
फर्क मौन और खामोशी का...
संतासिंह: अरे दोस्त, तू मुझे मिला और उससे पहले मुझे बहुत सिर दर्द हो रहा था। लेकिन पता नहीं तेरे साथ बातें करते-करते वो सिर दर्द कहां गायब हो गया।
बन्टासिंह: कहीं गायब नहीं हुआ, वो मेरे सिर में आ गया।
प्रभु महावीर केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रतिदिन तीन-तीन घंटे दो बार देशना देते थे। उनकी देशना सुनने के लिए करोड़ों लोग आते थे और प्रभु की वाणी का आनंद लेते थे।
श्री गौतम स्वामी जैसे पुण्यात्मा प्रभु को समर्पित हुए, और इसमें प्रभु के मधुर स्वागत का बहुत बड़ा योगदान रहा।
प्रभु ने हमें झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा दी है, लेकिन यह नहीं कहा कि हर परिस्थिति में सच ही बोलना चाहिए।
आज के समय में कुछ लोग कहते हैं, "मैं तो जो सच है, वही कहूंगा। सच बोलने में कोई पाप नहीं है। सामने वाले को बुरा लगता है, तो मैं क्या करूं? सच तो हमेशा कड़वा होता है, लेकिन मैं हमेशा सच ही बोलता हूं।"
लेकिन भगवान महावीर कहते हैं कि ऐसा कड़वा सच बोलना, जिससे किसी को ठेस पहुंचे, वह भी कर्मबंध का कारण बनता है।
सच बोलें, लेकिन साथ ही प्रिय बोलें। ऐसा सच, जो अप्रिय हो, उसे बोलने से बचना चाहिए।
सत्यम् ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
यदि द्रौपदी ने यह न कहा होता कि "अंधे का पुत्र अंधा होता है," तो शायद महाभारत का निर्माण नहीं होता।
रामायण हो या महाभारत, अगर गहराई से विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि इन महायुद्धों की जड़ में कहीं न कहीं वाणी का ही दोष था।
शास्त्रों में वाणी को अग्नि की उपमा दी गई है। अग्नि के दो कार्य होते हैं:
(1) जलाना और (2) उजाला करना।
नकारात्मक व्यक्ति हमेशा अग्नि को केवल जलाने वाला ही मानते हैं, लेकिन सकारात्मक सोच रखने वाले अग्नि को जलाने वाले के साथ-साथ उजाला करने वाले रूप में भी देखते हैं।
अरिहंत की वाणी, गुरु की वाणी, और माता-पिता के आशीर्वाद जैसी वाणी का कार्य उजाला करना होता है। वहीं, निंदा के शब्द, आक्रोश भरे शब्द, अहंकार भरे शब्द, तिरस्कार भरे शब्द, और अपशब्द (गालियां) जैसी वाणी जलाने का कार्य करती है।
मौन यह प्राणातिपात विरमण और मृषावाद विरमण व्रतपालन का साधन भी बनता है। मौन से जीवदया और जीभदया दोनों होती है।
मौन से किसी के मन या भावना को आहत करने से बचता है। कायिक ही नहीं बल्कि मानसिक, वाचिक अहिंसा का भी पालन होता है। इसलिए ही कटुवचन बोलने के बजाएं मौन रहना बेहतर माना गया है। मौन से ही समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण बन सकता है।
मौन केवल शब्दों का अभाव नहीं है, ध्वनि की अनुपस्थिति नहीं है, खामोशी नहीं है, यह विचारों और संवेदनाओं का गहनतम स्वरूप है। यह एक साधना है। विज्ञान है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाहरी शोर-शराबे से परे जाकर, बाहरी दुनिया से ध्यान हटाकर भीतर की ओर केंद्रित करता है। आत्मा और मन के बीच गहन संवाद करता है। मौन हमें सतही प्रतिक्रियाओं से हटाकर अंतर्दृष्टि और विवेक की ओर ले जाता है।
हम स्वयं शांत होकर बोलने से विराम ले वह मौन है, कोई हमारी बोलती बंद कर दे वह चुप्पी है, और जब हम कुछ बोल नहीं पा रहे हैं वह खामोशी है।
मौन आत्मा को बाहरी विकर्षणों (distractions) से मुक्त करता है और व्यक्ति को ध्यान की गहन स्थिति में प्रवेश करने में मदद करता है। ध्यान की प्रत्येक प्रक्रिया मौन से जुड़ी होती है। यह मौन ही है, जो व्यक्ति को आत्मा के उच्चतम स्तर तक पहुँचने में सहायता करता है। शून्यता की स्थिति उत्पन्न करता है। मौन अनंत है। मौन प्रभावी है।
भगवान महावीर ने भी साढ़े बारह वर्षों की साधना में अधिकांश समय मौन ही रखा। प्रभु तो चार ज्ञान के धारक थे, फिर भी उन्होंने मौन का पालन किया। ध्यान में मौन का उद्देश्य कर्मों को जलाना और आत्मा की शुद्ध अवस्था में लौटना है। क्योंकि मौन एक तप का प्रकार है।
मौन का पालन केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि आत्मा को उसके शाश्वत सत्य से जोड़ने की प्रक्रिया है। मौन ही ऊर्जा का सबसे गहन स्रोत है।
बाहरी मौन के साथ-साथ अंतर मौन का भी महत्व है। यह वह अवस्था है, जब व्यक्ति विचारों के कोलाहल से मुक्त होकर पूर्णतः शांत होता है। नए कर्मों का संग्रह आत्मा में नहीं होता है।
मौन वह दर्पण है, जो हमें हमारे भीतर की गहराई दिखाता है। मौन ही आत्म-अवलोकन (self-reflection) और आत्म-निरीक्षण (self-introspection) का साधन है। मौन आत्मा का सबसे गहरा संगीत है। मानसिक तनाव कम करता है।
मौन धारण करना केवल चुप रहना नहीं है, बल्कि आत्मा को सुनने का अवसर देना है। जहाँ शब्द थम जाते हैं, वहाँ मौन अपनी भाषा में बोलता है।
जब पानी शांत होता है, तो उसमें परावर्तन स्पष्ट दिखाई देता है। इसी प्रकार, मौन आत्मा को शांत करता है, जिससे सत्य, तत्त्व और ज्ञान का स्पष्ट अनुभव होता है।
कला हो या भक्ति हो या प्रकृति मौन के बिना अधूरी है। एक पंक्ति के बीच का विराम, एक चित्र में खाली जगह, या संगीत के स्वरों के बीच का ठहराव, एक घने जंगल का मौन, समुद्र की लहरों के बीच के अंतराल, या एक पहाड़ की चोटी पर पाया जाने वाला सन्नाटा—ये सभी मौन के रूप हैं। ये मौन ही हैं जो रचनात्मकता को अर्थ और दर्शक को अनुभूति देते हैं। सोच को अधिक व्यापक बनाने वाली रचनात्मक विश्रांति की अवस्था मौन उत्पन्न करता है।
जीभ तो जन्म से ही मिल जाती है, लेकिन उस जीभ से कैसे बोलना चाहिए, यह सीखने में पूरी जिंदगी बीत जाती है। इसी कारण भगवान महावीर ने श्री दशवैकालिक नामक आगम ग्रंथ के पाँचवे अध्ययन - वाक्य अध्ययन में यह बताया है कि बोलना कैसे चाहिए।
बोलने से मार्केटिंग होती है, सामान बिकता है, यह बात सही है, लेकिन बोलते-बोलते सब कुछ बिक जाए, यह भी उतना ही सच है। इसीलिए कहा गया है: मौनम् सर्वार्थसाधनम्। मौन कभी 'हाँ' का संकेत करता है और कभी-कभी 'ना' का भी। मौन के द्वारा सब कुछ संभव है।
यदि बोलना सोने के समान है, तो मौन रहना हीरे के बराबर है। इसीलिए जितनी कहावतें बोलने की महिमा बताती हैं, उससे कहीं अधिक ग्रंथ मौन रहने के फायदों को समझाते हैं।
मुनि की परिभाषा में कहा गया है कि जो मौन रहता है, वही मुनि है। शायद मुनि आपको बोलते हुए दिखाई दें, फिर भी वे मौन होते हैं क्योंकि उनका बोलना स्वयं मौन की ओर एक यात्रा है, और उन्हें सुनने वाला व्यक्ति भी धीरे-धीरे मौन हो जाता है।
कुछ लोगों को लगता है कि चुपचाप बैठना कितना उबाऊ होता है। बात करने में ही असली मज़ा आता है।
मौन यह दुःख नहीं अपितु परम सुख है क्योंकि आत्मा में परम सुख के अनुभव करने वाले सिद्धात्मा शाश्वत काल के लिए मौन है । मौनी ऐसे सिद्ध भगवन्त सदा आनंदी है। दुखी नहीं है। भरपूर आनंद का अनुभव कर रहे हैं।
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"स्वार्थ या सुख के लिए बोलना कर्मबंधन,
शासन रक्षा और स्वहित में मौन रहना भी कर्मबंधन।"
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