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केस रामायण-महाभारत का




केस रामायण-महाभारत का

छगन वकील को मगन ने पूछा, “रामायण-महाभारत के बारे में क्या जानते हो?”

छगन: “महाभारत में लैंड डिस्प्यूट का मामला था, सिविल केस था। रामायण में किडनैपिंग का केस था, फौजदारी का केस था। उसमें युद्ध हुआ और इतने सारे लोग मारे गए यह समझ में नहीं आया।”


पांडवों को आधा राज्य चाहिए था, और दुर्योधन सुई के नोक के जितनी भी जमीन देने को तैयार नहीं था। इसलिए यह केस हुआ जमीन के मामले का, इसलिए यह सिविल केस है।


रावण सीता को उठा ले गया, अपहरण किया। इसलिए यह किस्सा किडनैपिंग का है, इसलिए यह फौजदारी के दावे में आता है।


इसीलिए हकीकत में तो दोनों मामलों में कोर्ट में केस करना चाहिए था, वकील बुलाने चाहिए थे, जज के फैसले की राह देखनी चाहिए थी। उसमें जितनी मुद्दत मिले और केस लंबा होता जाए, वकीलों को उतनी तगड़ी फी मिलती। इसलिए इन दोनों किस्सो में तो वकीलों को घी-मलाई ही दिखेगी।


ऐसे केस में वकील को लगाकर केस लड़ने के बजाय युद्ध करने की बात वकील को नहीं समझ आएगी। यह हमारी समझ में आने वाली बात है। वैसे भी कहते हैं कि, हर एक दृष्टांत-प्रसंग इसीलिए कहे जाते हैं ताकि उनमें से हम अपने योग्य सार को ग्रहण कर सकें। इसीलिए वकील ने रामायण और महाभारत में से अपने लाभ का सार ढूंढ निकाला।


ज्ञानी लोग तो कहेंगे, जिस तरह रावण को परस्त्री के हरण से मौत और बेइज्जती मिली, उसी प्रकार पुद्गलरूप पर-पदार्थ मात्र को अपना बना लेने के प्रयास से जीव को आखिर में अपयश और दुर्गति ही मिलती है। ज्ञानी के अनुसार पर को अपना बनाने की भूल का परिणाम रामायण है।


जो कभी किसी का नहीं हुआ, और अंत में जिसे छोड़कर ही जाना है, उसके लिए लड़ने से लड़ने वालों को आखिर में तो मात्र सब कुछ गवांने का शोक मनाने का ही अवसर आता है। छोड़ देने के स्थान पर खुद का बनाने के लिए की जद्दोजहद महाभारत है। जो छोड़ता है, उसे कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, और जो पकड़ कर रखता है, उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता है।

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