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महानायक खारवेल Ep. 26

  • Mar 2
  • 6 min read

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"उत्सव के आने पर जिस तरह प्रजाजनों की भावनाएँ उमड़कर बाहर आती है, वैसे ही आज मेरी संवेदनाएँ  छलक उठी है मेरे स्वामी! चंद्र के दर्शन से चातक पक्षी को जिस नितान्त सुख की अनुभूति होती है, वैसी ही कुछ सुखानुभूति आज मुझे हो रही है मेरे नाथ! आज मेरा मन अत्यंत प्रसन्न है। एक वक्त पर इस कलिंग के नगर जनपद को छोड़कर आटविक समूह में वापिस आते समय मन पर जो बोझ था, जो संक्लेश था, जो अपार पीड़ा थी, वह सब आज धुल गई है। जैसे कि आज मुझे नया जन्म मिला है श्रीमान राजकुमार!

 

"आचार्य श्री! आप इतना अधिक मत कहो। मुझे बहुत क्षोभ-संकोच हो रहा है। आप मेरे गुरुवर्ग समकक्ष हो।”

 

"फिर भी राजकुमार खारवेल! आप मुझे हमेशा आपका दासानुदास समझना। मुझे इसी में ही प्रसन्नता है। मेरे सिर पर कितने ही बरसों से कोई छत्र नहीं रहा है। महाशय! अब आज मुझे प्रसन्नता है कि आपके दादा से हमारा छीना हुआ छत्र मुझे आपसे वापिस मिलने वाला है। आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ।"

 

आचार्य श्री की इस प्रसन्नता में बाधा नहीं पहुँचाने के भाव से खारवेल ने बप्पदेव से चकित होते हुए पूछा - "मित्र! आचार्य तो बहुत भावुक हो गए हैं। भावुकता में वे वास्तविकता को भूल तो नहीं गए ना? तुझे क्या लगता है कि, महाराज वृद्धराय उनके पुत्र को इस तरह से आटविक समूह में शामिल होने की अनुमति दे सकते हैं?"

 

"उनको संमति देनी ही पड़ेगी महाराज कुमार!” आचार्य तोषालिपुत्र ने कहा - "क्योंकि मेरे पास एक अमोघ शस्त्र है – क्षेमराज का वचन। हाँ, उन्होंने मुझे वचन दिया था जिसके द्वारा मुझे मेरे कार्य को सिद्ध करना है।”

 

“कौनसा वचन आचार्य श्री?" बप्पदेव ने पूछा। उसके उत्तर में तोषालिपुत्र ने रहस्यता के साथ स्मित किया। बस, हँसकर मौन हो गए। खारवेल के मन में भी हलचल मच गई। अपने कुतूहल को जबरदस्ती से दबाकर रखा। और आखिर में आ पहुँचा राजा वृद्धराज का राजदरबार।

 

"ज्ञानी, दानी, विद्या विशारद कलिंगाधिपति राजा क्षेमराज के वंशज राजा वृद्धराज को आटविक समूहपति नगण्य आचार्य तोषालिपुत्र विनम्र भाव से वंदन करता है।” आचार्य ने इतना कहा पर फिर भी वृद्धराज को क्या कहना और क्या नहीं कहना वह समझ में नहीं आया। वे सम्भ्रम में थे। स्तब्ध हो गए, वे कुछ भी नहीं बोल सके।

 

सामने दिखाई देने वाला यह दृश्य आचार्य के साथ खारवेल - भाविराजा और बप्पदेव - भावि सेनापति के रूप में दृश्य ऐसा सूचन कर रहा था, कि जैसे राजा वृद्धराज की विपरीत विचारधारा के साथ भविष्य के कलिंग का संधान हो गया था। कुछ भी नहीं सूझने पर आखिर में भारी निःश्वाश छोड़ते हुए उन्होंने कहा।

 

"मैंने आज तक आटविक प्रजा के वचन पालन की कटिबद्धता के लिए बहुत सुना था। पर आज मैं वह सब मेरी आँखों के सामने विनष्ट होते हुए देख रहा हूँ। आचार्य! आपने आपके पूर्वजों की वचन पालन की कीर्ति पर काला बट्टा लगा दिया है।"

 

"क्षमा राजन! कलिंग का सिंहासन - यह आज भी हमारे सिर की पाघ के समान है। हम उनकी आज्ञा का कभी भी उल्लंघन नहीं करेंगे और आज तो मेरे वचन भंग के लिए नहीं, पर कलिंग नरेश की वचनपालन की विख्यात कीर्ति को सम्पूर्ण जगत् में और ख्यातनाम करने आया हूँ, कलिंग नरेश!"

 

"आपने यहाँ आकर वचनभंग तो कर ही दिया है आचार्य! आपकी पात्रता नहीं है कि आप कलिंग के उन्नत राजवंश के प्रतिज्ञापालन की खरी कसौटी कर सको।"

 

वृद्धराज के प्रत्येक शब्द तोषालिपुत्र का घोर अपमान कर रहे थे। खारवेल और बप्पदेव कुछ ज़्यादा ही बेचैनी का अनुभव करते हुए खड़े थे। सभासद भी स्तब्ध थे। यह महाराजा क्या कर रहे थे? पर महाराजा जानते थे, वे कौन-सी चाल चल रहे और आचार्य तोषालिपुत्र को भी पता था।

 

“इसलिए अपमान को उन्होंने सहर्ष स्वीकार लिया। दोनों हाथ जोड़े और कहा - "कलिंगराज तो हमारे माता-पिता हैं। उन्हें अपनी प्रजा से कहने का संपूर्ण अधिकार है मैं तो मात्र संतान के रूप में पिता समान महाराजा के पास से एक दान माँगने आया हूँ और एक वरदान की याद दिलाने आया हूँ। आशा है कि आप मुझे निराश नहीं करोगे।"

 

“जिस दिन पिता क्षेमराज ने आटविक समूह को भिन्न कर दिया था, तभी से हमारे बीच के संबंध खत्म हो गए थे। फिर आप कौन-से संबंध की दुहाई दे रहे हो आचार्य!" महाराजा किसी भी तरह से मूल मुद्दे से भटकाना चाहते थे।

 

पर आचार्य दृढ़ थे। वे मूल मुद्दे पर आकर ही रहे। उन्होंने कहा, "महाराज! राजा क्षेमराज ने हमें स्वतंत्र कर दिया था और खुद ने परतंत्रता को स्वीकार किया था। उस महान राजा का आज भी हम बहु‌मान के साथ स्मरण करते हैं। मैंने जब प्रतिज्ञा की थी कि अब आटविक इस कलिंग में तब तक वापिस नहीं आएगा जब तक उसे उनकी सहाय प्राप्त करने के लिए सामने से नहीं बुलाया जाएगा और जब मैं वापस जाने लगा था तब उस महान कलिंगराजा आपके पिता ने ऐसा कहा था कि, आचार्य तोषालिपुत्र! क्षणभर के लिए रुक जाओ। मेरा एक अंतिम वरदान लेकर जाओ। मैं पराधीन हो जाऊँ उसके पहले स्वतंत्र प्रजा को स्वतंत्र राजवी के स्वरूप में एक वरदान देना चाहता हूँ। बताओ, माँगो, यदि मुझे अपना स्वामी मानते हो तो। आपकी बरसों की वफादारी का यत्किंचित् तर्पण करने का सुख- संतोष मुझे प्रदान करो आचार्य!"

 

"तब मैंने वचन माँगा था कि भविष्य में जब कलिंग के शासन में कोई समर्थ राजबीज फलित होगा, जो मगध पर हुए इस हमले का बदला ले और मगध के लूटे हुए खजाने को कलिंग में वापिस लेकर आए... ऐसा सामर्थ्य यदि किसी में मुझे या मेरे अनुगामी किसी भी आटविक सूत्रधार को नज़र आए और यदि वह कलिंग के सम्राट से कलिंग के भावि सम्राट का सैन्य योजना बनाने के लिए आटविक्र प्रदेशो में ले जाने का अनुरोध करे तो आप  या आपके अनुगामी राजवंश उसका विरोध नहीं करेंगे।"

 

वृद्धराज को पक्का विश्वास था कि आचार्य की ओर से यही माँग आने वाली है। इसलिए बात को और गोल-गोल घूमा रहे थे। उन्होंने आचार्य का अपमान भी किया था। पर आचार्य उनसे ज्यादा कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने सीधा मुद्दे को ही पकड़ रखा और राजा को कुछ भी कहने का अवसर ही नहीं दिया और आख़िर में जो बात कहने आए थे वह बोल भी दी।

 

"समग्र राजसभा के बीच, कलिंग के महान पूर्वजों की अदृश्य साक्षी में महाराज क्षेमराय की ओर से मिल हुए उस वरदान को आपसे माँगने आया हूँ। कलिंग के उज्जवल भविष्य के लिए कलिंग के मान-सम्मान को पुन: प्रस्थापित करने के लिए, कलिंगजिन को उनके आसन पर पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए महाराज कुमार को मुझे सौंपने की कृपा कीजिए महाराज।”

 

आचार्य की बात पूरी हुई और पूरी राजसभा में सन्नाटा छा गया। राजा वृद्धराय की तलवार की नोक आवेश ही आवेश में धरती को खोदकर एक ऊँगली जितनी धस गई थी। कैसी कश्मकश थी ये! मना भी नहीं कर सकते थे, पर हाँ भी कैसे करे?

 

सेनापति वप्रदेव महाराजा की इस अवस्था को भली-भाँति जानते थे, समझते थे। पर इस समय कुछ भी कहना उचित नहीं लग रहा था। अभी महाराज को ही निर्णय करना था। आचार्य तोषालिपुत्र से अपने महाराज की यह दशा देखी नहीं जा रही थी। पर वे क्या करे? पिछले 25 वर्षों से आटविक प्रजा ने भी बहुत हताशा देखी थी। पिछले कई वर्षों से कलिंग निरंतर असहाय दशा में जी रहा था। इन सब के उत्साह का नेतृत्त्व करने में राजा की लाचारी को गौण किए बिना कोई चारा ही नहीं था। उन्होंने भी राजा की पीड़ा की उपेक्षा की।

 

जब समस्त सभा बहुत ही भारी कश्मकश में थी। आनेवाले क्षणो में सभी ने महाराज वृद्धराय का रौद्र स्वरुप प्रकट होने की कल्पना की थी। उनके चेहरे पर, उनके दिल में उठ रहा आक्रोश स्पष्ट नजर आ रहा था। जब महाराज सिंहासन से खड़े हुए तब सभी के दिल धड़क रहे थे। पर उन्होंने सभी की धारणा से बिलकुल अलग ही प्रतिभाव देते हुए कहा –

 

"पिता महाराज क्षेमराज के वचन से मैं बँधा हुआ हूँ। पर मैं आचार्य तोषालिपुत्र से एक अहोरात्र का समय माँगता हूँ।" इतना कहकर वे खारवेल के सन्मुख गए। ‘खारवेल बप्पदेव के साथ मुझे मिलने आ जाए। मुझे उसके साथ अगत्य की चर्चा करनी है।’ इतना कहकर गौरवपूर्वक चलते हुए महाराज वृद्धराज सिंहासन पीठ से नीचे उतरे। आचार्य तोषालिपुत्र - अवनत भाव से खड़े थे, जब उनके नजदीक से महाराज गुजरे। तब क्षणभर महाराज रुक गए, आचार्य के सामने देखा और बोले -"आचार्य! आप भी जाने से पहले मुझे मिलना।”

 

"जी महाराज!" आचार्य ने नम्र होकर कहा। जब महाराज वहाँ से जाने लगे तब तोषालिपुत्र ने मन ही मन में कहा-

 

"आदरणीय महाराजा! कलिंग के खातिर, कलिंगजिन के खातिर मैं खारवेल को लिए बगैर जानेवाला ही नहीं हूँ। मैं यही हूँ राजन!"


(क्रमशः)

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