कहानी कुरबानी की - 4
- Jul 31
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जेल में आजादी की आग, जेल में महावीर का राग...
जहाँ सहिष्णुता धरती के कण-कण में महकती है,जहाँ साहस हिमालय की ऊँचाइयों को छूता है,जहाँ करुणा गंगा की लहरों के संग बहती है,और जहाँ मुस्कान गुलाब की कलियों के साथ खिलती है —वह भूमि है हिन्दुस्तान, शूरवीरों की भूमि, महावीरों की भूमि।
इस पुण्य भूमि को सदियों से यशस्विता प्रदान करने वाले अनगिनत दानवीरों ने अपना सर्वस्व अर्पित किया, और असंख्य शूरवीरों ने बलिदान देकर इतिहास रचा।
बलिदान की इसी पावन परंपरा में एक अमर नाम दर्ज है —सिंघई जवाहरलाल जैन।
आपका जन्म अगस्त 1928 में मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के पनागर नगर में हुआ। मात्र 14 वर्ष की आयु में ही आपने स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन, अगस्त क्रांति (1942) में सक्रिय भागीदारी निभाई।
इस राष्ट्रसेवा के कारण 2 सितम्बर 1942 को आपको पनागर पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किया गया। आपको धारा 129 (I) (A) DIR के अंतर्गत जबलपुर की सेंट्रल जेल में रखा गया। तत्पश्चात, आपकी अल्पायु को ध्यान में रखते हुए कलेक्टर के आदेशानुसार आपको जेल से मुक्त कर दिया गया।
किन्तु इन विषम परिस्थितियों में भी आपकी निडरता और देशभक्ति में कोई कमी नहीं आई।
आपको 28 नवम्बर 1942 के दिन जेल से रिहाई मिली — अर्थात लगभग ढाई माह तक आपने अंग्रेजी शासन की क्रूर जेल यातनाएँ झेलीं।
आपने लिखा है की - "आंदोलन के समय मेरे पिताजी एवं अन्य वरिष्ठों का कहना था कि यदि जेल जाना पड़ा, तो वहाँ के भोजन में काँच अथवा मिट्टी मिली हो सकती है। अतः हमने इस बात की सावधानीपूर्वक तैयारी की। जब सायंकाल भोजन आया, तो दाल का स्वाद कुछ विचित्र प्रतीत हुआ। हमने जांच करवाई, तो ज्ञात हुआ कि उसमें काँच या मिट्टी नहीं, अपितु दाल अधिक जल गई थी। हमने उसमें पानी मिलाकर उसका जला भाग अलग किया, जिससे उसका स्वाद कुछ सुधर गया।
उसी समय जेल में पर्युषण पर्व चल रहा था। हमारे साथ जेल में लगभग 40-45 जैन स्वतंत्रता सेनानी उपस्थित थे।
हम सभी ने मिलकर ‘सत्याग्रह’ की भावना से एक स्वर में यह प्रस्ताव रखा कि ‘हम अपने पर्व के पावन दिनों में केवल शुद्ध और स्वयं के हाथों से बना हुआ भोजन ही ग्रहण करेंगे।’ हमारे इस दृढ़ संकल्प का अंततः प्रशासन पर प्रभाव पड़ा और हमें अनुमति प्राप्त हुई। अगले 10 दिनों तक हम सभी जैनों ने मिलकर स्वच्छ भोजन बनाया और पूजन-भजन के साथ उल्लासपूर्वक पर्युषण महापर्व की आराधना की।”
स्वतंत्रता संग्राम के काल में जेल में रहते हुए पर्युषण महापर्व की इस प्रकार आराधना करना निःसंदेह एक ऐतिहासिक और अमूल्य घटना है। जब हृदय में राष्ट्र के प्रति वीरता हो और भगवान महावीर के प्रति भक्ति—तब ऐसे दुर्लभ दृश्य साकार होते हैं।
सिंघई जवाहरलाल जैन, पनागर जैन समाज के मंत्री रहे। वर्ष 1986 में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के अध्यक्ष पद की गरिमा को निभाया।
इतनी विलक्षण राष्ट्रसेवा और धर्मसेवा के उपरांत भी आपने कभी किसी प्रकार की 'सन्मान निधि' स्वीकार नहीं की।
आपकी इस अद्वितीय राष्ट्रभक्ति को कोटिशः नमन! समस्त राष्ट्रभक्तों की ओर से आपको विनम्र प्रणाम!










Thank you for sharing so that we come to know golden memorable incident of सिंघई जवाहरलाल जैन. Thank you