश्य देखा, उसके बाद तो अब मैंने भी निर्णय कर लिया है।” वप्रदेव पुत्र के पास गए। उसके सर पर हाथ रखकर, उसकी आँखों में देखते ही रह गए। फिर महाराज के सामने मुड़कर बोले, "बप्पदेव को मैं आज्ञा करता हूँ कि उसे खारवेल के साथ उसके साये की तरह रहना होगा। सदा उसके साथी, सेवक, सहायक बने रहना होगा। महाराज यदि अपने पुत्र का त्याग कर रहे हों, तो मैं क्यों अपने पुत्रमोह में लिपटा रहूँ? नहीं, मुझे ऐसा लगाव नहीं रखना है।"
"नहीं सेनापति! अपनी आज्ञा को मनाने के लिए अपने पुत्र के मन को कुचल नहीं सकते हो। खारवेल जिस कठोर मार्ग पर जा रहा है, उस मार्ग पर जबरदस्ती आपको पुत्र को धकेलने की जरूरत नहीं है। मैं मना करता हूँ।”
"पर महाराजा।" बप्पदेव ने कहा- "मेरे लिए तो यही इष्ट है। और पिताजी ने मुझे आज्ञा करके, इनकी अनुज्ञा लेने से मुक्त कर दिया है। आप दोनों महान हो।"
"तो सब कुछ पहले से ही सुनिश्चित है वही ना?” महाराज बोले। “नहीं, नहीं पिताजी! ऐसा कुछ भी नहीं है।” खारवेल बोलने जा रहा था, पर महाराज ने उसे रोक दिया।
"क्या नहीं नहीं करते हो? भवितव्यता में सब कुछ ही आयोजित किया गया ही है। केवलज्ञानी के ज्ञान में सब कुछ पहले से ही निश्चित है। बोल, है या नहीं? तो फिर विरोध करने वाले हम कौन? हमें तो मात्र स्वीकार ही करना होता है।” महाराजा ने कहा और चर्चा पर पूर्णविराम लगा दिया।
अंत में आचार्य तोषालिपुत्र ने उस आदमकद के विशाल चित्र के सन्मुख जाकर वंदन किया। अपनी तलवार को म्यानमुक्त किया और महाराज क्षेमराज और सेनापति वप्रदेव के सन्मुख देखकर कहा- "मैं आटविक समूह का अग्रणी आचार्य तोषालिपुत्र... अपनी पूर्ण जिम्मेदारी से, पूर्ण सावधानी के साथ राजकुमार और बप्पदेव की सुरक्षा की और उनकी तालीम की संपूर्ण जिम्मेदारी लेने का विश्वास दिलाता हूँ। यह प्रतिज्ञा है एक आटविक की दिवंगत महाराजा के समक्ष, वर्तमान महाराजा समक्ष और इस म्यानमुक्त खडग की साक्षी में... कि आप दोनों महानुभावों के इस महान संतति त्याग को मैं व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। समग्र कलिंग की प्रजा को मैं निराश नहीं होने दूँगा। आपकी दी गई सूचनाओं का अमल मैं मेरे प्राणों का भोग करके भी करूँगा। आपके इस महान त्याग के लिए कलिंग की उन्नति की तमन्ना रखती हुई आपकी प्रजा भी आपको बार-बार याद रखेगी।"
खारवेल जैसे ही पिता के चरण स्पर्श करने के लिए झुका, तो पिता महाराजा ने उसे गले लगा लिया। बहुत देर तक पिता-पुत्र एक-दूसरे के गले से लिपटे रहे। जब अलग हुए तब पिताजी ने कुछ कहा नहीं और खारवेल, पता नहीं क्यों लेकिन उसकी आँखो से बहते हुए आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
पिता वृद्धराज ने उसकी आँखों के आँसू पौछे। फिर तोषालिपुत्र के सामने देखकर कहा- "आचार्य! आप उसे कल तो ले ही नहीं जा सकते। आपको कम से कम पंद्रह दिन तक राह देखनी पड़ेगी।" तब तोषालिपुत्र अवाचक होकर देखते रहे गए। उनको ऐसी ही दशा में छोड़कर राजा वृद्धराज सेनापति वप्रदेव की ओर मुड़े ओर कहा -
"सेनापति वप्रदेव! तात्कालिक रूप से खारवेल के युवराज पदाभिषेक की तैयारी करवाएँ। इस निमित्त से समस्त त्रिकलिंग मंडल के सर्व सम्माननीय राजा और मंडलेश्वरों को निमंत्रण देकर बुलाइए और हाँ, आटविक समूह के सर्व नायकों को बताना कि राजा आपको याद कर रहे हैं। वे सभी जरूर आने ही चाहिए।”
"मेरे स्वामी! मेरे नाथ! प्रजापालक राजा वृद्धराज!” आचार्य तोषालिपुत्र गद्गद् हो गए थे। “आज का दिन हमारे भाग्य में परम आनंद और महान उत्सव लेकर आया है। आज हमें हमारे सम्राट वापिस मिले हैं। आज हमें हमारा छत्र वापिस मिला है। महाराज! इस बालक पर बहुत कृपा कर दी।” इतना कहकर आचार्य छोटे बालक की तरह राजा के चरणों के आगे अपना सिर घिसने लगे।
"महाराज?" वप्रदेव ने कहा- "यह आटविक समूह की भक्ति का प्रकर्ष तो अभी मुझमें भी नहीं आया है। वास्तव में यह महान प्रजा है।"
"हाँ" महाराज ने कहा। "जितनी महान, उतनी ही अटल, प्रतिज्ञावान, निष्ठावान... कलिंग की मूलभूत प्रजा तो यही है वप्रदेव!"
"आचार्य!” राजा ने कहा- "खड़े हो जाओ, और आपके सर्व प्रतिनिधिओं को सूचित करो कि राजा याद कर रहे हैं।"
(क्रमशः)
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