कहानी कुरबानी की - 6
- Sep 24
- 2 min read

दलीचंद जैन की दिलचस्प कहानी
जब स्वतंत्रता की लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है, तब अवरोध, उपेक्षा और पीड़ा का कोई मोल नहीं रह जाता। स्वतंत्रता सेनानी हर कष्ट-यातना सहने को तत्पर होता है, यदि उसके बलिदान से स्वाधीनता की प्राप्ति संभव हो।
इसी श्रेणी के महान स्वातंत्र्य सेनानियों में रतलाम के श्रेष्ठिपुत्र दलीचंद जैन का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है। सन् 1915 में नगरसेठ श्री समरथमल कटारिया के परिवार में आपका जन्म हुआ। छात्र जीवन से ही आप स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुए। जब आप इण्टर में अध्ययनरत थे तभी से आपने सत्याग्रह प्रचार, विदेशी वस्त्र बहिष्कार तथा अन्य राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाई और जनसेवा के पथ पर अग्रसर हुए।
एक बार किसी अवसर पर आप घायल होकर गिरफ्तार हुए और आपको जेल जाना पड़ा। जेल के भीतर अनेक अमानुषी यातनाओं का सामना करना पड़ा। वहाँ कैदियों के भोजन की व्यवस्था शंकर नामक एक सिपाही करता था, जो सुविधा कम और परेशानी अधिक पहुँचाता था। सोच-समझकर वह आपकी अपेक्षाओं के विपरीत कच्चा और घटिया भोजन बनाता था। कभी दाल–सब्ज़ी में कीड़े निकल आते, तो कभी रोटी में कंकड़ मिल जाते। शंकर मानो स्वयं एक ‘कंकड़’ बन गया था, जो ऐसी यातनाओं से स्वातन्त्र्य सेनानियों का मनोबल तोड़ने का प्रयास करता था।
अंततः आप सभी ने मिलकर एक अल्टीमेटम-पत्र जारी किया। परन्तु जब उस पत्र का कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिला तब आप भूख-हडताल पर उतरे।
इन सारी कठिनाइयों के बीच भी आपकी देशभक्ति जरा भी विचलित नहीं हुई, अपितु आप निरन्तर क्रान्ति की नयी-नयी ऊँचाइयों को छूने लगे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त आपने राष्ट्रसेवा एवं समाजसेवा के उद्देश्य से राजनीति में अपना अमूल्य योगदान दिया और साथ ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट कार्य करते हुए अपनी प्रतिभा का परिचय कराया।
आपकी एक विशेषता यह भी रही कि आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़्रेंच, गुजराती, मराठी आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। साथ ही तत्त्वार्थसूत्र जैसे गहन दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन करनेवाले एक प्रतिभाशाली कवि एवं साहित्यकार भी थे।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आप –स्वातन्त्र्य संग्राम में अग्रणी क्रान्तिवीर थे, आन्दोलनों के माध्यम से जनजागृति लाने वाले प्रखर नेता थे, शब्दों की बर्छी से कुतर्क का खण्डन करने वाले तेजस्वी लेखक थे, संवेदनाओं से ओत-प्रोत, हृदय को हरित करने वाले कुशल कवि थे, ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने वाले दार्शनिक विद्वान थे, और संघर्षों के प्रचण्ड तूफ़ानों में भी अडिग खड़े पर्वत समान थे।
यदि आपकी इस संघर्षयात्रा को किसी कवि की वाणी में अभिव्यक्त करना हो तो निश्चय ही यह कहा जा सकता है –
“हमें पता था कि तूफ़ान चलते थे,
मगर फिर भी हमारे दिये जलते थे।”
क्रान्तिपुरुष दलिचंदजी जैन को शत-शत नमन एवं गर्वभरा सलाम! 🙏
Comments