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कहानी कुरबानी की - 5

  • Aug 5
  • 2 min read
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वीर से स्वातंत्र्यवीर 'परमेष्ठीदास’

 

पत्तों के महल को पवन की एक छोटी-सी लहर भी गिरा सकती है, जबकि पत्थरों के महल को गिराने की ख्वाहिश तूफ़ान की भी अधूरी रह जाती है।


जैन शासन की उज्ज्वल परंपरा में जिन्होंने अपने जीवन को जैनत्व से अलंकृत किया है, ऐसे नरवीरों की साहसगाथा में परमेष्ठीदास जैन ने भी अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है।


सन् 1907 में उत्तर प्रदेश के ललितपुर ज़िले के महरौनी गाँव में जन्मे परमेष्ठीदास ने जैन विद्यालयों में शिक्षण प्राप्त किया और अनेक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया।


साहित्ययात्रा के साथ-साथ स्वातन्त्र्ययात्रा में भी आप अग्रसर रहे। आपका विवाह श्रीमती कमलादेवी से हुआ, जो आपके प्रति पूर्ण निष्ठावान थीं।


सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आपकी गिरफ़्तारी सूरत से हुई, और श्रीमती कमलादेवी को भी सभाबंदी कानून के उल्लंघन के कारण गिरफ़्तार किया गया, क्योंकि वे भी गांधी चौक में भाषण दे रही थीं।


भाग्यवशात्, दंपती को एक साथ साबरमती जेल में रखा गया। श्रीमती कमलादेवी को पाँच माह और आपको चार माह जेल में रहना पड़ा। उस समय आपके साथ तीन वर्षीय जैनेन्द्र भी जेल में था। इस प्रकार पूरे परिवार ने जेल की यातना सही, परंतु स्वतंत्रता की ज्वाला को मंद नहीं होने दिया।


आपने जेल में अपनी पत्नी के साथ मिलकर राष्ट्रभाषा की शिक्षा का एक अभियान चलाया, जिसके अंतर्गत आपने अपने ५०० साथियों को राष्ट्रभाषा का प्रशिक्षण प्रदान किया।


कारावास के कष्टमय जीवन में भी राष्ट्रभाषा का प्रशिक्षण देना और साहित्य सर्जन जैसे रचनात्मक कार्यों को अंजाम देना आपकी परिपक्व एवं प्रौढ़ प्रतिभा का परिचायक है।


आपकी लेखनी जिनभक्ति और राष्ट्रभक्ति — इन दो किनारों के मध्य बहती हुई एक अस्खलित नदी के समान थी।आपकी लेखनी में शब्दों का लालित्य था और विचारों में स्पष्टता एवं पारदर्शिता भी।जैन सिद्धांतों की प्ररूपणा के लिए आपने 'वीर' जैन पत्रिका में पहले संपादक और बाद में प्रधान संपादक के रूप में कार्य किया।


‘मरण-भोज विरोध’ जैसे अनेक प्रगतिशील प्रस्तावों को अपने लेखों के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए, आपने अपने स्पष्ट और निर्भीक विचारों से समाज की कुरीतियों एवं कुपरंपराओं पर कठोर प्रहार किया।


अनेक लोगों की वैचारिक विमनस्कता और अप्रीतिकर आक्षेपों को सहते हुए भी आपने ‘वीर’ जैसी पत्रिकाओं में अपने दृढ़ मत प्रकट कर रूढ़िवाद की नींव हिला दी।


जैनत्व और राष्ट्र के विरोध में चल रहे दुष्प्रचार को आप अपने प्रखर लेखों के माध्यम से करारा उत्तर देते थे। सत्य की स्थापना हेतु आपको विरोधियों के आरोपों की तनिक भी परवाह नहीं थी।


कारावास से स्वतंत्रता तक की आपकी जीवन-यात्रा में भले ही असंख्य कष्ट आए, किन्तु आपकी साहित्ययात्रा को आँच तक नहीं आयी।


दिल्ली स्थित आपका ‘वीर’ निवासस्थान मानो साहित्यकारों, कवियों एवं सिद्धांतप्रेमियों का एक विचार-मंथन केंद्र—एक प्रकार का Headquater था।


‘वीर’ पत्रिका के संपादक, महावीर पथ के अनन्य अनुरागी, स्वातंत्र्यवीर, साहित्यवीर, शासनवीर—ऐसे परमेष्ठीदास जैन को श्री संघ की सलाम!

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