top of page

कुछ अनकही अनसुनी बातें – 3

  • Aug 12
  • 3 min read

ree

( ई.स. 1580 में अहमदाबाद पर सम्राट अकबर का सूबेदार, शहाबखान, शासन कर रहा था।उसी समय शहर में अफवाह फैलाई गई—"बारिश को जैनाचार्य ने बाँध रखा है।"


यह बात शहाबखान के कानों तक पहुंची। उसने आचार्य हीरसूरिजी को राजदरबार में बुलाकर कठोर सवाल-जवाब किए। आचार्य श्री ने दृढ़ स्वर में इन आरोपों का खंडन किया। उनकी निष्कलंक वाणी और स्पष्ट उत्तरों से शहाबखान निरुत्तर हो गया, और आचार्य श्री सुरक्षित उपाश्रय लौट आए। इस प्रकार जिनशासन पर आया एक बड़ा संकट टल गया।


इस विजय और राहत की खुशी में सेठ श्री कुंवरजी ने जनसमूह को उदारता से दान देना प्रारंभ किया।यही दृश्य तुर्की मुस्लिम सैनिक—जिसे "टुकड़ी" कहा जाता था—की आंखों में खटक गया। वह कुँवरजी से भिड़ गया और उन्हें अनेक धमकियां देने लगा।


यही टकराव आगे चलकर इतिहास के उस काले दिन की जड़ बना… आगे क्या होता है, पढ़िए।)


तुर्कस्थान का सिपाही टूकड़ी, कुंवरजी से भिड़कर सीधे कोतवाल के पास जा पहुंचा। कोतवाल उसका खास मित्र था और उसकी बातों पर आंख मूंदकर विश्वास करने वाला था। टूकड़ी ने उकसाने वाले स्वर में कहा—"बनियों का जोर बहुत बढ़ गया है। अगर इनको दबाना है तो इनके गुरु को दबोच लो।"


कोतवाल, जो खुद जैन-द्वेषी था, यह बात लेकर खान के पास पहुंचा। खान भी भीतर से जैनियों से वैर भाव रखता था। उसने बिना देर किए वारंट जारी किया। आज्ञापत्र लेकर दो सिपाही ‘झवेरीवाड़ा’ के उपाश्रय में जा धमके और आचार्य भगवंत हीर सूरि महाराज को बंदी बनाकर ले गए।


वह इतिहास का एक काला दिन था। उपाश्रय के बाहर लोग जमा हो गए, आंखों में आंसू, दिल में पीड़ा, पर विरोध करने की हिम्मत किसी में न थी। सबके सामने आचार्य महाराज को गिरफ्त में ले लिया गया।


आचार्य के समुदाय में श्री सोमसागरजी नाम के एक मुनिराज थे—कुश्ती और मल्ल-युद्ध में माहिर। जब यह समाचार उन्हें मिला, वे तुरंत आचार्य के भक्त राघवजी गंधर्व से मिले। फिर उन दोनों ने रास्ते में उन सिपाहीओं को ललकारा।

सिपाही बेख़ौफ़ चल रहे थे, “जैन कायर हैं, कोई हमारा विरोध नहीं करेगा”—यह घमंड उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। लेकिन अचानक सोमसागरजी और राघवजी ने उन पर धावा बोल दिया। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। जोरदार भिड़ंत के बाद, आखिरकार सोमसागरजी और राघवजी गंधर्व ने मकसद पूरा कर लिया, आचार्य श्री सिपाहीओं की पकड़ में से छूट गए।


संघर्ष के दौरान एक सिपाही ने आचार्य श्री के वस्त्र पकड़ लिए। उस समय स्थिति ऐसी थी कि या तो वस्त्र बच सकते है, या जीवन। आचार्य श्री ने वस्त्र छोड़ दिए और प्राण बचाने के लिए दौड़ पड़े। सिपाही उनके पीछे लपके, लेकिन सोमसागरजी और राघवजी ने उन्हें रोक लिया।


शहर के लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर दिए। आचार्य श्री जान हथेली पर रखकर भागते रहे। आखिरकार देवजी नामक लोंका गच्छ के श्रद्धालु ने अपने घर के दरवाजे खोलकर उन्हें शरण दी।


इधर, सिपाही जाकर शहाबखान से शिकायत करने लगे—


"हम पर हमला किया, पीटा, और सरकार के हुक्म की भी परवाह नहीं की।"

शहाबखान का गुस्सा फट पड़ा। पूरे अहमदाबाद में खलबली मच गई। लगातार पंद्रह दिनों तक सैकड़ों घरों की तलाशी हुई। सिपाहियों के साथ मुठभेड़ में राघवजी के हाथ पर गहरी चोट लगी थी। उसे पकड़ने के लिए भी हर संभव स्थान पर तलाशी ली गई।


लेकिन तीनों—आचार्य श्री, सोमसागरजी और राघव गंधर्व—का कहीं पता न चला। मानो धरती निगल गई हो या आसमान उठा ले गया हो।


हाँ, अफरा-तफरी के बीच श्रुतसागरजी और धर्मसागरजी नाम के दो साधु पकड़े गए। म्लेच्छों ने उन पर निर्दयता से जुल्म ढाया। बाद में जब सच्चाई सामने आई कि वे वह नहीं हैं जिनकी तलाश थी, तो उन्हें छोड़ दिया गया।

करीब तीन महीने तक शहर में शोर-गुल, धमाधम और डर का माहौल बना रहा। प्रजा का चैन-ओ-सुकून छिन गया। धीरे-धीरे शहर पर चुप्पी छा गई और यह घटना स्मृतियों में धुंधली पड़ने लगी।"

आचार्य श्री हीरसूरिजी ने फिर विहार किया और गंधार की ओर आगे बढ़ गए।


लेकिन उनके चेहरे पर गहरी चिंता की लकीरें थीं। मन में सवाल चुभ रहा था—“जब जिनशासन के आचार्य भी सुरक्षित नहीं, तो इस नगर के बाकी जैनियों का पालनहार कौन बनेगा?”


वे ठान चुके थे—"कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा।"लेकिन क्या करें? कैसे करें?ऐसे अनगिनत विचार उनके मस्तिष्क पर कब्जा जमाए बैठे थे।


दिन बीतते गए, पर वह बेचैनी और दृढ़ निश्चय और गहराता गया। एक दिन, सूरिमंत्र के जाप के दौरान, उन्हें संकेत मिला। शासन देवों की उपस्थिति मानो उनके सामने प्रकट हुई।

उन्होंने कहा, और फिर —"…"


वह क्या था? शासन देवों ने वास्तव में क्या कहा?

वह अगली बार जब मिलेंगे, तब बताऊँगा। अलविदा।

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page