कुछ अनकही अनसुनी बातें – 2
- Muni Shri Tirthbodhi Vijayji Maharaj Saheb
- 4 days ago
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गतांक में हमने देखा कि जिस व्यक्ति को लोग खूंखार, हिंसक और क्रूर जैसे उपनामों से जानते थे - वही अकबर कैसे दयालु, अहिंसक और परोपकारी स्वभाव का सम्राट बन गया। परन्तु यह परिवर्तन आखिर हुआ कैसे? आज हम आपको एक ऐसी ऐतिहासिक घटना बताने जा रहे हैं, जिसे न तो आपने कभी किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा होगा और न ही कहीं सुना होगा।
ई.स. 1580 में, अहमदाबाद में सम्राट अकबर का सूबेदार शहाबखान राज कर रहा था। भले ही शासन किसी का भी रहा हो, जैन श्रेष्ठी हमेशा कुशलता, सूझबूझ और व्यवहारिकता के साथ सभी राजाओं और बादशाहों से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखते थे। वे अपने व्यापार और धर्म की उन्नति में सदैव तत्पर रहते। इन्हीं गुणों के कारण जैन समुदाय दूसरों के मन में अक्सर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न कर देता था।
उस दौर में मुसलमान लोग जैनों से बहुत कतराते थे। उनके मन में यह विचार था कि "राज तो हमारा है, लेकिन प्रभाव इनका चल रहा है – यह कैसे सहा जाए?" इसी तरह किसी ईर्ष्यालु व्यक्ति ने शहाबखान के कान भर दिए -"हुजूर! ये जैनियों के साधु (सेवड़े) बड़े इल्मी होते हैं। ये जब चाहें तब बारिश रोक सकते हैं। इस बार भी जैनों के बड़े गुरु अहमदाबाद में हैं। इन्हीं की वजह से बारिश नहीं हो रही है। तभी चौकोर इलाका सूखा पड़ा है।"
शहाबखान तो वैसे भी जैनों की प्रतिष्ठा को दबाने का अवसर ढूंढ़ रहा था। उसने समस्त जैन संघ के भट्टारक, लगभग ५३ वर्ष के पूज्य आचार्य भगवंत श्री हीर सूरिजी म.सा. को दरबार में बुलवा लिया। सीधे ही प्रश्न कर दिया —
"क्यों महाराज! आजकल बारिश क्यों नहीं हो रही? क्या आपने बाँध रखी है?"
हीर सूरिजी ने अत्यंत सौम्य स्वर में कहा –"नहीं भाई, आपको कोई गलतफ़हमी हो गई है। हम तो सभी पर दया रखने वाले हैं, खुदा के बंदे हैं। खुदा की संतान को हम क्यों दुःख पहुँचाएँगे?"
आचार्य श्री और शहाबखान के बीच यह बातचीत चल ही रही थी कि उसी समय संयोगवश जैन सेठ श्री कुंवरजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने साधु के पवित्र और नेक आचरणों के विषय में जो वर्णन किया, उसे सुनकर खान अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने बड़े आदरभाव से आचार्य श्री को उपाश्रय जाने की अनुमति दे दी।
‘गुरुजी के सिर से बहुत बड़ा संकट टल गया’ — जैसे ही यह समाचार अहमदाबाद पहुँचा, बड़ी संख्या में लोग उपाश्रय में एकत्रित होने लगे। सेठ कुंवरजी ने इस आनंद के अवसर पर जनसमूह को खुले हाथों से दान देना शुरू कर दिया। कुछ ही घड़ी पहले जहाँ शोक और चिंता का माहौल था, वहाँ अब आनंद और उल्लास की वर्षा होने लगी।
पर कौन जानता था कि ये खुशियाँ क्षणिक और केवल आभास मात्र थीं।
तुर्कस्तान से आया हुआ वह मुसलमानी सैनिक — जो जैनों से घृणा रखने वाला था, और जिसे उस समय ‘तुर्की टुकड़ी’ कहा जाता था — वही सैनिक जिसने शहाबखान के कानों में विष घोला था, अन्य सैनिकों के साथ वहाँ धाँय-धाँय करता हुआ आ धमका, और जोर से चिल्लाया —"हीरजी को छुड़ाने की जुर्रत किसने की?"
तब कुंवरजी भी चुप न रह सके, वे बोले,"तेरी यह जबरदस्ती और मर्दानगी अपने मुल्क में आज़माना, यह अहमदाबाद है — यहाँ जैन समाज का हृदय बसता है। इसे तुर्कस्तान मत समझना।"
उनके निडर और निर्भीक व्यवहार को देखकर वह टुकड़ी आगबबूला हो उठा और बोला,"ऐ बनिए! तू मेरी आँखों में आँखें डालकर बात करेगा क्या?"
यह कहते हुए वह क्रोध से काँपने लगा। उसने अपने सैनिकों को कुंवरजी को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया। लेकिन सभी सैनिकों ने सिर झुका लिया। एक भी सैनिक आगे नहीं बढ़ा। यह देख टुकड़ी का ग़ुस्सा और बढ़ गया और वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए धमकियाँ देने लगा।
"बहुत ज़ोर है रे तुझ में? अब आ, मैं देखता हूँ कि तेरे गुरु को सूबे की चुंगल से कौन छुड़वाता है। तेरा घमंड तोड़ कर ही रहूँगा, मुझे मेरे मज़हब और मुल्क की सौगंध है।"
धम-धम पैर पटकता टुकड़ी चला गया। लेकिन उपाश्रय की हवा अब भयावह और गंभीर हो चुकी थी।"अब क्या करें?" — उन्हें सोचने दो, आप भी सोच लीजिए! आगे फिर मिलेंगे।
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