( माणवक अपनी कथा करने के बाद कामरू एक ऊँची मीनार पर चढ़ गया और बोलने लगा। उसने वहाँ पड़ी हुई मशाल अपने हाथ में ले ली। मशाल के जैसे ही भड़ाके उसके मुख से भी उठ रहे थे )
"धन्य महानुभाव माणवक! बहुत ही आसानी से आपने इतिहास को अटकाकर कह दिया। पर अभी आगे तो कहो...। नहीं... नहीं, इसमें आपका कसूर नहीं है माणवकजी! क्या है कि आपकी अब अवस्था हो गई है। अब आपके लिए स्मृतिभ्रंश होना स्वाभाविक है, क्यों वृद्ध महानुभाव माणवकजी।”
"सावधान बालक! माणवकजी के सामने इस तरह से कोई कभी-भी बोला नहीं है। तेरी चेष्टा को क्रीड़ा समझे या उद्दंडता? सेनापति वप्रदेव ने कहा।
"इसको आप वास्तविकता और गंभीरता समझेंगे तो ज्यादा उचित होगा प्रधान सेनापतिजी।" कामरू ने कहा और सेनापति के सामने प्रणाम की मुद्रा में मस्तक झुकाया।
"बालक!" माणवकजी ने कहा- "मुझे नहीं लगता है कि मैंने कुछ भी छिपाया हो या नहीं कहा है। बोलो नागरिकों! आपको क्या लगता है?"
"माणवकजी कभी-भी झूठ नहीं बोलते है” सभा में से किसी ने कहा।
"हाँ हाँ... माणवकजी सत्य ही कहते हैं। हमें उनके वचनों पर भगवान के वचन के जैसा भरोसा है।”
“यह बालक विक्षिप्त हो गया लगता है।" वगेरा-वगेरा वचन सुनाई देने लगे। लोगों का गुनगुनाना अब कोलाहल का स्वरूप लेने लगा था। उस समय वृद्धराज ने दंड को हवा में घुमाया। छड़ीदार ने चिल्लाकर आवाज लगायी, खामोश! महाराजा कुछ फरमा रहे हैं।" और फिर सभी शांत और स्थिर हो गये।
वृद्धराय और कामरू की आँखें मिली "बालक! तुझे जो कहना है वो कह। पर याद रखना, इस उम्र में उद्दंड़ होने का मन होता रहता है। विनय और मर्यादा को जबरदस्ती भी अपनाना बहुत जरूरी है। उसके बिना कथन का योग्य मूल्यांकन होता नहीं है।"
"प्रणाम कलिंगाधिपति!” कामरू ने हाथ जोड़े।
"मैं तो आपकी प्रजा हूँ। एक नाचीज छोटा बाल हूँ। आपकी छत्रछाया के नीचे जीने के लिए मर मिटनेवाला एक सेवक मात्र हूँ। पर..."
"मैं कलिंगप्रजा हूँ महाराज! जहाँ बचपन से ही बालकों को विनय और मर्यादा सिखाई जाती है। पर फिर भी जब आज में ऐसी उद्दंड़ता व्यक्त कर रहा हूँ, तो राजन! आप कृपा करके देखिए कि मेरे हृदय में कितना उत्ताप और संताप है। जो मेरे वश में नहीं रह सकता है। राय! आज यह कामरू जो भी कहेगा, उसे सुनना दयालु! पर उसके शब्दों को, उसकी रीत को मत देखना। कामरू का दिल आज बहुत ही व्यथित और पीड़ित है राय !"
'कलिंग के इतिहास में पिछले 600 वर्षों में कलिंग ने क्या प्राप्त किया? निर्ग्रंथ श्रमणगण, आजीविकों, भिक्खुओ और संतों की कृपा, यह कलिंग देश की अनन्य उपलब्धि है इतनी सारी कृपा की पूँजी कलिंग के पास है फिर भी कलिंग को दो-दो बार पराजय क्यों भुगतना पड़ा? उसे क्यों हारना पड़ी? क्यों अपने कलिंगजिन को गँवाना पड़ा? और अभी तक कलिंगजिन को वापिस लाने के लिए कोई भी तकलीफ उठाने को कलिंग क्यों तैयार नहीं है?"
"इन सभी का कारण यह है कि, हमें जो इतिहास सुनाया जाता है, वह हमको दो चीजें सिखाता है कि कलिंग यानी तीर्थभूमि और कलिंग यानी पराजय पायी हुई स्वाधीनता की तमन्ना करती हुई, पर सदा के लिए पराधीन रहने को सर्जित ऐसी प्रजा..."
"यह बात असत्य है। मैंने ऐसा कहा ही नहीं है कि कलिंग की प्रजा के सर पर पराधीन रहने का लेख लिखा गया है। यह तो आक्षेप है।” आग की तरह भड़क उठे माणवक।
"शांत हो जाओ। वृद्ध माणवक।" कामरू ने कहा। "अभी तक तो आप भव्य और गरिमामय थे अचानक क्यों उबल पड़े हो? वास्तव में कामरू से आपकी कोई दुःखती नस तो नहीं दब गई है ना!"
"बालक!" वृद्धराय की बुलंद आवाज गूंज उठी। "मैंने तुझे अपनी बात कहने की इजाजत दी है। वृद्धों के अपमान करने की नहीं।"
"पर राय! ऐसा इतिहास सुनकर आज पूरी प्रजा के साथ अन्याय हो रहा है उसका क्या? कामरू ने कहा। और उसे खयाल आते ही तुरंत उसने हाथ जोड़े। "क्षमा करना महाराय! पर क्यों इतिहास में ऐसे पृष्ठों को नहीं जोड़ा गया कि जब कलिंग ने मगध या किसी अन्य जनपद को हराया हो थकाया हो? कलिंग की स्वाधीनता प्रेमी प्रजा ने यहाँ पर स्थापित किए गए किसी अन्य राज्य के प्रतिनिधि को उखाड़कर फेंक दिया हो? क्या ऐसा कुछ भी हुआ ही नहीं है आज तक के कलिंग के इतिहास में? क्या कलिंग ऐसे ही स्वाधीन होकर रहा है?
"मुझे क्षमा करना राय! पर आपके बहादूर महान राजकुमार खारवेल आर्य बलिस्सहजी से आशीर्वाद लेकर सीधे पाटलीपुत्र तक जाकर आए और पाटलीपुत्र के दरबार में जाकर सम्राट संप्रति के सामने कलिंग की अस्मिता को भरपूर बढ़ाकर आए हैं। यह बात क्यों ये वृद्ध माणवक नहीं बताते है? क्यों यहाँ सभी वृद्ध बन गए हो? किसी की नसो में क्यों विद्रोह का रक्त नहीं बहता है? क्यों कलिंग किसी जनपद पर आक्रमण करने के लिए तैयारी नहीं करता है?
इस प्रजा का मरा हुआ उल्लास और उत्साह दिग्विजय के बिना कभी-भी पुनः जाग्रत नहीं होने वाला है। पाटलीपुत्र पर आक्रमण करके कलिंगजिन को पुनः प्राप्त किए बिना कभी भी इस नगरी की संतप्त आत्मा शांति की निद्रा में सो नहीं सकती है। इसलिए मुझे कहना है कि वृद्धों! सभी हट जाओ और युवान राजा और युवान माणवक को कलिंग का नया युवान - विजयी इतिहास रचाने दो।”
कामरू का यह कथन पूरा हो, उसके साथ ही "निर्लज्ज बालक! सावधान!" ऐसी दहाड़ मारकर सेनापत्ति वप्रदेव ने कामरू को लक्ष में लेकर बाण फेंका। कामरु ने क्षणार्ध में निर्णय ले लिया कि उसे क्या करना है? उसने धारणा रखी थी ऐसा कुछ होने की। उसने मशाल फेंक दी। वह तीर के साथ टकराकर नीचे गिरी। खंभे पर अँधेरा हो गया। वहाँ से कामरू ने छलांग लगायी।
ऊपर से नीचे गिरते समय उसने शरीर को हवा में तीन गुलाटी खिलायी और तीसरी गुलाट पर उसके पैर धरती पर टिक गए। ‘पकड़ो उस बालक को, जिसने राजा के सामने उद्दंडता की है।’ सेनापति की आवाज आयी। उसके साथ ही कामरू चारों और से सैनिकों द्वारा घिर गया। लोगों की में भगदड़ मच गई अँधेरे में तारे और मशालों का जितना प्रकाश जहाँ पर दिखाई देता था, वहाँ लोग भाग गए। निःशस्त्र कामरू के दिल की धड़कन बढ़ गई। अब इस घेरे में से कैसे छूट सकूँगा?
उतने में उसकी बायीं और से आवाज सुनाई दी।
"चिंता मत कर। मैं तेरे साथ हूँ। बायीं और तू संभाल, दायीं तरफ में देखता हूँ।"
यह सहायक कौन होगा? उसके बारे में अधिक विचार करने का समय नहीं था। कामरू ने वेग से सामने आ रहे दो सैनिकों के उठाये हुए शस्त्रों को दोनों हाथों से रोक दिया। उनके शस्त्रों को छीनकर उनको धक्का दिया और दोनों सैनिक धूल में गिर गए। यह थी कलिंग की अभिनव युद्धकला। इसका तोड़ किसी भी शत्रु के पास नहीं था। दोनों सैनिक अचंभित हो गए थे और उनके शस्त्रों कामरू के हाथ में आ गए थे।
एक तरफ से कामरू और दूसरी तरफ से उसके सहायक ने सैनिकों को रोका और जब वे सैनिकों के घेरे में से बाहर निकले, तब एक अश्व उनकी राह देखते हुए खड़ा था। सहायक ने कामरू का हाथ पकड़ा और दोनों छलांग लगाकर अश्व के ऊपर आरुढ हो गए। अश्व तेज गति से चलता गया और अँधेरे में ओझल हो गया। वप्रदेव सेनापति ने उसका पीछा करने को कहा।
इस तरफ अश्व वीराने में आकर खड़ा हो गया और कामरू ने सहायक से पूछा,
“आप कौन हो? मेरी सहाय क्यों कर रहे हो?"
सहायक ने पूछा, " इसी प्रश्न का उत्तर तुझे पहले देना पड़ेगा मित्र! कि तू कौन है? और किसके बल पर राजा की नीति के सामने हिम्मत से लड़ने को तैयार हो गया है भाई?”
"एक क्षण अश्व रोक दो।” कामरु ने दहाड़ मारी। सहायक को कुछ समझ में नहीं आया। अचानक क्या हो गया? उसने घोड़े की राश खींची और घोड़ा पेड़ बन गया। कामरू जान-बूझकर नीचे गिर गया। सहायक घोड़े पर से कूद गया। उसके नजदीक गया। तुझे घोड़े को चलाने की आदत नहीं लगती है कामरु।" उतना वह बोला और उसका वाक्य पूरा हो उसके पहले ही कामरू ने उछलकर उसकी खोपड़ी पर ऐसी जगह में मुष्टि से प्रहार किया कि वह बेहोश होकर गिर गया।
"क्षमा करना सहायक! मैं तेरा नाम-ठाम नहीं जानता हूँ। पर मैं तेरा सदा ऋणी रहूँगा। कुछ ऐसी गोपनीयता है मेरी। यह मैं तुझे नहीं बता सकता हूँ।" ऐसा कहकर कामरू ने उस अज्ञात सहायक को घोड़े पर सुला दिया और घोड़े को रवाना करके उसे नगर की ओर दौड़ा दिया।
“कामरू! तू आ गया” कामरू कुछ सोचे उसके पहले तो उससे लता की तरह किंकिणी लिपट गई और उसके सर और पीठ पर हाथ पसारने लगी। “तू ठीक तो है ना? तुझे कुछ हुआ तो नहीं है ना?”
कामरु ने किंकिणी के काले-काले बाल में हाथ को सहलाते हुए कहा "आचार्य तोषालिपुत्र का शिष्य कोई बच्चा नहीं है किंकिणी!"
"हम्म! मेरा भय बढ़ गया था और मैं सहाय के लिए आर्य के पास दौड़ गई थी।” किंकिणी ने कहा। "कलिंगजिन की जय हो" नजदीक से आवाज सुनाई दी। कामरू-किंकिणी अलग हो गए और अँधेरे में भी भव्य लग रही उस प्रौढ़ आकृति को नमन कर रहे थे।
"कलिंग के विजय की और कलिंगजिन के पुनरागमन की शुरुआत हो चुकी है कामरू! चक्र गतिमान हो गये हैं। विजय जल्दी ही प्राप्त होगी। कलिंगजिन की जय हो।” प्रौढ आकृति आगे चलने लगी और कामरू और किंकिणी उनके पीछे-पीछे उनको अनुसरते गए।
उस तरफ घोड़ा दौड़ता-दौड़ता, जब सैनिकों को मिला तब उन्होंने घोड़े को घेर लिया। उसके ऊपर बेहोश पड़े हुए शख्स को उठाया और सेनापति वप्रदेव के समक्ष उसे सुलाया।
वप्रदेव ने उसके चहरे पर से आवरण हटा दिया और सेनापति दो कदम पीछे हट गए।
"असंभव!" उनकी चीख निकल गई। क्योंकि सामने सोया हुआ मनुष्य बप्पदेव था, उनका पुत्र।
(क्रमशः)
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