सम्राट संप्रति अपने पटमंडप में चिंतनमग्न होकर बैठे थे। उनके हाथ में खारवेल की कटारी थी। बार-बार उस कटारी को हाथ में ऊँची करके गोल-गोल घुमाकर चारों तरफ देखते रहते थे। ना जाने कितने ही समय से वे यहाँ बैठे थे। अभी भी वे वहीं बैठे रहते यदि बृहद्रथ और पुष्यमित्र नहीं आए होते तो...
"तातश्री! आप पाटलीपुत्र के राजमहल में पधारिए। आपको... मगध के सम्राट को... भारतवर्ष के चक्रवर्ती को यूँ पटमंडप में बैठे रहना शोभा ही नहीं देता है।“ बृहद्रथ ने आते ही चापलूसी शुरु कर दी।
संप्रति ने देखा, उसकी आँखों में विचित्र प्रकार की चमक थी। अपराधी मानसिकता रखने वाले मनुष्य के व्यक्तित्व में भी एक अजीब प्रकार का नकारात्मक प्रलोभन होता है। ये साधारण मनुष्य को अपने प्रभाव तले दबा देते हैं और फिर उससे अपना मनचाहा कराते है पर विशिष्ट प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले मनुष्यों पर उसका कोई भी असर नहीं पड़ता है। महान व्यक्तियों का अप्रभावित रहना आता है।
“बृहद्रथ! पाटलीपुत्र के महालय में मुझ मगध के सम्राट को, भारतवर्ष के चक्रवर्ती को निर्भयता से जिसने बाण मारा था, वह अज्ञात मनुष्य तो अज्ञात ही रह गया। किसी ने उसे मार डाला। जिससे उसका भेद नहीं खुल जाए..." सम्राट ने बृहद्रथ की आँखों में त्राटक करते हुए कहा। बृहद्रथ अंदर तक काँप उठा। पर भारी प्रयत्नों से अपने चेहरे पर स्वस्थता टिकाये रखने में वह सफल हो गया।
"पर क्या उस बाण के विषय में कुछ जानकारी मिली? वह बाण पाटलीपुत्र के राजमहल में रहने वाले किसी का तो नहीं था ना?"
"नहीं सम्राट! ऐसा कदापि नहीं हो सकता।” पुष्यमित्र बोल उठा। सम्राट के लिए जान देने को वह तैयार था। सम्राट हँस पड़े। स्वगत ही बोले- “लो, सेनापति मेरे जीव के बदले अपनी जान दे देगा और उसका महाराजा अपने प्राणों के लिए मेरी जान लेने को तैयार हो गया है।"
सम्राट ने बात का कोई जवाब नहीं दिया। वे अपने हाथ में रही हुई कलिंगकुमार की कटार का बार-बार निरीक्षण करने लगे।
"आप उस कलिंग की लेशमात्र चिंता मत करिए सम्राट। उसे तो चुटकी में मसल देंगे।” बृहद्रथ ने बात बदलने के लिए फिर से चापलूसी की।
"मुझे इस कलिंग की कटार की परवाह नहीं है महाराज!” सम्राट बोले। "मुझे मगध के बाण की चिंता है क्योंकि यह कटार शत्रु की है पर फिर भी मेरे हाथ में है। और बाण ऐसे प्रच्छन्न शत्रु का है कि जो ऊपर से मीठा दिखता है पर भीतर में शस्त्र रखता है। यह बाण मेरे हाथ की पहुँच से बाहर है महाराज।“
"सम्राट! हमें इस बात का बहुत अफसोस है कि पाटलीपुत्र के राजमहालय में आपके साथ ऐसा घातक षड्यंत्र रचा गया। आपसे मुझे कहना चाहिए कि इस घटना के बाद शंकास्पद 40 मनुष्यों का मैंने शिरच्छेद करवाया है।"
"किससे पूछकर यह हिंसा की महाराज!” सम्राट त्रस्त होकर भड़क उठे। "हजार हिंसा करने के बाद भी एक झूठ छिपता नहीं है। जो वास्तव में शत्रु है, उसे खोजो और सम्राट की सुरक्षा की यदि इतनी ही परवाह हो तो उसे मारकर दिखाओ बृहद्रथ! इन निर्दोष, निरपराधियों की जान लेकर आप किसलिए पाटलीपुत्र के राजमहल को रक्तरंगी बना रहे हो? महाराज! मुझे यानी आपके सम्राट को जवाब दो.." सम्राट सदमे में आ गये।
"क्षमा सम्राट! क्षमा..." बृहद्रथ अपनी जगह से सीधा उछलकर सम्राट के पैरों में गिर पड़ा। मगध का यह शासक आपकी सुरक्षा करने में असफल रहा है सम्राट! इसके लिए आपको मुझे जो भी दंड़ देना हो वह दीजिए सम्राट! आपका शस्त्र और इस सेवक का मस्तक।
वह जब यह नाटक – अभिनय कर रहा था तब पुष्यमित्र की अंतरात्मा पुकार कर रही थी - "सम्राट! अभी इसी क्षण मुझे आज्ञा करे तो मैं इस हलकट- हरामी क़िस्म के मनुष्य का शिरोच्छेद कर दूँ।" उसके हाथ खड़ग को धारण करने के लिए अति आतुर थे और वह बैचेन हो उठा था। पर उसने जैसा सोचा था। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टा……
"खड़े हो जाओ वत्स बृहद्रथ।" “वत्स” का संबोधन सुनकर बृहद्रथ के चहरे पर फिर से विजयी स्मित छलक उठी। उसने पुष्यमित्र के सामने देखकर आँख मिचकारी। पुष्यमित्र नीचे देखने लगा।
"नहीं सम्राट! आप यदि मुझसे नाराज हैं तो मुझे ज़िंदा रहने में कोई दिलचस्पी नहीं है। मुझे इसी पल आपके शस्त्र से परलोक का अतिथि बना दो।" महाराज की आँखों में सचमुच ही आँसू आ गए थे, जो बिलकुल झूठे थे।
"नहीं वत्स! सम्राट जैसा चाहता हो, वैसा बर्ताव नहीं कर सकता है। जो जानता हो, वह सबकुछ नहीं कह सकता है। और जो करने जैसा लगे, वह सबकुछ नहीं कर सकता है। सम्राट की गंभीर बात बृहद्रथ को समझ में नहीं आयी, पर पुष्यमित्र ईशारे में समझ गया।
"अस्तु! जो होना था वह होकर रहा। पर मुझे मेरे साम्राज्य को अभिन्न रखना है। सम्राट अशोक का एकच्छत्री साम्राज्य टूटने नहीं देना है। इसलिए मैं ऐसा कुछ-भी नहीं करूँगा जिससे इस साम्राज्य का अहित हो।"
"और अब सम्राट संप्रति कितने वर्ष जीएगा? उसने बहुत किया, बहुत कुछ करवाया। जीवन से उसे कोई भी फरियाद नहीं है अरिहंत का प्रसाद है। धर्म की सच्ची प्रभावना हुई है, उसका आनंद है, अनुमोदन हैं। अब सम्राट क्यों ऐसा कुछ भी करे कि जिसके कारण से अखंड साम्राज्य में कोई दरार पड़े या पड़ी हुई दरार जाहिर हो जाए?”
"तो आप राजमहल में पधार रहे हो ना सम्राट!"
"नहीं, अब मैंने राजमहालय का त्याग कर दिया है वत्स!"
“समझा नहीं!”
"इस बाण और कटारी की खबर ने मेरे भीतर सोये हुए जीव को तमाचा मारकर जगाया है महाराज! अब मैं राजमहालय में नहीं रहूँगा। पर... या तो गुरुदेव आर्यसुहस्ति सूरिजी के साथ धर्मालय में रहूँगा या फिर किसी ऐसे ही पटमंडप में।”
"पर सम्राट! एसे खुले में आप नहीं रुक सकते हो। यहाँ आपकी सुरक्षा का क्या?" बृहद्रथ बोला और सम्राट की आँखें उसके चहरे पर पड़ी। वे उसे पढ़ रहे थे। कुछ देर बाद मुस्कुराये। इस हास्य के जैसा करुण और गमगीन हास्य आज के पूर्व सम्राट ने कभी नहीं हँसा था।
"मेरी रक्षा मेरा धर्म कर रहा है बृहद्रथ! जब तक मेरा सत् मेरी सहाय में है, तब तक मुझे कोई भी बाण नहीं लग सकता, यह निश्चित है।" सम्राट ने ब्रह्मवचन उच्चारा और बृहद्रथ तिलमिला गया।
सम्राट ने फिर से उस कटारी को उँचा किया। उसका क्षण भर निरीक्षण करके बोले, "मगध मेरा और कलिंग पराया। और देखो! आज पराये ने मेरी रक्षा की और अपनों ने जख़्म दिए हैं दिल पर...”
"पुष्यमित्र! यह कलिंग की कटार बहुत तेजस्वी है। बहुत ही जोश, जज्बा और साहस है। इससे सावधान रहने जैसा है। आपको पता है भला कि आज तक मगध का कोई भी बाण किसी भी कटार से टूट गया हो? सेनापति! भविष्य का यह संदेश है। सावधान रहना, वर्ना तो कलिंग मगध को तोड़ देगा।"
"आपके जीते जी तो यह असंभव है सम्राट!"
"हाँ, यह सच है। पर मेरा जीवन अब बहुत ज्यादा लंबा नहीं है। कई सारे लोगों के मैं आडे आ रहा हूँ और सभी लोग मुझे हटाये उसके पहले ही मैं सुख-शांतिपूर्वक हट जाने वाला हूँ।"
"पर राजा और सेनापति! आप दोनों सुन लेना। यह कलिंग की कटार बहुत ही दमदार है। आप इससे सावधान रहना।
"उसके पास मात्र बल ही नहीं है, पर युद्ध करने का सबल कारण भी है, प्रयोजन भी है। नैतिकता सर्वप्रथम और सबसे सबल शक्ति होती है बृहद्रथ! यदि सैन्यबल कम हो नैतिकबल अधिक हो तो भी युद्ध को जीता जा सकता है और नैतिकता का पतन होने के बाद शस्त्रों और सैन्य भी कोड़ी की कीमत के बन जाते हैं।"
पुष्यमित्र! पता नहीं क्यूँ? पर मुझे इस कुमार के शब्दों में भविष्य के दर्शन होते थे। कोई महान साम्राज्य भी शाश्वत नहीं है सेनापति! सम्राट आते हैं और जाते हैं। साम्राज्य बनते भी हैं और बिखर भी जाते हैं। हम तो अब इन सबसे विरक्त हो गये हैं महाराज! मौर्यों की भावी पीढ़ी के हाथ में सबकुछ सौंपकर हम तो चले जाएँगे। पर उस भावी पीढ़ी को इतनी सावधानी रखनी पड़ेगी कि जहाँ नैतिकता है, वहीं विजय है, साम्राज्यों के पतन में मुख्यतः अनैतिकता छिपी हुई होती है। जो व्यक्ति अनीतिमान बन जाता है वह खुद ही अपने पतन का मूल कारण बनता है। इसलिए सावधान!!" सम्राट की बातें सुनकर राजा और सेनापति दोनों डर गए थे।
“बहुत रात बाक़ी है महाराज! आपको यहाँ पर सोना अनुकूल नहीं होगा। मैं तो इस उबडखाबड़ धरा पर तृण संस्तारक बिछाकर नींद ले लूँगा। आपको इससे परेशानी होगी। आप पाटलीपुत्र के राजमहालय में पधारों। मुझे अब आग्रह मत करना। मैंने अब त्यागमय जीवन जीना पसंद किया है और यह मेरा अपना और अटल निर्णय है।” सम्राट ने यह वाक्य कहकर पूर्णविराम कर दिया। बृहद्रथ और पुष्यमित्र वापस लौटे। खाली पड़े हुए खंड में मौर्य सम्राट संप्रति ने फिर से कटार को ऊपर उठाया और दीपमालिका के प्रकाश में गोल घुमाया और बार-बार उसी वाक्य को पढ़ा- "कलिंग जिणस्स जयो होऊ।”
"खारवेल!" सम्राट ने सोचा। "मित्र! तू तेरी इस कटारी जैसा ही है। तीखा, रक्षक और आरपार घुस जाए वैसी तेज धार! तेरी कटारी नहीं, पर तू मेरे हृदय में बस गया है मित्र!”
(क्रमशः)
Комментарии