महानायक खारवेल Ep. 25
- Muni Shri Tirthbodhi Vijayji Maharaj Saheb
- Feb 23
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"संसार छोड़ना आसान लग रहा है मुनिप्रवर! पर प्रवृत्तिमात्र को त्यागकर ऐसे एकांत में बैठे रहना, नितांत निवृत्ति में मग्न रहना यह कैसे संभवित है मुनिराज!" एक बालमुनि आर्य बलिस्सहजी से पूछ रहे थे।
आर्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबद्ध विहारक्रम से कुमारगिरी पर्वत पर पहुँच चुके थे। उन्होंने आर्य उत्तर और आर्य बलिस्सह को वंदना की। उसके बाद अपने साथ आए हुए पाँच श्रमणों को आगे करके कहा- "हमारे गण के यह पाँच सर्वश्रेष्ठ अंतर्मुखी वैरागी श्रमण रत्न हैं। वे पात्र और जिज्ञासु है- आपके तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के लिए। इसलिए मेरी भावना है कि, आपश्री उन्हें वह परम रहस्यभूत निवृत्ति की साधना का उपदेश दीजिए। वे तुरंत ग्रहण कर लेंगे और परंपरा को आगे बढाएँगे।"
"उत्तम प्रस्ताव है।" आर्य बलिस्सहजी ने कहा- "पर यह बाल्यवय के मुनि क्या इस उत्तम तत्त्व को हजम कर सकेंगे? मुझे स्मरण में है आपका बाल्यकाल। आप भी अस्थिर ही थे ना? आपका मित्रवर्तुल कितना विशाल था? आपको संबंध बनाने में और संभालने में कितना रस था? था कि नहीं? बाल्यवय ही ऐसी है।"
प्रत्युत्तर में आर्य सुस्थितजी ने कुछ नहीं कहा, मात्र स्मित किया। “पर यह बालमुनि अलग है।” आर्य सुप्रतिबद्धजी ने कहा। आप अध्ययन तो शुरु करो, फिर आप स्वयं जान लोगे कि सबसे ज्यादा जिज्ञासा और ग्राहकता किसमें है?
और जब आर्य बलिस्सहजी ने अमूल्य निवृत्तिमार्ग का उपदेश शुरु किया, तब उन्होंने थोड़े ही समय में जान लिया कि बालमुनि की जिज्ञासा अपार है। साथ ही बाल्यवय में अबाल्य समझशक्ति है। सबसे ज्यादा पृच्छा बालमुनि के द्वारा ही होती थी और प्रत्येक पृच्छा ज्ञानतृषा की द्योतक थी तो ज्ञानतृप्तिदायक बनती थी।
"नितान्त निवृत्ति, यह अत्यंत भावितता के बिना संभव नहीं है। भावितता के अभाव में चित्तवृत्ति और मनोजगत् एकदम खाली-खाली हो जाता है। ऐसे साधक को निवृत्तिमार्ग का आश्रयण नहीं करना चाहिए। उसे तो प्रवृत्ति में लीन रहकर भावितता को अर्जित करना चाहिए।"
"पर भावितता-भावना अर्जित करने के लिए निवृत्तिमार्ग में कौन-सा आलंबन लेना चाहिए?” एक अन्य जिज्ञासु मुनिराज ने पूछा।
“निवृत्तिमार्ग के आलंबन अतिसूक्ष्म होते हैं। और अति प्रवाही जैसे वे जल्दी हाथ में नहीं आते हैं। इस मार्ग में कायोत्सर्ग, ध्यान, अनुप्रेक्षा और कायसंलीनता का आलंबन लिया जाता है।
"पर ऐसे सूक्ष्म आलंबन तक पहुँचने के लिए और उसकी प्राप्ति के लिए अपेक्षित स्थिरता कैसे लानी चाहिए? बालमुनि ने पूछा।
"तपस्या के आलंबन से ।" बलिस्सहजी ने कहा। "शरीर में यदि शक्ति हो तो, योग चंचल बन जाते हैं और निवृत्तिमार्ग के सूक्ष्म प्रवाही योगों में स्थिरता प्राप्त नहीं होती है। ज्यादा से ज्यादा काया एकाग्र होती है, पर मन तो तब भी चंचल ही रहता है।"
"इसलिए निवृत्तिमार्ग के साधक सर्वप्रथम शारीरिक शक्ति को निचोड़ने का काम करते हैं। तपस्या और विशिष्ट कायक्लेश के प्रभाव से काया और मन के योगों में रही चंचलता पर विजय अर्जित होती है। एकाकारता बढ़ती है और साधक में निवृत्तिमार्ग के सूक्ष्मयोगों को साधने की क्षमता प्रकट हो जाती है।”
"फिर आते है- भावितता, शुभभावना, ध्यान और संलीनता। मनोगुप्ति के द्वारा भावित होना। बार-बार, यही कर्तव्य है, यही आराध्य है, यही उपादेय है, इस प्रकार से विचारना चाहिए। इसके द्वारा, निवृत्ति की भावना के द्वारा निवृत्ति की उपासना संभव होती है। और मन खाली नहीं रहता है, अपितु सुंदर भावनाओ से भर जाता है। मन को हमेशा भरा हुआ रखना जरूरी है। खाली हो जाए, तो निवृत्तिमार्ग में बड़ा जोखिम आ जाता है। शुभभावों से पूर्ण मन के साथ निवृत्ति की आराधना करने से आनंद का अनुभव होता है। नहीं तो निवृत्ति उद्वेगजन्य बन जाती है और उद्वेग शोक में, शोक तीव्र मनोवेदना और व्यथा में परिणमित होता है। मन विक्षिप्त हो सकता है। निवृत्ति का मार्ग तीक्ष्ण धारवाला खड्ग है। सामने चले, तो कर्मनाश और विपरीत चले तो जीव के धर्म का समूल नाश कर देता है। इसीलिए ही साधक मुख्यतया प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच संतुलन रखकर साधना करते जाते हैं।
"तो आप क्यों नितान्त निवृत्ति की साधना करते हो?" बालमुनि ने सहजता से पूछा। उनके लिए यह सहज था। अन्य किसी से यह साध्य नहीं था। शायद इसीलिए गुरु ने उनको अपने साथ में लिया था। जिससे आर्य बलिस्सह के हृदय के छिपे हुए पटल (भाव) प्रकट हो जाएँ।
“उसके पीछे एक कथा है। सुनोगे तो आप समझ जाओगे।”
“हमें वह कथा सुनाइये ना।”
जिस समय पाँच साधु भगवंत आर्य बलिस्सहजी के पास निवृत्तिमार्ग का अध्ययन कर रहे थे, तब आर्य उत्तर और आर्य सुस्थित – सुप्रतिबद्ध अन्य गुफाखंड में बैठे थे।
"आचार्य तोषालीपुत्र को ऐसा मार्गदर्शन करके आपने योग्य नहीं किया है आर्य!” आर्य बल बहुत दिनों के बाद बोले हो ऐसा लग रहा था। उनकी आवाज दिव्य थी। उनका बोलना कानों को आनंद देने वाला था।
"मिच्छामि दुक्कडम् स्थविर!” आर्य सुस्थितजी से आर्य उत्तर ज्येष्ठ थे। साधना जीवन की दृष्टि से भी और साधना की दृष्टि से भी। सालों से वे निवृत्तिपंथ के एकांत उपासक बन गए थे। वह सच में दुष्कर था। कितने समय के बाद आज उन्होंने एक-दो शब्द से ज्यादा कुछ कहा था। क्योंकि अभी भी वे श्री संघ के अंग थे। और अपने समक्ष बैठे हुए दो तेजस्वी तारे ही तो श्री संघ के भविष्य के पथ प्रदर्शक थे। इसलिए अपने ज्ञान - अनुभव को बाँटना जरुरी था, इतना तो उनको करना ही चाहिए ना!
दोनों आर्य समझते थे कि, दोनों के बीच में विचारधारा का फर्क है। ऐसे में एक को जो कर्तव्य लगेगा, वह दूसरे को हेय लगेगा और जो दूसरे को उपादेय लगेगा, वह उनको असार लगेगा। ऐसा चलता रहेगा, पर फिर भी गुरु के रूप में पूज्य तो आर्य उत्तर ही थे और रहेंगे। इसलिए दोनों आर्यों ने उनके समक्ष क्षमा याचना की।
"अब क्या? जो होना था वह हो चूका था। उस किशोर - खारवेल की भवितव्यता ही बहुत भारी है। उसका भाग्य बहुत बलवान है। चाहे कितना भी अटकाओ, उसे उसके भोग का फल मिलकर ही रहने वाला है। आर्य बलिस्सहजी ने अटकाने के बहुत प्रयास किए। पर आपके द्वारा उसका आचार्य से मिलन हो ही गया और अब वह आचार्य क्या करेंगे, यह जानते हो?"
दोनों आर्य जानते तो थे ही। क्यों नहीं जानेंगे ? दस पूर्वधर थे वे दोनों। फिर भी वे मौन रहे। आर्य उत्तर भी आँख मूँदकर फिर से ध्यान में उतर गए। फिर से दोनों आर्य उनके उत्थान की प्रतीक्षा करते हुए धैर्य रखकर बैठे रहे।
(क्रमशः)
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