कलिंग जनपद की राजधानी तोसाली नगरी उत्सव में मग्न बन गई थी। यद्यपि एक जमाने में जिस प्रकार से महोत्सव मनाये जाते थे, वैसे तो कई बरसों से इस नगरी ने नहीं देखा था। पर जीर्ण-शीर्ण नगरी के टूटे-फूटे उत्साह से भरे नगरजन इस महोत्सव में इकट्ठे होते थे। यहाँ उनको मद चढ़ता था, मदिरा का पान करके नहीं, अपितु प्राचीन भव्य स्वर्णिम इतिहास को याद करके। बार-बार उसी कथा को याद (स्मरण) कर-कर के उनका गौरव बढ़ता था। उनको ऐसा लगता था कि, हम हमारे प्रतापी पूर्वजों के पथ पर कब चलेंगे?
उत्सव में खेलन-कूदन, अश्वसंचालन, तीरंदाजी आदि प्रतियोगिताएँ होती थी। कलिंगनिवासी पलभर के लिए अपनी दीन-हीन दशा को भूल जाते थे। सच्चा सम्मान तो विजयपूर्वक मिलता है। पराजित दशा में जो मिलता है वह तो समाधान होता है, सम्मान नहीं।
कलिंगनिवासिओं को एक विजयी साम्राज्य की अपेक्षा थी। एक विजेता सम्राट की अपेक्षा थी। पर कमनसीब सें ऐसा कोई योग्य राजा फिलहाल कलिंग के राजसिंहासन पर नहीं था। उतने में...
"और अब कलिंग की जनता के दिलों में बसनेवाले अभिनय सम्राट महान चारण माणवक रंगमंच पर पधार रहे हैं" ‘माणवक’ का नाम सुनते ही सभा में एक जैसा रोमांच, उत्सुकता, कुतूहल फैल गया। अन्य-अन्य स्पर्धा-प्रतियोगिता या प्रसंगों में जो लोग शायद अंदर ही अंदर बातचीत करने में और गप्पे लड़ाने में मग्न थे, वे भी 'माणवक' का नाम सुनकर एक साथ रंगमंच की ओर प्रस्थान करने लगे।
वसंतोत्सव का यह प्रख्यात दिन कौमुदी महोत्सव और कौमुदी महोत्सव की यही आखरी रात...। पूरी रात सभी जागते थे। पिछले पंद्रह दिन से चले आ रहे महोत्सव की यही पराकाष्ठा होती थी। हर बार की तरह आज की रात आने वाले लोग अनेक प्रकार के विचार-लक्ष्य के साथ आते थे। साहूकारों की नजर साहूकारों को ढूँढ़ती थी। वे रिश्ते कायम करते थे और व्यापार का विकास करते थे। नौजवान अपने हमउम्र भेरु-मित्र को खोजते रहते थे और मेले में घूम-फिरकर, खा-पीकर मस्ती करते थे। चोर चार नजरों से अपने पात्र- शिकार की तलाश में होते थे। कोतवाल अपनी पैनी नजरों से चोरों को खोज रहे थे। कई माँ-बाप अपने वयस्क बेटे-बेटियों के लिए योग्य-पात्र ढूँढ़ रहे थे।
हर समय की तरह कौमुदी का यह महोत्सव शोर-गुल और उल्लास से भरपूर था। हमेशा की तरह इस वक्त भी जैसे ही ‘माणवक’ का नाम पुकारा गया कि हर कोने से हर कोई रंगमंच के आने लगें। और बाकी के सभी ने ‘महत्वपूर्ण’ के कार्यों को अधूरा छोड़ दिया।
‘माणवक’ आ रहे थे, वे राजकवि थे। कलिंग की मातृभाषा प्राकृतभाषा में वे जो कुछ भी बोलते थे, वे सभी काव्यरूप बन जाता था। उनके प्रत्येक शब्द को कलिंगी एकचित्त से सुनते थे, और प्रत्येक वाक्य पर वाह! वाह! के उद्गार निकालते थे।
यह सब कुछ एक जैसा ही चलनेवाला था। हर बार से अलग इसमें कहीं भी, कोई भी नावीन्यता नहीं थी। पर फिर भी इसमें एक नवीनता अब आने वाली थी। यह कौमुदी महोत्सव कुछ अलग ही प्रकार से मनाया जाने वाला था। उस नवीनता को लानेवाला था - एक ब्राह्मण। जो उसकी प्रेयसी के साथ जबरदस्ती कौमुदी में आया था।
"तू यदि नहीं आएगा तो मैं तेरे साथ बात नहीं करूँगी" किंकिणी बोल रही थी और कामरूप- जिसको सभी ‘कामरु’ के नाम से बुलाते थे, उसने किंकिणी की चिबुक को पकड़कर उसका चेहरा अपने चेहरा की तरफ ऊँचा किया था- ‘यह संभव ही नहीं है, यह तू भी जानती है"।
"छट्” ऐसे ग़ुस्सा में सुनाकर उसके हाथ को छुड़ाकर किंकिणी फुफकारती हुई नागिन की तरह दो कदम पीछे हट गई थी। फिर बड़ी आँखों को और बड़ी-बड़ी करके एक हाथ कमर पर टिकाकर दूसरे हाथ से तर्जनी ऊँगली बताकर चेहरे को एक तीखा मरोड़ देकर कामदेव की राजधानी समान छाती को तनाकर किंकिणी बोल रही थी, यदि इस बार तूने बात नहीं मानी तो यह होगा ही। मैं अब की बार तेरे साथ कभी-भी बात नहीं करूँगी, नहीं करूँगी और नहीं ही करूँगी।"
उसकी इस मोहक अदा से बेफिक्र होकर तनकर खड़ा हुआ वह छोकरा - कामरू कमर पर दोनों हाथ रखकर सहज ही बोला- कुछ भी नया नहीं, वो का वो ही बोला -"यह कभी-भी संभव ही नहीं है।"
उसके जवाब में किंकिणी ने दोनों हाथ कमर के ऊपर रखे, और ताना दिया कि- "और कुछ बोलने को आता है या नहीं? एक ही बात बोलता रहता है। यह संभव नहीं है, यह संभव नहीं है, क्या संभव नहीं है?”
"किंकिणी आदेश करे और कामरू उसकी बात को नहीं माने, ऐसा संभव नहीं है" कामरू अदब लगाकर बोला, ऐसी ही लापरवाही से।
और किंकिणी का गुस्सा भाप बनकर उड़ गया। उसके चेहरे पर बिजली जैसी स्मित चमक उठी और वह उत्साह से उछलकर बोली- मतलब मतलब कि तू मेले में आएगा?
दो-पल के लिए कामरु हँस पड़ा, और फिर मस्तक झुकाकर बोला, "तेरी इच्छा है इसलिए... हाँ। उल्लास के अतिरेक से किंकिणी का हृदय भर आया और दौड़कर उमंग से कामरु की छाती में समा गई।"
"तू किसी भी बात को सीधे-सीधे क्यों नहीं बताता है? मुझे तड़पाने में तुझे मजा आता है क्या?”
"ऐसा नहीं है प्यारी। किंकिणी के सर पर हाथ फैरते हुए कामरु बोला। "यदि सीधे-सीधे मान लूँ तो यह जो सुख अभी-अभी मुझे मिल रहा है, वो कैसे मिलता?”
"निर्लज्ज!.." झटके के साथ किंकिणी उससे अलग हो गई और पीठ घुमाकर चलने लगी। उसकी पीठ के पीछे कामरू का हास्य टकराया। मुग्ध – निखालस - बेफिक्र विजयी और ठहाके भरे उसके उस हास्य से किंकिणी भी भीतर से गद्गद् हो उठी। प्रेम चीज ही ऐसी है, जो हार जाए वह भी सामने वाले की जीत का जश्न मनाये।
यह किंकिणी और कामरू मेले में आ रहे थे। कामरू किसी गहरी सोच में उलझ गया था। किंकिणी तो उसके नामानुसार ना जाने कितने ही समय से कब से कितना ही खनक रही थी। बके जा रही थी। पर कामरू को आधा सुनाई देता था, आधा नहीं। उसे एक ही चिंता थी। यदि कलिंग का इतिहास उसे सुनाई पड़ेगा तो उसका हृदय हाथ में नहीं रहेगा, तो फिर गजब हो जाएगा। और उल्टा आचार्य तोषालिपुत्र का नाम मलिन हो जाएगा। वह नहीं चाहता कि उसके आचार्य का तंत्र खुला पड़ जाए, इसीलिए ही वह मेले से दूर भाग रहा था। पर....
"प्रियतमा की ज़िद्द के आगे तो भगवान राम जैसे भी हार गाए थे, तो फिर कामरु की क्या औकात? कामरु ने मन मना लिया और उन्होंने जब महोत्सव मंडप में प्रवेश किया, तब "माणवक” अपने प्रभावशाली सुर और अद्भुत अभिनय के साथ कलिंग का इतिहास बता रहा था।
"जिससे बचना चाहो, वो ही चीज आकर खड़ी रहती है, अब खैर नहीं...” कामरू स्वतः बड़बड़ाया। किंकिणी ने पूछा, 'क्या कहा?’ कामरू ने कहा - ‘कुछ नहीं।’
(क्रमशः)
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