महानायक खारवेल Ep. 30
- Jun 1
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"आचार्य! मन में प्रश्न क्यों उठते हैं?” खारवेल ने आचार्य तोषालिपुत्र से प्रश्न किया। वे प्रातःकालीन परिभ्रमण हेतु निकले थे। इस समय खारवेल और आचार्य अकेले ही थे। बप्पदेव अन्य किसी कार्य में व्यस्त था। या ऐसा कहो कि, स्वयं आचार्य ने ही उसे इस वक्त किसी दूसरे काम में लगा दिया था। कारण?
क्योंकि वे देख रहे थे, एवं अनुभव कर रहे थे कि प्रिय शिष्य खारवेल को कुछ कहना है, कुछ पूछना है। पर उसे बप्पदेव की उपस्थिति बोलने से रोक रही है। वह खुल कर बात नहीं कर सकता है, इसलिए आज आचार्य ने बप्पदेव को अन्य काम में व्यस्त रखा है। यह बात बप्पदेव को अच्छी नहीं लगी, पर खारवेल को अच्छा लगा और आचार्य से उन दोनों का अच्छा-बुरा लगना, कुछ भी छुपा नहीं था। पर उनको उनका कर्त्तव्य निभाना है। वे दोनों खुश हो या नाराज – उसकी उनको इतनी परवाह नहीं थी।
"मन... खारवेल! सब भले ही ऐसा कहते हों कि मानव आहार से जिंदा रहता है। पर मैं कहता हूँ कि मानव अपने मन के आधार से जीता है। मानव का मन अनेकविध अदृश्य विभावनायें खड़ी करता है। भय, विचार, प्रश्न, संशय, कल्पना ये सब निराकार स्वरूप बहुत सूक्ष्म होते हैं। उसके आधार से मनुष्य जीता है। उसके आधार से निर्णय करता है। लक्ष्यों को बाँधता है। इस मन के प्रबल सूक्ष्म निराकार स्वरूपों में से एक स्वरूप यानि प्रश्न।”
"यह प्रश्न कभी भय और शंका होने से जन्म लेता है और कभी-कभी निश्चय जानने की उत्सुकता, जिज्ञासा में से जन्म लेता है। प्रथम प्रकार का प्रश्न इन्सान को कर्त्त्वच्युत करता है, परेशान करता है, व्यामोह करता है, अकेला कर देता है और दूसरे प्रकार का प्रश्न तो मनुष्य के संकल्प को और दृढ़ बनाता है। अब बता कि, तेरा प्रश्न क्या है? वह बाद में बता मगर पहले यह बता कि तेरा प्रश्न कैसा है?”
"निःसंदेह दूसरे प्रकार का ही है आचार्य!” खारवेल ने तुरंत ही बताया। आचार्य संतुष्ट हो गए। "मैंने जो संकल्प किया है, उसमें से चलित करने की क्षमता किसी में नहीं है। मुझे डिगाने की इजाजत मैंने किसी को भी, कभी भी नहीं दी है। चाहे वह स्वयं मेरे पिताजी ही क्यों ना हो? या चाहे मन में उठने वाला भूचाल ही क्यों ना हो? खारवेल इतना कमजोर नहीं है कि मन को वश में न कर सके। इतनी कमजोरी रखना मुझे स्वीकार्य नहीं है। मुझे साधारण मनुष्यों की भाँति नहीं जीना है। मेरे अरमान बहुत बड़े है। उस लक्ष्यपूर्ति की वेदी में मुझे अंगत संवेदनाओ की आहूति देते रहना है और वह मैं बचपन से देता रहा हूँ और आगे भी ऐसा ही करूँगा।”
"खारवेल! यही ताकत आपको महान सम्राट बनाकर ही रहेगी। इसीलिए मुझे यकीन है कि आपको जिज्ञासा से ही प्रश्न जगा होगा। भय से तो हरगिज नहीं। अब आपका प्रश्न मुझे बताइए।"
“आचार्य! यहाँ जंगल में आए हुए मुझे एक महिना हो गया, पर मुझे नहीं लगता है कि आपकी तरफ से मुझे कोई प्रशिक्षण मिला हो! इसलिए मुझे अभी तक मेरा यहाँ पर रहने का प्रयोजन समझ में नहीं आया है।"
"और तुम्हारा धैर्य खतम हो रहा है ना?" आचार्य ने परीक्षा की।
"धैर्य तो मेरा पर्वत से भी ज्यादा है। यह तो हटेगा या घटेगा ही नहीं। पर मुझे पता तो चलना ही चाहिए ना कि, मुझे यहा रहकर क्या सीखना है? किस प्रयोजन से यहाँ पर रूकना है? यहाँ मेरा प्रशिक्षण कैसा हो रहा है? मुझे जानना है आचार्य!"
"वत्स! इस जंगल में तू जिस तरह से जी रहा है, यही तेरी शिक्षा है। हम तुझे क्या सिखाएँगे? यह जंगल ही तुझे सिखा रहा है। जंगल के क़ानून, नीति-नियम, व्यवहार, तीखा सत्य, कठोर वास्तविकता पर आधारित है। यहाँ आपको खुद को टिकाये रखने के लिए निरंतर जागृत रहना पड़ता है। जीवन का संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में जो जीत गया, वह विजेता, जंगल में एक दिन भी जो जिंदा रहा, वह विजयी है। यह जंगल आपको विजयी बनने के उपाय सिखाता है।'
"जंगल को देख, पशुओं को देख, जिनमें नखशिख जंगल उतर गया है। जो जंगल के रीति-रिवाजों को बखूबी जानते हैं। समझते है और जीते हैं। ऐसे इन जंगली वनचरों को देख, उनके क्रियाकर्म का अभ्यास कर। कब जंगली पशु शिकार करेगा? और कब खुद शिकार बन जाएगा? उसका मानस क्या है? उसकी मनोवृत्तियाँ कैसी है? यह सब कुछ यह जंगलवासी बिना शाला में गए, बिना किसी शिक्षण के निपुणता पूर्वक जानते हैं। तू भी यह सब सीख ले..."
“खारवेल! युद्ध का मैदान इस जंगल से अलग नहीं होता है। युद्ध के कायदे जंगल से भिन्न नहीं होते हैं। आप सबल हो, तो आप सावधान रहो और संघर्ष करो, तो आप जिंदा रहे सकोगे।”
"सबल को जीने के लिए निर्बल पर अपना हक जमाना ही पड़ता है। निर्बल का शिकार यह सबल का बल है। उससे ही उसका जीवन संभव है और सबल से निरंतर बचते रहना, यह निर्बल का जीवन है। निर्बल को दो कार्य करने होते हैं- सबल बनना और तब तक सबल से बचते रहना - यही उसका संघर्ष है। सबल के दो कर्त्तव्य हैं- निर्बल को बलहीन करना, और उसके लिए उसके बचाव की व्यूहरचना को समझकर तोड़ते रहना।
इसमें कम से कम शक्ति का व्यय करना चाहिए। सबल की महानता यह है कि, कितनी अल्प शक्ति के व्यय से वह कितने बड़े समुदाय पर अपना अंकुश जमा सकता है। वह कितने निर्बलों को बलहीन बना सकता है, या मित्र बना सकता है? जो निर्बल सबलता की ओर आगे बढ़ रहे होते है और उनका फायदा अपनी सबलता बढ़ाने के लिए लेता है। उसकी सबलता बढे, उतनी खुद की सबलता बढे, ऐसा तंत्र वह रचा सकता है और फिर अवसर आने पर वह अपने मित्र - आभासिक मित्र का उच्छेद भी कर सकता है। क्योंकि ओ मेरे भावि सम्राट! जंगल का कायदा है कि जंगल में एक ही व्यक्ति का राज होता है, बहुत-से लोगों का नहीं।"
"तुझे नहीं लगता कि तू जंगल के पास से ही यह सब कुछ ही सीख रहा है, जान रहा है? एक बिलकुल सीधी-सादी बात है इस जंगल की, जिंदा रहना हो तो जीतते रहो। जीतोगे नहीं तो जीते जाओगे। अपने साम्राज्य की हद को विस्तृत करते रहो, उसकी देखभाल करते रहो। आप विस्तार की महत्त्वाकांक्षा नहीं रखोगे तो, अन्य विस्तारवादी महत्वाकांक्षी आपके ऊपर हावी हो जाएगा। इसलिए अविरत सजाग रहो, निरंतर संघर्ष करते रहो। जिंदा रहना हो तो ये दो गुण आपको चाहिए ही होंगे, ऐसा यह जंगल सिखाता है। तो क्या आपको नहीं लगता है कि आपका भी यह सब सीखना ज़रूरी है?”
"खारवेल! जिसको सम्राट बनना हो, उसे जंगली बनना ही पड़ेगा। भले ही यह बात किसी को अपमानजनक लगे, पर जंगली बने बिना... मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि, अनार्य बनो, हिंसाखोर बनो, असंस्कारी बनो... भले ही संस्कारी बनो पर जंगली तो बनना ही पड़ेगा। इसलिए खारवेल! एक मार्गदर्शक के रूप में मुझे तुझे इतना ही कहना हैं कि जंगली बन। पर संस्कारी जंगली...”
"जो विजय के लिये जरूरी हो उसके अतिरिक्त अनावश्यक पाप न करे। जिसे पाप की रुचि नहीं है, पर विजय की महत्वाकांक्षा है। मारने के लिए कौन यहाँ जंगल में मारता है? पर जीने के लिए तो मारने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मारना अच्छा लगता नहीं है; पर कटु सत्य यही है कि, या तो मारो, या तो मरो।”
"जीवन की किसी भी साधना में जब मनुष्य जंगली बनकर कूद पड़ता है, तब उसके हाथ में सफलता कहीं से भी चलकर आ जाती है। क्योंकि तब उसे दिखाई देती है- मात्र विजय। एकमेव विजय। सम्राट पापी नहीं है, महत्वाकांक्षी है।"
"हाँ, महत्वाकांक्षा भी एक तरह का पाप ही है। पर यदि आप उसे छोड़ दोगे, तो आप सम्राट नहीं बन सकते हो। आद्य सम्राट चक्रवर्ती भरतेश्वर को भी स्वयं हिंसा का खेल खेलना पड़ा था और सगे भाईयों को भी अपने अंकुश में लेना पड़ा था। क्या करे? ऐसी महत्वाकांक्षा ही तो साम्राज्यों का सर्जन करती है। सर्जन किया हुआ सब कुछ कभी ना कभी तो विसर्जन की राख बनकर काल की धूल में एकमेक होकर घुल जाने वाला है। पर यह विरागी विचारधारा साम्राज्य का सर्जन नहीं कर सकती है। वह महायोगी बन सकता है, महात्यागी बन सकता है, पर महान सम्राट नहीं बन सकता।
खारवेल! मैं जाति से ब्राह्मण हूँ। धर्म से जैन हूँ। पर विचारधारा से क्षत्रिय हूँ। बाकी अहिंसा का पुजारी मैं सामने से चलकर ऐसा कहता हूँ कि, निर्बलों को कुचलकर उसके सर पर पैर दबाकर खड़ा रहे, वह सम्राट खारवेल! पर नहीं... मुझे ऐसा कहना है कि, उसके बिना ना कभी कोई सम्राट बना है और ना कभी बनेगा। एक-दो अपवाद तो हर जगह होते हैं, उसे नियम नहीं बना सकते। कम से कम तुझे और मुझे तो ऐसे बेवकूफ आदर्श नहीं लेने चाहिए।
"इसलिए इस जंगल में रहो, जंगल को जानो, जंगल का अनुभव करो, जंगल को जीयो और जंगली बनो। यही तुम्हारा शिक्षण - प्रशिक्षण है खारवेल! ‘सम्राट खारवेल’ यह परिणाम है और ‘जंगली खारवेल’ यह उसका कारण है। बस, यही कथन है मेरा, यही प्रशिक्षण है मेरा।"
आचार्य तोषालिपुत्र का कथन समाप्त हुआ। आज थोड़ा बड़ा चक्कर लिया था। अर्धप्रहर पूरा होने को आया था और अभी तक पल्ली नहीं आयी थी। अर्धघटिका बीत चुकी थी। पर दोनों जन मौन थे। कोई कुछ-भी नहीं बोल रहा था। आचार्य जानते थे कि मेरी बातों पर खारवेल को विचार करने दो। अभी बोलने का अवसर नहीं है। जो कहना था, वो सब कह दिया है। अब उसकी बात सुनने की बारी है। आचार्य ऐसे समर्थ मार्गदर्शक थे कि जो जानते - समझते थे कि कब बोलना चाहिए और यह भी समझते थे कि कब सुनना चाहिए। ऐसे बुजुर्ग बहुत कम मिलते हैं। वे सुनने को तत्पर थे। पर खारवेल...? क्यों कुछ बोल हीं नहीं रहा है?
क्योंकि खारवेल के मन में विचारों का घमासान चल रहा था। खारवेल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह संशय से क्यों घिर गया था? वह अधीर क्यों हो गया था? ऐसी कौन-सी मन में विचारों की झंझावत थी, जो उसे चलित कर रही थी। उसके भीतर में दबा हुआ ऐसा क्या था जो उसे 'जंगली'- बेशक संस्कारी जंगली बनने से रोक रहा था? और वह उसे पार नहीं कर सकता था।
साथ में चलते-चलते दो-तीन बार आचार्य ने खारवेल के वदन को तिरछी नज़रों से, उपर-उपर से भाँप लिया। ये समझ गए कि खारवेल गहरे विचारों में खो गया है। उन्होंने उसको अवकाश दिया। उसको टोकना (रुकना) योग्य नहीं समझा। उन्होंने मौन साध लिया और पल्ली आते ही, आचार्य को प्रणाम करके अलग हुआ तब तक खारवेल विचारों के झंझावत में उलझता रहा, टकराता रहा, व्यथित होता रहा।
(क्रमशः)










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