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अपना जन्म एवं मृत्यु किसके हाथों में?



बेंग्लोर... वी.वी. पुरम्... श्री संभवनाथ जैन मंदिर के आंगन में... स्थित उपाश्रय में एक युवा बहन अपनी बेटी को लेकर मेरे पास आई थी। बेटी का नाम नींवा है, 6 साल की बेटी को यह माँ कहने लगी, देख! तू पूछ रही थी ना? आहार कार्ड किताब के लेखक कौन है? देख! ये वो ही महात्मा है, दर्शन कर ले।

 

बेटी की आँखों में एक अद्‌भूत अहोभाव एवं धन्यता की रेखा उभर आई। नींवा की मम्मी आशिकाबहन अभी I.A.S. का प्रीपेरेशन कर रही हैं। उन्होंने बताये अनुभवों से इस बार के लेख का प्रारम्भ करते हैं।

 

'साहेबजी! मेरी बेटी नींवा जब गर्भ में थी, तब तीसरे महिने मुझे बहुत सारे हेल्थ प्रॉब्लेम्स हुए थे। अलग-अलग दस से बारह डॉक्टरों को दिखाया। सभी डॉक्टरों का एक ही सुझाव था कि इस गर्भ को गिरा दो, गर्भ रखने से ही सारी दिक्कतें हो रही है, गर्भपात ही आप के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। अभी तो बहुत कम प्रॉब्लेम्स है, आगे इस गर्भधारण के कारण बहुत ही अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।'

 

लीट्रली (सचमुच) मुझे बहुत सारे डॉक्टर्स ने डरा दिया था। मेरी बहन ने तीन थुई में दीक्षा ली हुई है और मैं धर्मचुस्त परिवार से हूँ, बहन महाराज ने मुझे स्पष्ट तौर पर गर्भपात करवाने का निषेध किया हुआ था और इस पाप को करने के लिए मेरा दिल भी मना कर रहा था। मुझे गुरु महाराज ने बोला, 'आशिका! आप गर्भसंस्कार टीम के हेड डॉ. अभयभाई का संपर्क करके पूछ लीजिए, कि ऐसी परिस्थिति में अब क्या हो सकता है..?"

 

और साहेबजी! आप बीलीव नहीं कर पायेंगे, मेरी जिंदगी में चमत्कार घटित हुआ। मेरे अंदर पोजिटीवीटी बढ़ने लगी। अभयभाई एवं उनकी टीम का मुझे सहकार मिला, कई सारे ऑनलाईन सेशन्स अटेण्ड करने के बाद एक स्टेज ऐसा आया था कि, जहाँ पर मुझे गर्भस्थ (पेट में रहे) बच्चे के साथ बात करके उन्हें मैसेज भेजने को कहा गया।

 

मैंने पूर्ण श्रद्धा के साथ गर्भस्थ शिशु को संदेश भेजा, 'तेरे जन्म के पश्चात् तेरे बाँये गाल में डिम्पल (खड्डा) पडे, जब तू हँसती हो तब डिम्पल बनना चाहिए। तेरी भौएँ ऐसी होनी चाहिए, तुझे जन्म के बाद बचपन में बिल्कुल भी रोना नहीं है। रात को सूर्यास्त के बाद तुझे खाना खाना नहीं है। इत्यादि संदेश मैंने भेजना शुरु किया। मुझे जैसी संतान चाहिए थी, वैसे संदेश मैं भेजा करती थी और आख़िर कालावधि पूर्ण होने पर इस नींवा का जन्म हुआ, जो आप के सामने खड़ी है।

 

डॉक्टरों की सारी भविष्यवाणियाँ झूठी निकली है। मेरी बेटी विकलांग पैदा होने की बात भी असत्य ही हुई है। 6 साल की उम्र में मैंने कभी भी नींवा को रोती हुई देखी नहीं है। जन्म के 40 दिन के बाद से वह प्रतिदिन प्रभुपूजा करती रही है, जिसमें एक बार भी वह चूकी नहीं है। प्रतिदिन नवकारशी एवं रात्रिभोजन त्याग के वह पच्चक्खाण कर रही है। रात को रोज 10 बजे सो कर सुबह 6 बजे वो उठ जाती है। 10 महिने की छोटी सी उम्र में गिरनार की 99 यात्रा कर चुकी है। पूज्य पं. जयभानुशेखर वि.जी की प्रेरणा से दो साल की उम्र में जिंदगी का प्रथम आयंबिल उसने किया था। तीन साल की उम्र में नींवा ने छ'रि पालक यात्रा संघ में 100 किलोमीटर पैदल विहार भी किया। संघ में उसने आयंबिल – बियासण - आयंबिल भी किया। 4 साल की छोटी उम्र में अंतरिक्षजी तीर्थ में नवपद की ओली प्रथम बार ही पूर्ण की। अभी के ब्रेकिंग न्यूज़... 6 साल की छोटी सी नींवा ने गिरनार तीर्थ में आ.श्री हेमवल्लमसूरिजी की निश्रा में वर्धमान तप की नींव (पाया) डाला है।

 

एक परिवार की सत्य घटना इतनी डिटेल में लेने के पीछे मेरा खास मक्सद है। आजकल बिल्कुल तुच्छ – छोटे मामुली कारणों से धर्मप्रेमी, संस्कार प्रेमी, जीवदया प्रेमी परिवारों में भी गर्भपात होने लगे है। अपने राष्ट्र भारत की बहनें बहुत भोली है, जिसके चलते अनजाने में ही वे कभी-कभी ऐसे-ऐसे खतरनाक निर्णय ले लेती है, जिसका खामियाजा खुदको ही भरना पड़ता है, वो भी बहुत ही भारी...

 

कभी डॉक्टर्स डरा देते है, कभी अडोश-पडोश के लोग, कभी अकल्याणमित्र ऐसी सहेलियाँ झूठी सलाह दे देती  है, तो कभी रिश्तेदारों का प्रेशर मन को विचलित कर देता है, कभी इकोनोमी की चिंता और बजट बिगड़ने का नकली डर हमें शैतान बना देता है, तो कभी मशीनों की झूठी रिपोर्टस हमें डरा देती है, कभी उम्र के साथ जन्म ले रही संतानों की मिसमेचिंग, तो कभी सच्चे या झूठे हेल्थ प्रोब्लेम्स... अल्टीमेटली बच्चा बचता नहीं और हम ऐसा पाप कर बैठते है, जो करना हमारे ब्लड में ही नहीं है।

 

कुछ समय पहले मुझे बेंग्लोर में ही मुम्बई के एक युवा सुश्रावक साहिलभाई मिलने आये थे। साहिलभाई सिर्फ 31 साल के ही है, लेकिन गर्भपात के पाप को रोकने में उन्होंने पिछले डेढ़ साल में जो काम किया है, वो काबिलेतारीफ है। विगत डेढ़-दो साल से वह एक ग्रुप चला रहे है, जिस का नाम है... ‘Bharat for Life'

उनके ग्रुप एवं साहिलभाई को अनेक संगठन एवं संस्थाएं अपने मंच पर खासतौर पर इस विषय में बोलने के लिए एवं जागरुकता फैलाने के लिए आमंत्रित कर रहे है। केरला के एक शहर 'त्रिचि' में क्रीश्चन संस्था के आमंत्रण से साहिलभाई गये तब पता चला कि क्रीश्चन धर्म के लोग इस विषय में हम जैनियों से बहुत ही आगे है (यानी गर्भस्थ बच्चों को बचाने के विषय में)... उस शहर में 15,000 लोगों की रैली निकली थी।

 

Faithbook के इस प्लेटफार्म से इस विषय में महत्त्वपूर्ण संदेश देना चाहूँगा।

 

यदि आपको प्रश्न किया जाये कि, अपने भारत राष्ट्र में एक साल में कितने अबॉर्शन (गर्भहत्या) होते है? आप सोच रहे होंगे, 8 से 9 लाख...

 

नहीं, सिर्फ भारत में ही मात्र एक साल में एक करोड़ साठ लाख से अधिक गर्भहत्याएँ हो रही है (सन-2015, का यह आंकडा है।) इस आँकड़े में अधिकांश वे लोग है, जो पढ़े-लिखे है, जो शहर में बस रहे है और जो धर्मप्रेमी, संस्कारप्रेमी होने के साथ-साथ ऊँची कौम में जिसकी गणना हो रही है। मुसलमान, क्रीश्चन, गरीब, अनपढ़, नीची जातियों में इस का प्रमाण बहुत कम है।

 

लांसेट नामक प्रतिष्ठित मेडिकल जनरल (विश्वसनीय मेगजीन) में हर 5/5 साल का जो डाटा प्रकाशित होता हो, उन्हीं में से यह बता रहे है। सन् 2015 का यह अबोर्शन का डाटा है, 2020 में कोविड के कारण सर्वे नहीं हो पाया और सन्-2025 का सर्वे होना अभी बाकी है, इसलिए 2015 का बता रहे है। यह डाटा पील्स एवं सर्जरी दोनों को मिलाकर आया ओफिश्यल डाटा है, अनोफिश्यल तो इससे भी बहुत ज्यादा हो सकता है।

टोटल 4.6 करोड कन्सीव (गर्भधारण) के केसिज़ होते हैं। उनमें से 1.60 करोड़ की कत्लेआम यानी 35% का मर्डर...

नहीं, नहीं Mass Genocide (सामूहिक नरसंहार..) 35% kids Genocide by whom? Dr's and Mothers...

 

युद्ध के मैदान में जंग लड़ने के लिए यदि कोई इन्सान जा रहा हो तो आशंका होती है, कि यह जीवित वापिस लौटेगा या नहीं? फिर भी 60 to 80% सैनिकों को युद्ध के मैदान (Battle Ground) से वापिस लौटते हुए देखा है लेकिन यहाँ तो इससे भी ज्यादा खतरनाक परिस्थिति!!

 

युद्ध के मैदान से वापिस लौटना संभव लेकिन भारतीय माँ की कोख से वापिस जीवित बाहर निकलना बड़ा मुश्किल...

 

आज भारत देश में जितने भी प्राकृतिक मृत्यु (Natural Deaths) हो रहे है, वह करीबन 1.5 करोड़ है, और इससे भी आगे अबोर्शन वाले अप्राकृतिक मृत्यु (Unnatural Death) 1.6 करोड़ !!!

 

कोइ सा भी राष्ट्र अपना अस्तित्व, जन्म एवं मृत्युदर के अनुपात (Ratio) के आधार पर चलनेवाली सुचारु व्यवस्था से ही टिका सकता है। कोई भी देश में प्राकृतिक मृत्युदर एक प्रतिशत एवं जन्मदर मीनीमम (कम से कम) 2.2 हो, तो ही वह देश, देश की प्रजा का अस्तित्व टिकेगा।

 

आज से 20/25 साल पहले इस देश का जन्मदर (फर्टीलीटी रेट) 6.2 था, जो आज की तारीख में घट कर 2.2 पर आ चुका है। और आने वाले भविष्य में 1.2 पर आनेकी पूरी संभावनाएँ बन चुकी है। इसके सामने मृत्यु दर 140 करोड़ की जनता के हिसाब से 1.4 करोड़ नोर्मल मान सकते है। लेकिन अभी के समय में जिस प्रकार कार्डिएक अरेस्ट, हार्ट अटैक, केन्सर, कीडनी फैल्योर इत्यादि में मौत के मुख में युवा लोग जा रहे है, साथ ही साथ गर्भपात जिस स्पीड से बढ़ रहे है, इसे देखकर लगता है कि भारत देश पर आनेवाले समय में बड़ा जोखिम मंडरा रहा है।

 

केन्सर, T.B., Aids, अस्थमा, अटैक इत्यादि रोग मिलकर जितने मरीजो को एक साल में मार डालते है, उन सारे रोगों को एवं मौत के आंकड़ों को (1.5 करोड़ को) पीछे छोड़ देनेवाला सिर्फ एक ही दूषण, गर्भपात का दूषण ऐसा है, जो 1.6 करोड़ को मार रहा है।

 

गर्भपात निरोगी, निर्दोष, छोटे, कोमल, मासूम संतान के प्रति किया गया भयानक क्रूरतम अपराध है, जो आज के जमाने में बिल्कुल नोर्मल (सहज) बनने लगा है।

 

साहिलभाई की बात सुनकर मुझे बड़ी चिंता हो रही है, और चिंतन भी जो कि यहाँ पर मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

 

‘डिवोर्स पहले होता है या मैरिज?' ऐसा प्रश्न यदि किसी को पूछा जाये तो तुरन्त एक ही जवाब सुनने को मिले ‘शादी - मैरिज..' यदि शादी ही नहीं हो, तो डिवोर्स कहाँ से होगा?"

 

इस प्रश्न की तरह, दूसरा प्रश्न... ‘पहले जन्म या मृत्यु?’ आप तुरन्त कहेंगे, ‘जन्म!’ यदि जन्म ही नहीं हो, तो मृत्यु कहाँ से होगा?’

 

सामान्यतः आपका उत्तर सही है, लेकिन विशेष परिस्थितियों में गलत भी हो सकता है। जैसे शब्दकोश (डिक्शनरी) में डिवोर्स पहले है, शादी बाद में, उसी प्रकार गर्भहत्या के किस्सों में बच्चे को जन्म से पहले ही मौत की सजा मिल जाती है।

 

इसी प्रकार फिर से एक सीधे सवाल का उल्टा उत्तर सोच सकते हैं... आप को जन्म कौन देता है ? 'मम्मी', ये सीधा उत्तर है। लेकिन यदि चाहे तो वो ही माँ जन्म के बजाय 'मौत' भी दे सकती है, क्योंकि संतान को जीवित रखना या मार डालना, इन सबका मुख्य आधार ही एक महिला है, इस निर्णय के केन्द्र में एक माता है।

 

कोई कितना ही प्रेशर क्यों ना बनाये, लेकिन यदि एक माता ठान लेती है तो प्रायः बच्चा अवश्य इस धरती पर अवतरित होकर रहता है और यदि माँ न चाहे तो बच्चा परलोक चला जाता है। क्योंकि सारे के सारे कानून (इस विषय के कानून) आज के काल में स्त्री के ही समर्थन में बने है।

 

एक माँ, बच्चे को पृथ्वी पर तो बाद में जन्म देती है, इस से पूर्व तो वह अपने पेट की धरती में जन्म दे चुकी होती हैं।

 

एक सत्यघटना का जिक्र मैं यहाँ करना चाहूंगा, जिसे मैं अपने 'मातृवंदना' के प्रवचन में अक्सर बताया करता हूँ।

 

गुजरात के एक शहर की कोन्वेन्ट स्कूल में एक बच्चे ने टीचर के चरणों में झुककर नमन किया तो टीचर ने पूछ लिया, क्यों पैर छूए?

 

बच्चे ने सरलता से जवाब दिया कि ‘मेरे मम्मी-पापा को भी में प्रतिदिन चरण स्पर्श करता हूँ, उन्होंने ही मुझे यह संस्कार दिये है, जो उपकारी हो, उनके चरणस्पर्श करने के संस्कार उन्होंने दिये है। आप विद्यादान करते हो इसलिए आप मेरे लिए उपकारी हो, मेरे मम्मी-पापा ने मुझे जन्म दिया है, अतः वो भी मेरे उपकारी है, इस प्रकार सभी के चरणस्पर्श...’

 

टीचर नास्तिकता एवं आधुनिकता के मल्टीकलर से रंगी हुई थी, उसने बच्चे की बातों को बीच में से ही काटते हुए कह दिया। ‘तेरे माँ-बाप ने तुझे जन्म देकर कोई उपकार ही नहीं किया है।’

 

बच्चे की पवित्र भावना को कुचल देने के मक्सद से टीचर तो और आगे बढ़ी, और बोली, 'तू तेरी माँ के पेट से पैदा हुआ, वो तो तेरे माँ-बाप की वासना का परिणाम है, इसमें उपकार कहाँ से आया?' 

 

ऐसे शब्द सुनते ही बच्चे के दिल में बड़ा झटका लगा। घर आकर बच्चे ने माँ-बाप को टीचर की बातें बताई।

अपने बच्चे के पवित्र विचारों को शुभ संस्कारों को एवं सुनहरे भविष्य को ही बर्बाद कर देने वाली उस स्कूल से अभिभावक ने उठा लिया, दूसरी अच्छी स्कूल में रखा। जहाँ संस्कारों के ही दाह संस्कार (अंतिम संस्कार) हो जायें, ऐसे स्थानों में पढने भेजना महज मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं है।

 

खैर, जहरीली शिक्षा के जहर की असर की बात बाद में करेंगे, मैं तो आज के युगलों को ही पूछना चाहूँगा, कि क्या आप भी अपनी संतानों के जन्म को अपनी वासना का परिणाम मान रहे हो?

 

आज के युग में शायद इसी कारण से अधिक बच्चों को जन्म देनेवाले माँ-बाप शर्मिंदगी महसूस करते होते है। आज के युग में एक भ्रांति सभी जगह फैल रही है कि, 'जो एक से अधिक संतानों को जन्म देते है, वो वासना में डूबा हुआ है’। हकीकत में तो जो भी दंपति संतान को जन्म देने का निर्णय करता है, उनके निर्णय में वासना नहीं, करुणा का ही महत्तम हिस्सा है। बालक का जन्म माँ-बाप की वासना का नहीं, करुणा का ही परिणाम है।

 

वासना में डूबे लोग तो बच्चे को अपनी मौज-मजा में अवरोध रूप मानकर जल्द से जल्द निकाल देते है।

बच्चे की परवरिश में जो समय निकलता है, बच्चे को संस्कारी बनाने में जो शक्ति लगती है, वो गर्भपात करवाने वाली माँ क्या जाने? उसे तो बस छुटकारा चाहिए।

 

अधिकांश दंपति शादी के कुछ साल तक वासना के पापों का मजा लेने के लिए ही बच्चा नहीं चाहते है। बच्चा ना हो, उसका अर्थ यह नहीं है कि, दंपति ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। इसका अर्थ उल्टा भी हो सकता है, और 99 प्रतिशत केस में तो उल्टा ही होता है। विदेशों में एवं भारत में कुछ माताएँ-बहनें आज भी दयालु प्रकृति की होने के कारण ही मनुष्यों का इस धरती पर अवतरण हो रहा है। उन महिलाओं को मैं नमस्कार करता हूँ, जो अपने ऊपर मृत्यु तक का जोखिम होने के बावजूद बच्चे को जन्म देती है और गर्भपात के पथ पर जाकर अपने जीवन को मानव हत्या के नृसंश पापों से मलिन नहीं करती है।

 

श्री विनोबाजी भावे ने संतान उत्पत्ति एवं अनुत्पति के दो-दो पथ बताये थे, 1) पवित्र 2) अपवित्र...

 

ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलने से जो दंपति संतान उत्पन्न नहीं करता है, वह संतान अनुत्पत्ति का पवित्र पथ है। जो दंपति संतान को वासना के कारण उत्पन्न नहीं होने देता वह संतान अनुत्पति का अपवित्र पथ है। ठीक, उसी प्रकार राष्ट्ररक्षा, धर्मरक्षा, मातृ-पितृ ऋणमुक्ति इत्यादि पवित्र उपदेश्य से संस्कारी धर्मप्रेमी सज्जनों की समाज स्वीकृत विधि से, नियंत्रित भोगों के मार्ग से संतान प्राप्ति हो तो वो पवित्र पथ कहा गया है। व्यभिचार के पाप से, परनारी से जबर्दस्ती करके, नाजायज रिश्तों से या फिर पुत्र की लालसा में, पुत्रियों के प्रति धिक्कार भाव से जो संतानें पैदा हो वह संतान उत्पत्ति का अपवित्र पथ है।

 

संक्षिप्त में कहें तो संतान का जन्म वासना का नही, करुणा का ही परिणाम है। वासना के कारण भी एक बार संतान पेट में अवतरित हो गई, तो उसे खत्म करना, क्रूरता के अलावा कुछ भी नहीं है। प्रायश्चित्त ग्रंथों में भी इस पाप के बहुत बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बताये गये है।

 

मेरे सामने तो ऐसे अनेक किस्से है, जहाँ दंपति ने अपने पेट में पल रही संतान को खत्म करना तय कर दिया था, लेकिन किसी के समझाने पर निर्णय बदला और संतान को आने दिया तो वो ही संतान ने बड़ी होकर दीक्षा ली, अच्छे पद पर आयी हो। क्या आप साधु या साध्वी की हत्या करने की सोच सकते हो ? वर्तमान के श्रमणों की नहीं कर सकते तो भविष्य के श्रमणों की? हम नये जैन नहीं बना सकते लेकिन जो ओलरेडी हमारे पेट में आने मात्र से जैन बन चुका है, उसे मार कैसे सकते है? यदि डॉक्टर की बात मानकर बेंग्लोर की बहन ने अबोर्शन करवाया होता तो क्या हमें नींवा मिल पाती?

(क्रमश:)

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