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युवा पीढ़ी धर्म से दूर क्यों हो रही हैं?



Yuva Pidhi

"अनंत जन्मों में संचित किए हुए पुण्यों के फलस्वरूप ही हमें ऐसा लोकोत्कृष्ट जिन शासन प्राप्त होता है..."

ऐसी अनेक बातें अनेक बार कहने के बावजूद भी वर्तमान समय में जैन समाज में धर्म के प्रति श्रद्धा की कमी देखी जा रही है।


हम ही थोड़े से हैं और केवल हमारी ही ऐसी स्थिति है, ऐसा नहीं है। जिन धर्मों के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं, उनकी भी यही स्थिति देखने को मिल रही है।


अमेरिका: जहाँ एक समय ख्रिश्चियन धर्म बेहद प्रभावशाली था, वहाँ भी 2019 (कोविड से पहले) से पहले 4,500 चर्च बंद हो चुके थे। जहाँ कभी 92% लोग ख्रिश्चियन थे, आज वहाँ यह संख्या घटकर सिर्फ 64% रह गई है। और उनमें से भी अधिकतर लोग 60 साल से अधिक उम्र के हैं।


ब्रिटेन में 53% लोग नास्तिक हो चुके हैं, और हर दिन वहाँ और भी लोग धर्म छोड़ रहे हैं।

बेल्जियम में पहले 83% लोग ख्रिश्चियन थे, लेकिन अब केवल 53% ही बचे हैं, और उनमें से भी सिर्फ 10% ही चर्च जाते हैं।


जर्मनी में तो हालात और भी खराब हैं—सिर्फ 2021-22 में ही 8,82,159 लोगों ने चर्च की मेंबरशिप छोड़ दी।

ये आँकड़े देखकर ख्रिश्चियन धर्म पर हँसने की कोई ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह सोचने की ज़रूरत है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है!


थोड़ा आईना अपनी तरफ भी करने की ज़रूरत है।


जो कहते है कि धर्म को मौज-मस्ती करके भी किया जा सकता हैं, वैसे धर्म की भी ऐसी हालत हो सकती है। तो जहाँ केवल त्याग, तप, तपस्या और वैराग्य की ही बात होती हो वहाँ क्या स्थिति होगी? जहाँ यह प्रचार किया जाता हो कि मन, वचन और काया को कष्ट देकर ही आत्मा मोक्ष प्राप्त करेगी, ऐसे सिद्धांतों पर आधारित धर्म का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।


अच्छा हुआ कि हमारे देश (या संघों) में ऐसा कोई सर्वे नहीं किया जाता।


इसीलिए ‘शासनप्रभावना’ का काल्पनिक आनंद हम बहुत अच्छे से ले सकते हैं। वरना अगर गहराई में जाएंगे, तो ऐसा लगेगा कि हमारे पैरों तले ज़मीन खिसक रही है और हमें उस भयावह सच्चाई का एहसास होगा, जिसे हम देखना भी नहीं चाहते।


आज का युवा आपसे रूढ़िवादी बातें सुनने की अपेक्षा नहीं रखता। वह केवल श्रद्धालु बनने नहीं आता, बल्कि उसे प्रैक्टिकल धर्म की समझ चाहिए। वह यह जानना चाहता है कि अपने जीवन और इस संसार को सरल कैसे बनाया जाए और स्ट्रेस फ्री कैसे जिया जाए। वह मार्गदर्शन लेने आता है, लेकिन जब हमारे उत्तर अधूरे साबित होते हैं, तब वे युवा धर्म से विमुख होते जाते हैं।


अधूरे उत्तरों के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि हम बदलाव की हवा को पहचानने में बहुत अधिक समय लगा देते हैं। जब पानी सिर (कम से कम गले तक हो तो भी समझ सकते है ) तक आ जाता है, तभी हमारी आँखें खुलती हैं।

हम बदलाव तो करते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हमने अपनी सुविधा, पसंद और स्वीकृति के अनुसार कई परिवर्तन किए हैं, लेकिन समय की माँग को समझने में अक्सर असफल रहे हैं।


जैसे की –

·      जिनवाणी को पहले "देशना" जैसे शब्दों से सम्मानित किया जाता था, लेकिन समय के साथ इसे व्याख्यान, वाचना, जाहिर प्रवचन, शिबिर, वाचन श्रेणी, सेशन, कैंप, क्लास जैसे शब्दों से पुकारा जाने लगा। जब सभाएँ खाली रहने लगीं, तो नए-नए शब्द खोजे गए।


·      आयंबिल के भोजन में अब इडली, डोसा, ढोकला जैसी अनेक प्रकार की आइटम्स बनाई जाने लगीं।


·      एक सिंगल पेज की आमंत्रण पत्रिका की जगह अब 100-100 पन्नों की पत्रिकाएँ छपवाई जाने लगीं।


·      चूरमा के लड्डू, फूलवड़ी, दाल-चावल जैसे साधारण मेनू की जगह अब हाई-फाई मेनू तैयार होने लगे।


·      भावना, भक्ति, सिम्फनी और कॉन्सर्ट जैसे संगीत कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को आकर्षित करने का प्रयास होने लगा।


·      केवल प्राचीन शास्त्रीय रागों में ही रचनाओं की बाध्यता छोड़कर, 400 वर्ष पहले महापुरषों द्वारा रास, ढाल, पूजाओं की रचनाएँ हवेली संगीत तथा लोकगीतों की तर्ज पर बनाई जाने लगीं।


·      शुद्ध संस्कृत-प्राकृत नहीं, बल्कि शुद्ध हिंदी-गुजराती भाषा में प्रवचन सुनने की रुचि घटती जा रही है, इसलिए अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों का भरपूर प्रयोग किया जाने लगा।


ऐसी तो कितनी ही बातें हैं। परिवर्तन हुए हैं, लेकिन परिवर्तन को स्वीकारने के लिए या तो झुकना पड़ा है या फिर संघर्ष करना पड़ा है, और वह परिवर्तन भी बहुत देर से हुआ है। इसलिए, यदि वास्तव में प्रभु के शासन की चिंता है, तो शासन के हित में परिवर्तन अत्यंत शीघ्रता से करने चाहिए।


·       जैन भूगोल तथा जीवविज्ञान आदि विषयों में Science और Physics का उपहास उड़ाने के बजाय अनुसंधान और शोध प्रकाशित करने चाहिए।


·       देव, गुरु और धर्म में श्रद्धा रखने वाला ही जैन हो सकता है। व्रत, नियम और पच्चक्खाण न अपनाने वाला भी जैन हो सकता है। इस बात को अत्यंत गंभीरता से समझने की आवश्यकता है।


·       वर्तमान समय की Technology का विवेकपूर्ण उपयोग कर युवाओं तक पहुँचने का योजनाबद्ध प्रयास किया जाना चाहिए।


·       केवल आचार, क्रिया और आराधना तक ही सीमित न रहते हुए, उनके जीवनोपयोगी उपदेशों एवं आयोजनों की भी व्यवस्था होनी चाहिए।


·       नए परिवर्तनों का विरोध करने वाली पुरानी मानसिकता से बाहर निकलकर विचारों की व्यापकता को अपनाना आवश्यक है।


सुज्ञजनों को विशेष रूप से क्या कहना...?


सभी शासनप्रेमियों द्वारा पंचम आरा के अंत तक शासन को ज्वलंत एवं विजयवंत बनाए रखने के लिए संकल्पपूर्वक पुरुषार्थ शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए, जिससे शासन को अपार लाभ हो और संपूर्ण विश्व में जिनशासन का जयघोष निश्चित ही गूंजे!

1 Comment


Pragnesh Shah
Mar 02

Thank you for sharing

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