
"आर्य महागिरीजी की अंतिम अवस्था का क्या वर्णन है।” आर्य वसुमित्रने आर्य सुस्थितसूरिजी को पूछा।
"स्वनामधन्य, देवों के भी पूज्य, उत्सर्ग मार्ग पर चलनेवाले महात्मा आर्य महागिरीजी और हमारे गुरुदेव, संघ के सूत्रधार, सर्व जीवमात्र हितैषी आर्य सुहस्तिसूरिजी कई बार जीवित स्वामीजी की प्रतिमा को वंदन करने के लिए मालवदेश में पधारते थे।”
"जीवितस्वामी की प्रतिमा? ऐसा नाम क्यों?" एक नूतन मुनिवर ने प्रश्न किया। उसके प्रत्युत्तर में सुस्थितसूरिजी ने आर्य सुप्रतिबद्ध सूरिजी के सामने देखा और स्मितवदन से आर्य सुप्रतिबद्ध सूरिजी ने कहा-
"जीवितस्वामी जी की कथा बहुत लंबी है। इसकी शुरुआत कुमारनंदी सोनी से होती है।”
"कुमारनंदी कामांध था और उसने अपना विशाल अंतःपुर बनवाया हुआ था। अंतःपुर में वह बहुत सारा समय अपनी स्त्रियों के साथ अलग अलग क्रीडाओं और कामकेलिओ में निरंतर मग्न रहता था। दिन बीतते गए, रातें बीतती गयी, महिने बीत गए, पर उसकी कामचेष्टाओं, उसकी कामातुरता का अंत नहीं आता था। उसकी कामाग्नि अनंत था।"
“हासा और प्रहासा नाम की दो देवियाँ थी। उनका मालिक देव मर गया था और उसका स्थान खाली पड़ा हुआ था। इसलिए वे दोनों देवियाँ भोगसुख के भागीदार की तलाश में निकली थी। समस्त मनुष्यलोक में भ्रमण करते-करते ये दोनों देवियाँ चंपानगरी में आयी और वहाँ उनकी नजर में कुमारनंदी सोनी बस गया। कामी को कामी का साथ रुचता है। हासा-प्रहासा ने देखा कि, रतिसागर में अवगाढ़ रहनेवाला, निरंतर खेलने वाला, रमणिक ऐसा यह पुरुष यदि हमारा स्वामी बन जाए तो कितना मजा आएगा? ज़िंदगी का अनमोल सुख यह पुरुष हमे निरंतर देगा।"
"रात को कुमारनंदी सोया था। दोनों देवियाँ उसे कामरमण उद्यान में उठाकर ले गई। वहाँ उसकी निद्रा खुल गई। रात को अद्भूत प्रकाश और चमकती कांतिवाली दोनों देवियों को कुमारनंदी ने अपने सामने देखा। उनका रूप- लावण्य मानुषियों से तो अधिक होगा ही। उसमें भी दोनों की कामातुरता पराकाष्ठा की थी। उनकी कामुक अंगभंगिमाओं ने कुमारनंदी के मन में कामविह्वलता को पैदा कर दिया और देवियों को पकड़ने के लिए वह भागा, तब देवियों ने कहा- ‘देव बनकर हमारे पास आओ। हम तुम्हारी राह देखते हैं।’ फिर तो कामी कुमारनंदी को अपनी 500 स्त्रियाँ तुच्छ लगने लगी। उनके शरीर मे मल-मूत्र, थूँक और कफ दिखाई देने लगा और उसे उन स्त्रियों से विरक्ति हो गई।”
"उसने हासा-प्रहासा के पास पहुँचने के लिए मरणांत कष्टों को सहन किया। वह मृत्यु की जंग खेलकर समुद्र के उस पार हासा-प्रहासा के पास पहुँच ही गया। पर देवियों ने कहा- "इस शरीर से देवियों के साथ भोग नहीं कर सकता। तू निदान करके मृत्यु का वरण कर फिर पूरी जिंदगी तुझे हमारे साथ भोग-भोगने को मिलेगा।"
देवियों ने उसे पुनः चंपानगरी में छोड़ दिया और कामातुर कुमारनंदी नगरी के बीच में हासा-प्रहासा को मन में रखकर आग में कूदकर जल मरा। भीतर जल रही कामाग्नि की ज्वालाओं के सामने बाहर की अग्नि की ज्वाला उसे किसी बिसात में नहीं लगी।"
"वह मरकर विद्युन्माली नाम का देव बना। उसे हासा-प्रहासा मिल गई। उनके साथ दैवी भोगसुख में दिन क्षणों की तरह गुजरते चले गए।"
"एक बार एक नगाड़ा कहीं से उड़ता-उड़ता आया और उसके गले में लटक गया। उसने मुश्किल से उसे अलग किया और वह फिर से उससे चिपक गया। हासा-प्रहासा हँसकर कहने लगी- चलो, इसको गले में ही रहने दो। इन्द्रदेव यात्रा करने जाने वाले होंगे। हमें भी यह नगाड़ा बजाना है। चलो, हम भी जाते हैं।"
"देवों की अपार पर्षदा में विद्युन्माली अपनी दोनों पत्नियों के साथ वहाँ पहुँचा। वहाँ महर्द्धिक देवों की ऋद्धि-समृद्धि, उनके रूप-तेज, उनका वैभव-विलास और उनकी उत्कृष्ट देवियाँ और अप्सराओं को देखते ही उसका मन हासा-प्रहासा पर से उठ गया। उतने में एक दूसरा देव उसके बाजू में आकर खड़ा हो गया। उसने अपना परिचय दिया। वह विद्युन्माली के पूर्वभव का-कुमारनंदी के भव का मित्र था। उसका नाम दृढ़धर्मा था। उसकी ऋद्धि और उसके देवी-अप्सराओं के परिवार को देखते ही विद्युन्माली शर्मिंदा हो गया। खुद ठग लिया गया है-ऐसी भावना उसके मन में आई।"
"अब उसे हासा-प्रहासा और अपना सभी वैभव तुच्छ लगने लगा। तब उसके मित्र ने उसे समझाया कि विद्युन्माली! धर्म आराधना कर। भगवान की भक्ति कर, धर्म कल्पवृक्ष है। उसके पास से जितना माँगो, उतना अवश्य ही मिलता है। दूसरी तरफ, उसके पास कुछ भी नही माँगो तो भी यह समग्र और सर्वश्रेष्ठ देता है। इसलिए धर्म तो कल्पवृक्ष से भी सर्वोच्च और महान है।”
"दृढ़धर्मा की बातें मौके (समय पर) की थी। विद्युन्माली के मन में धर्म करने की इच्छा जागृत हो गई। अब यह सारे कामभोग उसे फ़ालतू और व्यर्थ लगने लगे और पहले जैसी तीव्रता से और जितने जूनून से काम भोग को भोगने के पीछे लगा रहता था, उतनी ही तीव्रता और जूनून से अब वह धर्म करने के लिए लग गया।”
"देवलोक में "भगवान की भक्ति" यही एक धर्म है। विद्युन्माली सर्व प्रथम प्रभु महावीर को वंदना करने गया। उनके समक्ष वह तो दोनों हाथ जोड़कर बैठ गया। एकटुक उनको निहारता रहा। भगवान के पावनदेह की बारीक से बारीक रेखाओं को उसने आँखों में समा लिया। पहले नारियों के अंगोपांग की रेखाओं में घूमती हुई उसकी आँखें कामविकार की वृद्धि करती थी, पर अब प्रभुकी देहदृष्टि की रेखाओ में विहरती हुई उसकी आँखें भक्ति से भीनी-भीनी होने लगी। कामाग्नि से जल-भून गई हृदय की धरा पर प्रभु के तेज की धारा बहते ही वह हृदयभूमि शांत और शीतल बन गई। उसे जीवन का सत्य, सत्त्व, तत्त्व प्राप्त हो गया। उसने धन्यातिधन्यता का अनुभव किया।"
"फिर उसने गहावीर प्रभु की एक सुरम्य और सुरेख प्रतिमा बनायी। वह प्रतिमा ऐसी लग रही थी, कि जैसे साक्षात् प्रभु महावीर जीवंत बैठे हों... इसलिए वह प्रतिमा 'जीवित स्वामी' के नाम से पहचानी गई।”
इतना कहकर आर्य सुप्रतिबद्ध सूरिजी रुक गए। समग्र प्रतिश्रय में नितान्त नीरव मौन छाया हुआ था। सभी मुनि एकतान और एककान होकर ये सारी बातें सुन रहे थे। संवेग और वैराग्य की ऐसी कथाएँ आर्य सुस्थितसूरिजी और आर्य सुप्रतिबद्ध सूरिजी अपने श्रमण परिवार में कई-बार करते रहते थे। उसके द्वारा श्रमणों का मानसिक विकास और प्रबलता से होता था।
"फिर उस प्रतिमा का क्या हुआ गुरुदेव?" दूसरे एक छोटी उम्र के मुनिवर ने गुरुदेव को प्रश्न किया इस बार आर्य सुस्थितसूरिजी बोले- "विद्युन्माली देव ने जीवितस्वामी की मन भरकर भक्ति करी। उसे हासा-प्रहासा में अब कोई रस ही नहीं रहा था। तन-मन-धन से वह जीवितस्वामी की भक्त्ति में डूब गया। प्रभु के साथ उसकी लगन लग गई थी। उसकी आत्मा भगवान की भक्ति करते-करते बहुत ऊँची हो गई। उसने एक स्तर लांघ लिया, जहाँ से वह वापस नहीं आ सकता था। उसको बहुत ही पश्चाताप हो रहा था कि, इतने वर्ष उसने बाह्य सुख ढूँढने में गँवा दिए पर सुख तो भीतर ही था, वहाँ नहीं खोजा। जब वह काम-पीड़ित दशा में जीता था, तब उसके अपने अंदर जो तृष्णा थी, अतृप्ति थी, एषणा थी, ऊधम थे और संक्लेश था, उन सभी का शमन होने लगा। उसे पता चल गया था कि वास्तविक सुख तो यही है।
"आयु चाहे कितनी भी लंबी हो। कभी ना कभी तो उसका अंत होता ही है और मौत गले लगती ही है। विद्युन्माली का बहुत ही लंबा आयुष्य भी समाप्त होने आया। उसे निश्चिंतता थी। मौत का भय नहीं था, पर चिंता थी जीवितस्वामी की। इस प्रतिमा का क्या करना है? ऐसा उसके मन में प्रश्न था।”
"आखिर में वह मनुष्यलोक में ढूँढ़ने को निकला। हासा-प्रहासा जिस तरह कामुक मनुष्य को खोजने निकली थी, वैसे ही यह विद्युन्माली किसी धार्मिक जीव को ढूँढने के लिए धरती पर आया और उसकी नजर सिंध प्रदेश में पड़ी। जो धरती एक तरफ से समुद्र से और एक तरफ से रणप्रदेशों से घिरी हुई है। विद्युन्माली ने चमत्कारिकता से सिंधु सौवीर देश के राजा उदयन के पास जीवितस्वामी की प्रतिमा को पहुँचा दिया। राजा उदयन और रानी प्रभावती इन भगवान के परम भक्त बन गए।
"रानी की एक दासी थी। वह कुब्जा थी। वह इन भगवान की भक्ति के प्रभाव से एक सिद्धयोगी की कृपा को पाकर स्वर्णवर्णी बन गई थी। उसे सिद्धयोगी ने इच्छित वरप्राप्ति का वरदान दिया था। उसके प्रभाव से उसने इच्छा की कि, मुझे सर्वसमर्थ मालवप्रदेश के महाराजा चंडप्रद्योत स्वामी के रूप में प्राप्त हो जाये।
"उसके वरदान के प्रभाव से चंडप्रद्योत दरिया पार करके सिंधुप्रदेश में आया। स्वर्णगुलिका का अपहरण कर लिया और स्वर्णगुलिका अपने साथ असली जीवितस्वामी को ले गई। उसके स्थान पर हुबहू जीवितस्वामी के बड़े प्रतिबिंब को रख दिया। दूसरे दिन प्रतिमा पर चढ़ाये हुए फूल मुरझा गए। इससे पता चल गया कि यह प्रतिमा बदल गई है।
"उदयन ने रणप्रदेश को पार करके चंडप्रधोत पर चढ़ाई कर दी और उसमें चंडप्रद्योत को भारी शिकस्त दी। चंडप्रद्योत के जैसे समर्थ राजा को उदयन ने पिंजरे में डाल दिया और कैद करके मालवप्रदेश के उज्जैन नगर से सीधे सिंधु सौवीर के वीतभयनगर की और घसीटकर ले चला। उसमें भी जब जीवितस्वामी की प्रतिमा को उदयन ने अपने साथ सिंधु सौवीर में वापस ले जाने का प्रयत्न किया, तब अधिष्ठायक देव ने कहा- वीतभयनगर का भावि भयानक है, इसलिए प्रतिमा भले ही यहाँ पर ही रहे। बस, उसी दिन से वह जीवितस्वामी की प्रतिमा मालव देश में विदिशा नगरी में स्थापित करके और चंडप्रद्योत को अपना साधर्मिक समझ कर उसे कैद में से मुक्त करके राजा उदयन वीतभयनगर की ओर चला गया।"
"चंडप्रद्योत की नई रानी स्वर्णगुलिका जीवितस्वामी की उपासिका थी। इसी तरह से राजा चंडप्रद्योत भी ऐसा समझ पाया कि, उसे इस उदयन के मृत्यु के मुख समान पंजे में से बचाव, यह जीवितस्वामी का प्रताप ही है। इसीलिए वह भी भगवान का भक्त बन गया। भ्राजिल श्रावक विशेष रूप से इस जीवितस्वामी के दर्शन के लिए पधारे थे। उनके नाम से विदिशा के पास चंडप्रद्योत ने भ्राजिल शहर बँधवाया। उस तीर्थ की व्यवस्था के लिए चंडप्रधोत ने बारह हजार गाँव दे दिए। इस तीर्थ में जीवितस्वामी की प्रतिमा का वरघोड़ा उज्जैन में भी घूमाया जाता था। इस प्रतिमा के दर्शन करने के लिए आर्य सुहस्तिसूरि और आर्य महागिरीजी कई बार आते रहते थे।
"पाटलीपुत्र में वसुभूति सेठ के द्वारा जो अयतना की गई थी। उसके द्वारा आर्य महागिरीजी दुःखी हो गए थे। पुनः आर्य सुप्रतिबद्धसूरिजी ने बात का अनुसंधान किया। उसके पूर्व भी गुरुदेव सुहस्तिसूरिजी के उदार रवैये के कारण आर्यमहागिरीजी और उनके शिष्य वर्तुल में थोड़ा-सा असंतोष फैला हुआ नजर आता था। उनका मानना था कि संयम चुस्त आचारों के साथ पालना चाहिए, तो ही मनुष्य जीवन संभलेगा, वर्ना तो भविष्य में बहुत सारे दूषण भर जाएँगे। फिर मात्र नाम का ही संयम रह जाएगा और अंदर माल तो कुछ और ही भरा होगा..."
"मुनियों! गुरुदेव साधु की संख्या की वृद्धि के विषय में निरंतर चिंतित रहते थे। जब कि पूज्य महागिरीजी साधु के स्तर की वृद्धि के विषय में रात-दिन चिंतित रहते थे। वे कई बार कहते थे कि, प्रभु महावीर कहकर गए हैं कि आनेवाले दिनों में साधुचर्या में बहुत ही शिथिलता आने वाली है। इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए और उसी अनुसार वे स्वयं अत्यंत उत्सर्ग मार्ग पर जिनकल्पी के जैसा जीवन जीते थे। अपने शिष्यों को भी ‘ऐसा ही जीवन जीए’ ऐसा आग्रह रखते थे। इसलिए उनके शिष्य अल्प ही हुए। पर उनको इसकी चिंता नहीं थी। जंगल में सिंह के कभी-भी झुंड नहीं होते है ना!”
"वसुभूति श्रेष्ठी के प्रसंग के बाद ऐसी छोटी-मोटी अन्य भी कई सारी घटनायें घटी और आर्य महागिरीजी ने अनशन करने का निश्चय किया।
"अनशन?" छोटे मुनिभगवंत ने चौंककर कहा।
"हाँ मुनिराज ! उसमें इतना आश्चर्य क्या है ? काया का कस निकल जाए, काया साधना के लिए समर्थ नहीं हो, तब सर्वसंवर रूप अनशन करना, यही साधक के लिए उपादेय है। उसमें आश्चर्य कैसा?"
"क्षमा गुरुदेव! बालमुनि ने कहा। उनके चेहरे पर जिज्ञासा और साथ में भरपूर भावुकता भी दिखाई दे रही थी। उनका संवेदनशील वदन एकबार तो अच्छे-अच्छे साधक को भी वात्सल्य करने के लिए विवश कर दे वैसा था। इसीलिए आर्य सुस्थितसूरिजी और आर्य सुप्रतिबद्धसूरिजी को उन्होंने साथ में लिया था। कलिंगयात्रा के दरमियान उनका बहुत काम पड़नेवाला था।
"मेरा भाव यह था कि समस्त संघ के नायक महागिरी पूज्य ने अनशन क्यों स्वीकारा? उनके बाद फिर संघ का नायक कौन?”
"उन्होंने विधिपूर्वक गुरुदेव आर्यसुहस्तिसूरिजी को श्रमण संघ का नेता घोषित किया और अनशन का निर्णय किया। परंतु महागिरीजी के साक्षात् शिष्यों, जो तीव्र उत्सर्गप्रधान जीवन जीते थे, उन्होंने इसके पूर्व ही अपने गुरुदेव आर्य महागिरीजी की अनुज्ञा लेकर कलिंग में कुमारगिरी और कुमारीगिरी तीर्थ पर जाकर साधना करने का निश्चय कर लिया था। गुरुदेव ऐसा चाहते थे कि सभी श्रमण कुछ और समय साथ में बिताये, साथ में रहे, पर गुरुदेव की इच्छा मन में ही रह गई।”
"कोई भेद नहीं था, विरोध नहीं था। सभी के मन मिले हुए थे। साधना करने के लिए तो सभी निकल पड़े थे। पर रास्ते अलग-अलग थे। एक रास्ता अत्यंत उग्र-कठिन था। सीधा पहाड़ी चढ़ाव के जैसा। छाती पर आ जाए वैसा। दूसरा रास्ता गोल-गोल घाट के जैसा रास्ता था। प्रमाण में सरल और अल्प कष्टवाला। लक्ष्य तो सभी का एक ही था। मन को पूनम के चंद्र के जैसा तेजस्वी बनाना। आत्मा की प्राप्ति करना और परमात्मा बनना।"
"जीवितस्वामी की प्रतिमा को वंदन करके आर्य महागिरीजी दशार्णदेश की ओर चल पड़े। गुरुदेव और उनका शिष्य परिवार, हम सभी तब आर्य के साथ चल पड़े। तो इस तरफ महागिरीजी का शिष्य परिवार आर्य उत्तर और आर्य बलिस्सह आदि भी महागिरीजी के साथ-साथ दशार्णकूट की ओर चले। यह दशार्णकूट जिसे गजाग्रपद तीर्थ भी कहा जाता है, वहाँ पर महागिरीजी आर्य ने अनशन का स्वीकार किया।"
"आर्य! इस दशार्णकूट पर्वत और गजाग्रपद तीर्थ, एसे दो नामों के पीछे कौन-सा इतिहास है?" एक कुमार आयु के मुनिभगवंत ने प्रश्न किया।”
"भगवान महावीर के काल की यह कथा है। परापूर्व से चले आ रहे ऐसे प्राचीन दशार्ण देश में प्रभु विहरमान थे। देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान की देशना का अवसर था। राजा दशार्णभद्र ने अपनी समस्त राजऋद्धि को प्रदर्शित करके प्रभु का भव्य सामैया किया।"
“सौधर्मेन्द्र ने राजा के मनोगत भावों को जाना तो उनको ज्ञात हुआ कि राजा दशार्णभद्र के मन में प्रभु की भक्तिभाव से अपने वैभव के प्रदर्शन का अहंकार का भाव अधिक है। इसलिए उन्होंने निर्णय किया और देवलोक से दिव्य हस्ती-ऐरावत गजराज के साथ पधारे।"
"दूर से विशालकाय हाथी आते हुए दिखाई दिया। वह जैसे-जैसे नजदीक आता गया, वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट होता गया। उस हाथी के ऊपर विशाल रूपधारी महाराज सौधर्मेन्द्र बैठे हुए दिखाई दिए और उस हाथी के आठ दाँत दिखाई दिए। उस दाँत पर कुछ दिखाई दे रहा था। पर वह क्या? यह स्पष्ट नहीं हो रहा था।“
"जब हाथी और नजदीक आया, तब उन आठ दाँत पर सात बावड़ियाँ दिखाई दी। उन बावड़ियों में भी कुछ है, ऐसा लग रहा था।"
जब हाथी अधिक नजदीक आया, तब उन बावड़ियों में सात पूर्ण विकसित कमल दिखाई दिए। उन कमलों में भी कुछ था।"
"जब और अधिक नजदीक आया, तब उन कमलों पर बत्तीस प्रकार के उत्तमोत्तम नृत्य अभिनय करते हुए गांधर्व और अप्सराएँ दिखाई दिए।”
"इस हाथी पर देवता फूलों की बारिश बरसा रहे थे। दशार्णकूट पर्वत पर प्रभु समवसरित थे। हाथी ने उस कूट को तीन बार प्रदक्षिणा की। जैसे कि एक पर्वत दूसरे पर्वत को प्रदक्षिणा दे रहा हो, वैसा लग रहा था। फिर सौधर्मेन्द्र ने ऐरावत हाथी को पर्वत पर नीचे उतारा। उस हाथी के आगे के दो पैर ही पर्वत की धरा को स्पर्शित थे और उसमें खड्डा पड़ गया। तब से वह तीर्थ गजाग्रपद तीर्थ के नाम से प्रचलित हो गया।"
"राजा दशार्णभद्र का तमाम अभिमान उतर गया। उसने अपने हाथी पर से उतरकर पंचमुष्टि लोच कर दिया। राज्य छोड़कर प्रभु महावीर के चरणों में जाकर महाभिनिष्क्रमण को स्वीकार किया। तब सौधर्मेन्द्र भी वहाँ उपस्थित हुए और बोले- "राजर्षि आपने जैसा किया है, ऐसा करने की मेरी क्षमता नहीं है। आप जीत गए, मैं हार गया" और राजर्षि दशार्णभद्र को हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सौधर्मेन्द्र विदा हो गए।
"तभी से यह गजाग्रपद तीर्थ, दशार्णकूट पर्वत लोक में बहुत ही पवित्रतम तीर्थ के रूप में प्रचलित हो गया। यहाँ आकर आर्य महागिरीजी ने अनशन को स्वीकारा।"
"तो आर्यबलिस्सहजी कुमारगिरी पर्वत पर कैसे पहुँच गए? सात साधुओं के उस परिवार में अब तक बिलकुल मौन बैठे हुए एक मुनिवर ने पूछा। उनका प्रश्न प्रसंग के अनुरूप था। जिस प्रश्न ने सभी मुनिवरों को अतीत में से सांप्रत में लाकर रख दिया।
(क्रमशः)
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