महानायक खारवेल Ep. 12
- Nov 3, 2024
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"अब मैं लंबे समय तक नहीं हूँ।” मुनि ने विस्फोट किया।"
"मैं तो सदमे में पड़ गया।” मुनिवर! ऐसा क्यों कह रहे हो?
"जिनकल्पी की तुलना करते हुए मुझे अतिचार लग गया है।"
"अतिचार? आपके जैसे अप्रमत्त शिरावतंस को अतिचार?”
"हाँ, और उसके निमित्त... दुर्भाग्य से आप बने हो मुनिराज!” ऐसा कहकर महामुनि ने मुझे वसुभूति श्रेष्ठी की घटना समझाई। वसुभूति श्रेष्ठी का अभिनय इतना आबाद था कि महामुनि ने स्थापना दोष वाली भिक्षा ग्रहण कर ही ली होती। परंतु घर-घर में जब एक सरीखा अभिनय होने लगा, तब महामुनि सावधान हो गए थे। इस अनैषणा दोष की उनको गहरी पीड़ा थी। एक तरफ श्रावक के पक्ष से वे उत्तम भक्ति कर रहे थे, उसका आनंद होता था और दूसरी तरफ साधुभगवंत के पक्ष से उनके आचार में अनैषणा हो रही थी, उसका दुःख था।"
"परंतु जब विस्तार और प्रचार में पड़ जाते हैं, तब ऐसा ही होता है। अच्छा भी कहीं कुछ अंश से कलंकित बन जाता है और उसका विस्तार होता है। बुरा भी कुछ अंश से अच्छा साबित हो जाता है, यही प्रचार का लाभ है। पर यह जो बुरा कुछ अंश से अच्छा बना हुआ है, वह किस हद्द तक अच्छा बना रहेगा? संपूर्णतया अच्छा ही होगा कि नहीं? उसका अंदाजा नहीं लगा सकते हैं। जो संपूर्ण शुद्ध था, वह तो प्रचार के स्वरूप में ढल जाने से कुछ अंश से अशुद्धता से तुरंत मिश्रित हो जाता है। फिर उसमें रह गयी हुई अशुद्धि अमर बनने की संभावना बहुत ही रहती है। प्रचार और विस्तार में बहुत ही जोखिमी और जिम्मेदारी शामिल है।
"महामुनि के चरणों में गिरकर मैंने क्षमा याचना की और दूसरी बार ऐसा नहीं करने की यानी उनके गुणगान किसी के समक्ष नहीं करने की उनकी इच्छा को मैंने संकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया। आपको मालूम है सम्राट! मुझे इस बात का बहुत दुःख हुआ पड़ने वाला था। महामुनि पधारे और मैं आसन त्यागकर खड़ा नहीं होऊँ और, उनके चरणों की रज सिर से नहीं लगाऊँ नही क्या यह संभव था? वे मेरे सर्वस्व थे।”
"वे समझ गए थे कि इस बात को स्वीकारते हुए मुझे कितनी पीड़ा हो रही थी। वे बोले कि जीवितस्वामी के दर्शन करके मुझे दशार्णपुर में दशार्णकूट पर्वत के ऊपर जीवन की अंतिम आराधना करने की इच्छा है। अब उम्र भी हो चुकी है और आपको जो कहना था, वह कह दिया है। आपके हाथों में मुझे शासन सुरक्षित लगता है।”
"सम्राट! भद्दिलपुर में आए हुए जीवितस्वामीजी की वंदना हमने अनेक बार की थी। वे हमारे आराध्यदेव थे और हैं। समस्त गण के साथ हम विदिशा में आए। जीवन के अंतिम दर्शन महामुनि ने तीव्र भाव से किए और फिर दशार्णकूट पर जाकर अनशन के द्वारा जीवंत समाधि ले ली और स्वर्ग सिधारे।"
“आज मेरे लिए इस कथा को कहने का प्रयोजन आ खड़ा हुआ है। मैं चिंतित था। कल महामुनि नहीं होंगे तो शासन का आंतरिक हित कौन देखेगा? पर मेरा यह खयाल बिलकुल ही गलत था। मैं ऐसा समझ बैठा था कि, शासन मेरी जिम्मेदारी है। इसलिए मुझे यह विचार आया। प्रवृत्ति करते-करते कर्तृत्व कहीं मुझे स्पर्श-सा गया था। पर शासन को चलानेवाला मैं कौन हूँ? शासन अनेक महामुनियों, अनेक श्रावक सुभटों के सामूहिक प्रयत्नों से जयवंत रहता है।"
"देखो, मैं जिम्मेदारियों के बोझ तले पहले भी चूक गया था, और आज भी चूका हूँ। पाटलीपुत्र में शासन के महान् श्रावकरत्न के ऊपर आपत्ति आई हुई है, यह मैं जान न सका। और आर्य महागिरिजी के उस महान् शिष्यरत्न आर्य बलिस्सह सावधान हो गए। उन्होंने सीधे कलिंग से कुमार खारवेल को भेजा। मेरा उनको नमन है...”
"इससे भविष्य के लिए मुझे निश्चिंतता का अनुभव होता है और अब मेरा भी निर्णय इच्छा है कि जीवन के अंतिम साधन-मोक्ष पुरुषार्थ को साध लेने का... यह मेरा अडिग निर्णय है।”
"महामुनिजी ने इसी पाटलीपुत्र से वापस जाते हुए जीवित स्वामी के दर्शन करके दशार्णकूट पर अनशन किया था। मैं भी पाटलीपुत्र से वापस जाकर जीवित स्वामी के आशीष पाकर..."
"महामुनि! आप अनशन मत करो" सम्राट ने कहा। उनके दोनों हाथ जुड़े हुए थे। उनका स्वर आर्त्त था…
“काया का पर्ण अब सूखकर पीला पड़ गया है। अब वह आज झड़ जाए या कल, क्या फर्क पड़ता है सम्राट!" j
"फर्क पड़ता है गुरुदेव!” आर्य सुस्थितसूरि और आर्य सुप्रतिबद्धजी ने कहा।
“आप यहाँ से उज्जयिनी पधारिये और हमें कलिंग जाने की आज्ञा दीजिए।" आर्य सुहस्ति ने कहा। उनकी आँखों में महात्मा सुहस्तिसूरिजी देखते रहे। उनको दृढ़ संकल्प नजर आ रहा था।
“हमे वहाँ एक चातुर्मास करने की आज्ञा दीजिए। हम वहाँ से वापिस आपको उज्जयिनी में मिलेंगे, तब तक आप प्रतीक्षा कीजिए, फिर हम आपको रुकने के लिए आग्रह नहीं करेंगे।”
"अच्छा" कुछ देर सोचकर आर्य सुहस्तिसूरिजी बोले। "आपका निर्णय सही समय का है। आप कलिंग पधारिए। वहाँ धर्म का भविष्य में महान् अभ्युदय होनेवाला है। वहाँ पर आपके दो कर्त्तव्य हैं। आपके पुण्यप्रभाव से कुमारगिरी और कुमारीगिरी तीर्थ को पुन: प्रकाश में लाना है और आर्यबलिस्सह आदि जिनकल्पी की तुलना करते हुए श्रमण-गण के साथ स्वस्थ संवाद साधना है। उन आत्मध्यानी मुनिवरों को अवसर – अवसर पर परोपकार के लिए भी ध्यान खींचने को मना लेना है। मात्र और मात्र विजय के बल पर और निवृत्तिमय साधना के आचरण द्वारा आपको उन विरागी पूज्यों का दिलों जीतना है।"
"इसीलिए तो हमने कुमारीगिरी पर्वत पर सूरिमंत्र के चिंतन के व्दारा और उसके आलावा के पुनः पुन: आवर्तन के द्वारा मौनपूर्वक तपमग्न होकर जिनकल्पी जैसे बनकर एक चातुर्मास बिताने का संकल्प किया है। इस संकल्प को अब तो आपकी आज्ञा की मोहर लग गई है। इसलिए आपने हमें जो लक्ष्य बँधाया है, अब उसमें हमें सफलता के लिए अंशमात्र भी अविश्वास नहीं है।"
"मुझे गर्व है मेरे पट्टधरों पर... मुझे विश्वास है कि मेरे उनके ऊपर के विश्वास को वे सफल करके बताएँगे सम्राट! चलिए आवश्यक क्रिया का समय हो गया है। आप भी चलिए। श्रमण प्रतीक्षा करते होंगे। मुझे अब जाना चाहिए। पाटलीपुत्र की यह विचारणा जीवन की अविस्मरणीय विचारणाओं में से एक है। जिनशासन जयवंत है। प्रभु वर्धमान स्वामी की कृपा अपरंपार है।"
कहकर गुरुदेव खड़े हो गए। उनकी एक तरफ दोनों श्रमण थे और दूसरी तरफ सम्राट संप्रति आ खड़े हुए थे। ये चार जाज्वल्यमान नक्षत्र थे जो प्रतिपल चतुर्दिशा में धर्म की ज्योति को अखंड रखने के लिए सदैव तत्पर थे।....
(क्रमशः)




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