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महानायक खारवेल Ep. 31



सुबह के खुशनुमा वातावरण में बप्पदेव जब उठा, तब उसने बाजू में देखा कि, खारवेल की शय्या खाली थी।

 

"सुबह-सुबह के समय में कहाँ चला गया होगा?” उसके मन में शंका हो गई। अंगड़ाई लेने के लिए आधे ऊपर किए गए हाथ वापिस नीचे आ गए। उबासी लेने के लिए आधा खुला मुँह वापिस बंद हो गया। तंद्रा में छोटी हुई आँखें बिना मले  ही बड़ी हो गई। बात अवश्य चिंतित करने वाली थी। क्योंकि पिछले दो-तीन दिनों से खारवेल का बर्ताव रहस्यमय था। मानो कि वो अब असल खारवेल रहा ही नहीं था। बप्पदेव इसीलिए उसका सविशेष ध्यान रखता था। उसे प्रसन्न करने का बहुत प्रयत्न किया करता था। उसका वह खास, निजी, हितेच्छु, प्रेमल मित्र था। पर खारवेल उसकी एक भी बात का प्रत्युत्तर तो क्या, प्रतिभाव भी नहीं दे रहा था।

 

यह सब तब से ही हुआ था जब से खारवेल और आचार्य दोनों अकेले घूमने गए थे। "कोई भुरकी छिड़क दी है उस जंगली बाबा ने मेरे मित्र पर और मेरा मित्र बदल गया है।" बप्पदेव अपनी समझ के अनुसार ऐसा सोचा करता था। वह अपने मित्र को खोना नहीं चाहता था।

 

पर खारवेल को एकांत चाहिए था। वह गहन विचारणाओं में मग्न था। आचार्य से मिलने के बाद, उनके साथ बातचीत करने के बाद उसके मन में अविरत संघर्ष चल रहा था। उसको अपने मन के सारे विचारों का संशोधन करना था, और एक ठोस निर्णय करना था।

 

इन्सान को जब कोई ऐसी बात या विचार अपनाने को कहा जाए, जो उसके बचपन से मिले हुए जन्मजात संस्कारों के विरुद्ध जाते हो, तब उसका मन उन बातों की स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता है। बहुत संघर्ष करना पड़ता है, मनुष्यों को उन सभी के लिए।


ऐसा एक अदृश्य संघर्ष खारवेल के मनोमस्तिष्क में चल रहा था। जितना-जितना सोचता रहता था, उतना ही उस संघर्ष में ज्यादा से ज्यादा फँसता जाता था। जीवन के मार्ग और मंजिल का निर्णय करने का निर्णायक क्षण उसके सामने आ खड़ा था और वह स्वयं इस निर्णय को नहीं ले सकता था। क्या करे खारवेल?


उसका यह संघर्ष अदृश्य और पूरी तरह निजी था। इसलिए वह बप्पदेव को नजर नहीं आ रहा था और बप्पदेव को इस संघर्ष का हिस्सा बनाने का कोई प्रयोजन नहीं था। जीवन में बहुत-से मनोसंघर्षों को मनुष्यों को अकेले ही सुलझाना पड़ता है। इसमें नजदीक या दूर का, कोई भी इन्सान कुछ खास नहीं कर सकता है। अरे! उलटा ऐसा हो जाता है कि, वह इन्सान अगर ऐसे समय पर संघर्ष को निपटाने के लिए दखलगिरी करने जाए तो संघर्ष की गुत्थी खुलने के बदले और उलझ जाती है।

 

पर बप्पदेव को यह बात समझ में नहीं आ रही थी, उसे इस बात को समझना भी नहीं था। उसे तो बस, कैसे भी करके अपने मित्र को हँसते हुए देखना था। स्मित दो प्रकार के होते हैं। एक तो ऐसा कि जिसमें इन्सान हँसता है, हँसता हुआ दिखाई देता है, पर वास्तव में वह हँस नहीं रहा होता है और दूसरा स्मित वह है जिसका अंतर के अंतःस्तल में से आविर्भाव होता है। वह सस्ता नहीं है। बार-बार नहीं मिलता है। यह बहुत दुर्लभ है। वह वेदना की आग को पी लेने के बाद जब आत्मतृप्ति की डकार आती है तब सहज ही प्रकट होता है और ऐसा स्मित खारवेल से छिन गया था।

 

बप्पदेव ने खारवेल को गहरे चिंतन में डूबा हुआ आज के पूर्व भी कई बार देखा है। उसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। पर इतनी अधिक प्रगाढ़ता से, इतनी ज्यादा धून में तो उसे आज से पहले कभी नहीं देखा है। उसकी निरुद्देश्य दृष्टि, सपाट चेहरा, बंद होठ और नसनस में चल रहे मानसिक संघर्ष का आवेग...। अभी का खारवेल बप्पदेव के लिए अजनबी था। उसे वास्तव में इस खारवेल से डर लगता था इसीलिए हीं आज खारवेल को नहीं देखकर वह सचमुच ड़र गया। उसे कुछ अजीब-अमंगल महसूस हो रहा था और वह खारवेल की खोज में निकल पड़ा।

 

दो-चार लोगों को पूछते-पूछते, संभवित स्थानों पर तलाश करता हुआ वह जंगल की पगडंडियों पर यहाँ से वहाँ, इधर से उधर, भटकता – घूमता रहा। पल-पल उसकी चिंता और उत्तेजना बढती जाती थी। ऐसी ही एक जंगली पगडंडी से गुजरते हुए उसे एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी। 'मर्मवेधी बाण' उसने निर्णय कर लिया। शायद यह बाणवीर खारवेल ही हो सकता है। उसने सोचा और उस दिशा में जाकर देखा तो उसका अंदेशा सच निकला। वहाँ खारवेल ही खड़ा था। उसका रोम-रोम विद्रोही हो गया था। जैसे कि नस-नस में से आक्रोश छलक रहा था। वह जुनूनी बन गया था और क्या कर रहा था?


बाणों से भरे हुए तरकश में से वह एक बाण धनुष्य पर चढ़ाकर छोड़ता था। वह बाण जाकर पेड़ के तने पर चिपक जाता था। उसके पीछे दूसरा बाण छोड़ता था। वह बाण अगले बाण के बराबर बीच से उसके टुकड़े करके बराबर उसके फन पर चिपक जाता था। उसके पीछे दूसरा बाण छूटता था, जो उसके अगले बाण के दो टुकड़े करके फन पर चिपक जाता था। वहाँ तने के नीचे ढेर सारे बाणो के टूटे हुए टुकड़े पड़े थे और खारवेल एक ही जगह पर, एक ही बिंदु पर बाणों की श्रेणी छोड़ रहा था। एक भी बाण उस बिंदु पर से रतिभर भी भटका नहीं था। वे सभी बाण बराबर एक ही जगह पर लगते थे। खारवेल की इस अद्भुत कला को देखकर बप्पदेव अभिभूत हो गया। किसी चित्र में जड़ दिया हो वैसे स्तब्ध बनकर देखता ही रह गया और आखिर में तरकश में बाण खत्म हो गए। खारवेल ने हाथ पीछे डाला। उसके खाली हाथ तरकश में बाण को ढूँढ रहे थे। तब उसे कुछ महसूस हुआ। उसने उसे हाथ में लिया। वह किसी का हाथ था। वह अचानक पीछे मुड़ा, और पीछे बप्पदेव खड़ा था। उसके चेहरे पर तूफानी स्मित था।


यद्यपि, खारवेल ने उसे देखकर चेहरा फेर लिया था। जरा सा भी प्रतिभाव नहीं दिया। वह कुटिर की और चलने लगा। पर आज बप्पदेव उसे ऐसे ही नहीं छोड़ने वाला था। वह उसके पीछे-पीछे चला। "खारवेल! मित्र! मुझे पता है कि तू किसी गंभीर मनोमंथन में डूबा हुआ है। ये तेरे निशान की तरह कोई एक ही, मात्र एक ही मुद्दे पर तेरी सारी विचारधारायें अटक गई हैं। तू तेरे मन में बार-बार एक ही बात घूमती रहती है। पर मित्र! मुझे तो बताओ, वह बात है क्या? शायद मेरे साथ विचार-विमर्श करने से तेरी परेशानी का अंत हो सके?"

 

इतना कहने पर भी खारवेल चलता ही रहा। चुपचाप चलता रहा। बप्पदेव के दिमाग़ में यही चल रहा था कि दूसरी बार पूछूं या नहीं। आखिर में वह भी उसके पीछे चुपचाप चलने लगा और उसके मनोमन में चल रहे विचारों के चक्रवात को अनुभव करता रहा। और कुछ देर चलने के बाद खारवेल अटक गया और अचानक नीचे बैठ गया। रास्ते की धूल से उसके वस्त्र मलिन हो रहे थे। चारों तरफ सूखे बिखरे हुए पत्ते - तिनके वस्त्र में घुस रहे थे। बप्पदेव भी मौन पूर्वक उसके बाजू में बैठ गया। कुछ क्षण के मौन के बाद खारवेल ने कहा-

 

"आचार्य तोषालिपुत्र ने मुझे एक घटिका में जो तत्त्वज्ञान दिया है, उसे हजम करते-करते मुझे एक सप्ताह लग गया बप्पदेव!” इतना कहकर वह बप्पदेव के सामने हँसा। उसकी मुस्कान में समझदारी थी, उष्मा थी। कुछ अद्भुत-बेजोड़ चमक थी। एक प्रकार की ठंडक और नमी थी।

 

"आपके स्वीकारने या नहीं स्वीकारने से सत्य कभी बदलता नहीं है। आज मैंने स्वीकार लिया है कि...

 

"क्या? क्या स्वीकार लिया है तूने मित्र।"

 

"कोई भी इन्सान हर तरह से गलत नहीं होता। सम्राट बनने के लिए आचार्य ने मुझे जंगली-धूनी बनने को कहा। पापी नहीं, पर महत्वाकांक्षी। सम्राट का अपना समूह उसे विजेता और महान मानता है। पर सम्राट का शत्रु - उसके सामने परास्त हुआ, उससे पराजित हुआ उसका पददलित प्रजावर्ग तो सम्राट को असंस्कारी और आततायी मानती है। पर सम्राट जैसा जिसको बनना हो, जिसे सम्राट बनने की महेच्छा और एषणा है, वह व्यक्ति कभी-भी किसी के प्रतिभावों की परवाह नहीं कर सकता। वह तो बस काम करता है। उसे तो बस, एक ही चीज दिखाई देती है - विजय!"

 

"यह सब तो बराबर है, पर मित्र खारवेल! तूने इससे क्या स्वीकार किया?"

 

"इससे मैंने स्वीकार किया है कि, सम्राट अशोक गलत नहीं थे...”

 

यह विधान सुनकर बप्पदेव के दिल पर मानो जोर की बिजली गिरी।

"यह तू क्या बोल रहा है, मित्र! अशोक... जिसके लिए प्रत्येक कलिंगवासी के मन में तीव्र द्वेष और असूया भरी पड़ी है। क्या वह सच्चा हो सकता है कभी? इस आचार्य ने तुझे उलटी पट्टी पढ़ायी है।"

 

"जो हालत अभी तेरी है, वैसी ही हालत पिछले सात दिनों से मेरी थी। आचार्य ने अशोक को सच्चा नहीं कहा है। पर आचार्य ने कहा है कि, सम्राट और विजेता को हमेशा जंगली बनना पड़ता है और अशोक – वह सम्राट थे, इसलिए वे जंगली थे। महत्वाकांक्षी, विस्तार के शौकीन... विजय के लिये सारी हद पार कर देनेवाले... क्या कहूँ बप्पदेव! आचार्य के बताए हुए सम्राट के सभी गुण अशोक में मुझे दिखाई देते है। अशोक द्वेषपात्र नहीं है बप्पदेव! पर आदर्श की मूर्ति है। क्या अशोक और क्या महान संप्रति... उन दोनों में से कोई भी द्वेष करने योग्य नहीं है, परंतु जिस किसी को भी महान सम्राट बनना हो तो उसे उनके जीवन का अभ्यास करने जैसा है।"

 

"अशोक को तो मैंने देखा नहीं है। पर सम्राट संप्रति को तो मैंने मेरी सगी आँखों से देखा है। उन्होंने जिस त्वरितता से मेरे गले का निशान साधा था बप्पदेव! इतनी चपलता तो उस व्यक्ति में ही होती है जो पलपल सतर्क, सजाग और संघर्षरत हो। यही गुण उसे सम्राट बनाते हैं बप्पदेव!"

 

“अब यदि मुझे मौका मिलेगा, तो मुझे एक बार महान सम्राट को मिलना है। उनके साथ जीना है। वे तो मुझे कलिंगवासी जानने के बाद भी आदर मान दे रहे थे। पर मेरे मन में ही उनके प्रति वैर की ग्रंथि थी। वह मेरा स्वागत कर रहे थे और मैं उन्हें धिक्कारता रहा था। पर अब मुझे उनको अपना गुरु बनाना है। मुझे उनके साथ जीना है।”

 

"बप्पदेव! एक अहिंसा के परम पुजारी परमार्हत के लिए सम्राट बनकर रहना कितना दुष्कर काम होता है। सम्राट यानि जाने-अनजाने में जिसे हिंसा करनी पड़ती है और उसी हिंसा को करते समय उस अहिंसा के पूजारी की आत्मा भीतर से नहीं तड़पती होगी? ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे उनके साथ रहकर यह जानना है।"

 

"बप्पदेव! आज उम्र के 16-17 वर्ष में मुझे आचार्य तोषालिपुत्र के पास से जो मार्गदर्शन मिला है वह बहुत ही छोटी उम्र से आर्य बलिस्सहजी से मिले हुए मार्गदर्शन से बिल्कुल ही विरोधी था। आचार्य की विचारधारा में मात्र एक ही शब्द है "विजय"। और आर्य की विचारधारा में मात्र एक ही शब्द है- "विराग।” एक तरफ सत्ता है, आग्रह है, प्रभुता है, साम्राज्य है। दूसरी तरफ त्याग है, समाधान है, अकिंचनता है, एकाकिता है। एक तरफ विनश्वर धरती के साम्राज्य की बात है, तो दूसरी तरफ अविनाशी आत्मा के साम्राज्य को प्राप्त करने की बात है। दोनों के बीच में उलझ गया हूँ। कहाँ जाना चाहिए?"

 

"क्या कोई मध्यम मार्ग नहीं है मित्र खारवेल!”

 

"है... बप्पदेव! जरूर है। पर उस मध्यम मार्ग पर मध्यम लोग ही विचरण करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि - मेरा जन्म मध्यम मार्ग पर विचरने के लिए नहीं हुआ है। मुझे उत्कृष्ट चाहिए, उत्कट चाहिए, पराकाष्ठा का चाहिए, प्रबल चाहिए, तीक्ष्ण चाहिए। बप्पदेव! मेरे लिये मध्यम मार्ग अनुकूल नही होगा, मेरा मन उसमें नहीं लगेगा।"

 

"आखिर बात तो है दो मार्ग की... साम्राज्य का मार्ग या सर्वत्याग का मार्ग?” खारवेल का प्रश्न नौंकदार भाला बनकर भौंकता रहा। तीक्ष्ण मौन फैला हुआ था।

 

"ऐसे मौन मत हो जा बप्पदेव! मुझे सहाय कर। जिंदगी के कठिन क्षण पर आकर खड़ा हूँ। दो रास्ते यहाँ से बँट जाते हैं। मुझे कौन-से रास्ते पर जाना चाहिए?"

 

"कलिंग की अस्मिता जिस रास्ते पर बनी रहे, उसी रास्ते पर आप जाइए सम्राट खारवेल!" बप्पदेव ने एक वाक्य में सब कुछ कह दिया।

 

"यानि कि तू भी मुझे साम्राज्यवाद का मार्ग बता रहा है ना?" खारवेल ने कहा। उसकी आवाज में गहरा निरुत्साह था।

 

"मैं आपको क्या बताउँगा मेरे सम्राट! मुझे ऐसा लग रहा है कि इन कलिंगवासियों की आशा, अरमान, सपने और आतुरता को अधूरा छोड़कर आप शांति की खोज में निकल जाओगे तो आप शांति प्राप्त नहीं कर सकोगे। शांति तो आपसे दूर ही रहेगी।”

 

"समझकर छोड़ दिया हो तो सब कुछ संभव है।"

 

"छोड़ना तो है ही। पर एक काम करो। सम्राट बनने के बाद फिर छोड़ दो तो?"

 

"कीचड़ में हाथ डालकर धोना, उससे अच्छा तो कीचड़ में हाथ ही नहीं डाले, तो क्या गलत है?”

 

"जो इन्सान साम्राज्य को और सम्राट पदवी को कीचड़ जैसा ही मानता हो, वह सम्राट बनेगा तो भी उसके हाथ मलिन नहीं होंगे, ऐसा मेरा मानना है।" बप्पदेव के इस विधान ने खारवेल को सोच में डाल दिया।

 

"सच समझने के बाद तो महान सम्राट मात्र विजेता ही नहीं मगर पूजनीय भी बन जाते हैं। आप प्रथम तो सम्राट ही बन जाओ। फिर चाहे भले ही भिक्षुजनों के विनयी पुजारी बनकर रहो। पर अकाल ही इस शक्ति, सामर्थ्य और उसके साथ जुड़े हुए कलिंग की समस्त जनता के सपनों को खारवेल! यूँ ऐसे ही व्यर्थ मत जाने देना। यही मेरी विनती है आपसे।”

 

बप्पदेव का कथन पूरा हुआ और उसके साथ ही हवा का एक हल्का सा झौंका आया। सूखे पेड़ के पत्ते फरफरा उठे। खारवेल के बड़े खुले बाल अस्तव्यस्त हो गए। उसका शरीर सख्त हो गया और उसकी आँखों में संकल्प की धारा उतर आयी।

 

"तेरी बात मेरे संकल्प के अनुसरण की ही है बप्पदेव! अभी मैं एक ही निशान पर जो बाण चला रहा था। वह एक ही निशान जो मुझे दिखाई दे रहा था, वह था ‘सम्राटपना।’ ”

 

"जीवन में सभी उपलब्धियाँ एक साथ नहीं मिलती है। कुछ बनने - कुछ पाने के लिए कुछ खोना, कुछ गँवाना पड़ता है। सभी को एक साथ खुश नहीं कर सकते हैं। मनुष्य तो अपनी अंतरात्मा को प्रसन्न रख सके यही काफी है। आर्य बलिस्सह की इतने वर्षों की संगति के बाद भी मुझे उनके मार्गदर्शन पर जितनी प्रीती हुई थी, उससे कई गुना अधिक प्रीति और रति मुझे आचार्य के कथन पर हुई है। शायद यही मेरा गंतव्य है। प्रथम सम्राट और फिर राजसंन्यासी।"

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