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3 Gape… तीन जनरेशन...

  • Aug 29
  • 9 min read

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शुभ परिवर्तन स्वीकार्य है। पतन अस्वीकार्य है। पागलपन स्वीकार करने लायक को अस्वीकार्य मानता है, अस्वीकार्य के लायक चीजों को स्वीकार्य मान लेता है। आज तीन चीज की बात करनी हैं, परिवर्तन, पतन एवं पागलपन।

 

आज विश्व एक अलग ही मोड़ पर आकर खडा है। जितना जल्दी इसे समझेंगे, उतना ही जल्दी बदलाव लाने में आसानी होगी । परिवर्तन बुरे में से अच्छे में हो तो अच्छा है, लेकिन वो ही परिवर्तन अच्छे में से बुरे में हो तो बूरा होता है।

 

भूतकाल में कभी ना सुनी हो, इतनी तपश्चर्या बढी है। नजदीक के भूतकाल में कभी ना सुना हो इतना दानधर्म भी बढ़ा है। धर्म के चार पायदान में से दान एवं तप की निश्चित रूप से अभिवृद्धि हुई है, लेकिन शील एवं भाव की कई जगह हानि होती हुई दिख रही है, जो कि चिंता का विषय है।

 

परिवर्तन – पतन एवं पागलपन के त्रिकोण का अनुभव कर रहे इस विश्व में जिस प्रकार व्यवस्थाओं का शीर्षासन हुआ दिख रहा है, उस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि, आनेवाला काल विकट है या संकटमय है।

 

पागलपन वो है,

जो पतन को ही उत्थान मान लें।

जो विनाश को ही विकास मान लें।

जो कचरे को ही कंचन मान लें।

जो ज़हर को ही अमृत मान लें।

 

मेरी बताई बातों में सच्चाई होने पर भी आप इसे गंभीरता से ना लें, इतने मात्र से सच्चाई झूंठी नहीं हो जाती है या सच्चाई अपना प्रभाव ना दिखाये, ऐसा भी नहीं होनेवाला।

 

चलो, आप को गोल-गोल घूमाने के बजाय सीधा ही मूल विषय पर आ जाता हूँ।

 

सिर्फ 100 साल में ही विश्व इतना बदल चुका है, कि जिस की कल्पना 100 साल पहले किसी ने भी नहीं की होगी।

 

आज ही किसी से बात हो रही थी, मैंने जब कहा, कि शेयरबाजार की नाव अब डूबने की कगार पर है, तो सामने वाले भाई ने कहा, ऐसा पोसिबल ही नहीं है, क्योंकि इस के बिना तो फिर इकोनोमी ही खत्म हो जायेगी।

 

मैंने कहा, जब शेयर बाजार इस धरती पर नहीं था, तब लोग कैसे जीवन जी रहे थे? सौ साल के आसपास आया यह शेयर मार्केट अब बुड्ढा हो चुका है, लेकिन आप इसे शाश्वत मान रहे हो, वो ही आपकी सबसे बड़ी भूल है। इस विश्व में व्यवस्था परिवर्तन होता ही रहता है। आज जो दिख रहा है, कल वो नहीं दिखेगा।

 

आप शेयर बाजार के बारे में ऐसा सोच रहे हो कि, शेयर बाजार खत्म हो जाये तो मानों जीवन ही खत्म हो जाये, तो यह आपकी नीजि सोच हो सकती है। जिस बच्चे ने जन्म से मोबाईल के साथ ही अपना जीवन देखा तो थोड़ा बड़ा होने के बाद मोबाईल के बिना जो एक पल भी ना रहा हो, ऐसे बच्चे को यदि 15 साल बाद कहा जाये कि, मोबाईल अब नहीं रहेगा तो वह बच्चा ऐसा ही कुछ सोचता है कि, ऐसा पोसिबल कैसे होगा?

 

लेकिन हकीकत यह है कि पहले आज से 30/35 साल पूर्व में जब मोबाइल नहीं था, तभी भी लोग मजे से अपनी जिंदगी जीते ही थे। जीवन में आज के समय में मोबाईल आवश्यक हो सकता है, लेकिन अनिवार्य नहीं है। राजस्थान पत्रिका में आई 9 अगस्त रक्षाबंधन की ही न्यूज़ ले लेते है, 80 साल के बुड्ढे व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर फ्रेंड रिक्वेस्ट (दोस्ती की विनती) को स्वीकार कर के बड़ा नुकसान कर दिया। दोस्ती भी एक नहीं, चार-चार महिलाओं से की और प्यार, हमदर्दी, झूंठी मजबूरियों के नाम पर जिसे कभी देखा ही नहीं ऐसी  महिलाओं ने (नकली मित्रों ने) असल कमाई उड़ा ली। 21 महिने चली इस दोस्ती ने बुजुर्ग के खाते में रहे 8.7 करोड रुपये, अलग-अलग टाईम पर 734 बार उन महिलाओं के खाते में ट्रान्स्फर करते-करते खाली कर दिये।

 

आभासिक दुनिया, वास्तविक जलवा दिखा रही है। पागलपन का और एक किस्सा सुन लीजिए... आज तक हम यही सुनते आये थे कि, कोई भी व्यक्ति अपना जीवन साथी पसंद करते वक्त इस बात की रुचि रखता है कि सामनेवाला पात्र पवित्र हो, वर्जीन (कुँवारा) हो। लेकिन इस विषय में भी अब उल्टी गंगा बहने लगी है।

 

एक शहर में एक लड़की के मुख से जब इस बात की जानकारी मिली तब मेरे पैरों तले से मानो धरती खिसक गई। लड़की ने जिसे संपन्न परिवार वाले सुसंस्कारी लड़के मान लिया था, उन लड़कों ने लड़की को इसलिए रीजेक्ट किया, क्योंकि वह वर्जीन (कुँआरी) थी। लड़को की घटिया मांग यह थी कि, यदि पहले नेटप्रेक्टीस की होती तो हम शादी के बंधन में बंधने के लिए तैयार थे। और ऐसे एक नहीं, तीन-तीन अलग अनुभव हुए थे।

 

मान लिया जाये कि समाज में ऐसे किस्से एक प्रतिशत भी नहीं होंगे, लेकिन यही ट्रेण्ड आगे चला तो??? इतना तो मानना ही पड़ेगा कि युवा पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बिच तीन प्रकार के गेप (अंतर) साफ-साफ दिखने लगे है।

 

1)    Generation Gape (उम्र का फ़ासला) जनरेशन गेप

सिर्फ आजके युग की नहीं, यह समस्या कहो या अंतर क‌हो, भगवान महावीर स्वामी के वक्त भी था। भविष्य में भी रहेगा क्योंकि कोई भी बेटा अपने बाप से 20/25 साल छोटा रहनेवाला है, इसलिए जनरेशन गेप हमेशा रहता ही है, लेकिन कभी बीच में नहीं आता है। दादी एवं नानी, पोते-पोती को कहानी सुनाते थे, तब यह गेप कहाँ बीच में आता था? उम्र का अंतर बताकर आज कल के लड़के-लड़कियाँ, माँ-बाप से अपनी नीजि जानकारी शेयर करना नहीं चाहते है। वो लोग जितना अपने हम उम्र दोस्तों के साथ अटेच होते है, उतने अपने ही परिवार के माता-पिता - बड़े भाई या बड़ी बहन से कभी-कभी अटेच नहीं होते है, बस यही अंतर उनके लिए कभी-कभार बड़ा हानिकारक सिद्ध होता है, क्योंकि मित्र एक हद तक ही बचा सकता है या बता सकता है।  माँ-बाप रोक सकते है, टोक सकते है और जरूरत पड़‌ने पर अपनी संतान को बचाने के लिए ठोक भी सकते है।

 

2)    कम्यूनिकेशन गेप (संवाद का फासला) Gape Of Communication

एक ही घर में दादाजी, पिताजी गुजराती या हिन्दी या मारवाड़ी भाषा में बात कर रहे हैं और पोता-पोती अंग्रेजी में। मुझे तो बड़ा आश्चर्य तब होता है जब आपके बेटे-बेटियाँ फ़्रेंच या जर्मन भाषा सीखते है। अनेक भाषा की जानकारी होना अच्छी बात है, लेकिन अपनी भाषा का ही अज्ञान होना बड़ी बूरी बात है। आज कई सारे राज्य अपनी प्रादेशिक भाषा की लड़ाई, स्थानीय लोगों के समर्थन से लड़ रहे है, महाराष्ट्र में मराठी भाषा के नाम पर तो कर्णाटक में कन्नड भाषा के नाम पर, तमिलनाडु में तमिल भाषा के नाम पर आये दिन हुड़दंग मचानेवाले मिल ही जाते है, लेकिन अजीबोगरीब विडंबना यह दिख रही है कि, प्रादेशिक भाषा के लिए जंग लड़ने के लिए तत्पर दिखने वाले भी इस विषय में बिल्कुल ही मूक है कि अंग्रेजी को प्रथम भाषा का दर्जा मिल चुका है। चाहे महाराष्ट्र हो, चाहे कर्णाटक और चाहे तमिलनाडु – लोकल लेंग्वेज सेकण्ड नंबर पर है और अंग्रेजी प्रथम पायदान पर।

 

विडंबना और भी देखिये, आगे की कक्षा में, कॉलेजों में तो प्राथमिक भाषा भी गायब ही हो जाती है और आपका बच्चा पूरा का पूरा अंग्रेज़ बनने के लिए रेडी होने लगता है।


क्या 100 साल पहले किसी ने सोचा होगा कि पूरी जनरेशन (पीढ़ी) ही पेंट-शर्ट में आ जायेगी। धोती सिर्फ पूजा-सामायिक में ही देखने को मिलेगी।

 

भाषा अंग्रेजी स्कूल में कितनी हावी हो चुकी है, इसका दृष्टांत आपका बच्चा यदि अपनी मातृभाषा में बात कर ले तो उसे दण्ड दिया जाता है। उसे Pure English में ही अपने सहपाठी से बात करनी होती है। बच्चे के माँ-बाप को पेरेंट मीटिंग में बुलाकर फोर्स किया जाता है कि, आप इस बच्चे के साथ अपने घर पर भी अंग्रेजी में ही बात करेंगे। स्कूल और घर तो छोड़ो, इस अंग्रेजी भाषा का भूत अब मंदिर और उपाश्रय में भी आ गया है। भाषा का उपयोग हो इसका विरोध नहीं है, लेकिन उपासना होने लगे, दिमाग में भाषा का बुखार चढ़ जाये, इसका ही विरोध है। अंग्रेजी में ना बोलने पर खुद माँ-बाप गिल्टी फील करें या बच्चों को अपराध बोध करवाया जाये, यह कितना उचित है?

 

साधु महाराज साहब यदि जा रहे हो तो आजकल की मोर्डर्न मम्मी अपनी संतान को दिखाकर कहती है, ‘देख! Boys महाराज जा रहे है।’ साध्वीजी के सामने उंगली कर के कहती है ‘देख! Girls महाराज जा रही है।’ वहाँ पर मम्मी ऐसा क्यों बोल नहीं सकती है कि, ‘देख! साधु महाराज जा रहे है या साध्वीजी महाराज जा रही है।’

 

मंदिर में भी इस अंग्रेजी ने कैसा खेल खेला है, देखने या सुनने लायक है। दिल्ली के एक मंदिर में नाभि की पूजा करते वक्त मम्मी ने बोल दिया ‘बेटे! स्टमक की पूजा कर’

 

एक मम्मी ने अपने लाड़ले को धूप-दीप करने के लिए कहने के बजाय, बोल दिया ‘बेटे! भगवान को फायर कर’

 

कर्णाटक के शहर में तो मुझे किसी ने कहाँ, यहाँ ऐसा भी एक घर है, जिसके पोते-पोती, दादा-दादी से बात नहीं कर पाते है, क्योंकि उन्हें अंग्रेजी के अलावा कोई भाषा ही नहीं आती है।

 

अब ऐसी स्थिति में हमारे जैसे महात्माओं के प्रवचनों में युवा पीढ़ी (Gen-Z) कहाँ से आयेगी? क्योंकि 98 प्रतिशत महात्माओं को अंग्रेजी में प्रवचन करना ही नहीं आता है।

 

जब अंग्रेजी भाषा में ‘पुण्य’ शब्द का अनुवाद ही नहीं होता है तो आप उन बच्चों को पुण्य करना कैसे सीखाओगे ?

बच्चों को पाप करना तो आ जायेगा, क्योंकि अंग्रेजी में पाप का पारिभाषिक शब्द 'सीन' है। लेकिन पुण्य से वो बेचारा वंचित रह जायेगा, क्योंकि पुण्य के लिए अंगेजी भाषा में कोई शब्द ही नहीं है।

 

3)    कल्चरल गेप (सांस्कृतिक फासला) Cultural Gape

तीनों अंतर में, यह तीसरा गेप सबसे अधिक खतरनाक है। आज की हकीकत – दादाजी-पिताजी एवं पोताजी, तीनों पीढ़ियाँ एक ही छपरे के नीचे एक ही घर में, तीन अलग-अलग लाईफ स्टाईल जी रहे है।

 

दादाजी जब कपड़े खरीदने जा रहे थे बाजार में, तब दादाजी कौनसे कपड़े ढूँढते थे? कैसे कपड़े खरीदते थे? टिकाउ होना चाहिए। दादाजी चाहते थे कि, मेरे कपड़े लम्बे समय तक चलने चाहिए, अखण्ड होने चाहिए, फटने नहीं चाहिए।

 

पिताजी जब बाजार में कपड़े ख़रीदने के लिए जाने लगे तब, उनकी चॉइस बदल गई थी, उन्हें टिकाउ से भी ज़्यादा फैशनेबल चाहिए थे। बॉलीवुड की पिक्चरों के कारण कई सारे लोगों की पसंद देवानंद, जीतेन्द्र, धर्मेन्द्र एवं अमिताभ बच्चन जैसे कपड़े पहनने की थी,

 

लेकिन पोताजी अब बाज़ार में जाते है तो वह टिकाउ या फैशनेबल नहीं, ब्राण्डेड ढूँढते और ख़रीदते नज़र आ रहे है। दादाजी की पसंद में टिकाउ था, लेकिन पोताजी तो फटा हुआ, फाड़ा हुआ कपड़ा (जीन्स) महंगे दाम देकर घर ला रहे है।

 

सांस्कृतिक परिवर्तन, सांस्कृतिक पतन, और इस पतन को ही आसमान में उड़नेवाली पतंग माननेवाला पागलपन चरम पर है, अभी तो सिर्फ़ झाँकी है, आगे बहुत कुछ बाक़ी है।

 

पूर्वकाल में फटे हुए कपड़े भिखारी-गरीब लोग पहनते थे, आज के काल में फटे हुए कपड़े पहनना गौरव एवं गरिमा का विषय है। हकीकत में वस्त्रों के भी वास्तु दोष एवं गुण होते है। शास्त्रकारों की माने तो फटे हुए वस्त्रों से Wealth (संपत्ति) एवं Health (स्वास्थ्य) निकल जाता है, टिकता नहीं है। आज भले ही वो बेटा (फटा हुआ कपड़ा पहना बेटा) अमीर बाप की औलाद होगा, लेकिन आगे वह ग़रीब एवं भिखारी बनने की तैयारी कर चुका है।

 

दादाजी के जमाने में छोटी उम्र में ही शादी हो जाती थी।

पिताजी के जमाने में युवा वय में शादी का ट्रेण्ड था।

पोताजी के जमाने में लेट मैरिज का ट्रेण्ड चल रहा है।

 

दादाजी के जमाने में 8/10 संतान होने पर खुशी मनाई जाती थी। बड़ा परिवार – सुखी परिवार का सूत्र प्रचलन में था।

 

पिताजी के जमाने में ‘हम दो – हमारे दो’ का नारा चल रहा था।

 

पोताजी के युग में ‘DINK Culture’ चल रहा है। Double Income No Kids = DINK. (Dink and Drink Culture Common हो गया) यानी पोताजी एक भी बच्चा पैदा करना चाहते नहीं है।

 

दादाजी के जमाने में पुरुष भी पगड़ी पहनकर सिर ढकता था। महिला भी अपना सिर ढंकती थी। पिताजी के जमाने में पुरुषों ने अपना सिर ढंकना बंद कर दिया , सिर्फ़ महिलाएँ ही सिर ढंकती थी। पोताजी के जमाने में दोनों खुले सिरवाले दिख रहे है। शहरों में तो घूँघट ढूँढने के लिए दूरबीन लगाना पड़ेगा।

 

दादाजी के जमाने में बिना देखे शादी (पत्नी को देखे बिना) शादी कर लेते थे।

पिताजी के जमाने में देखकर शादी करने लगे।

पोताजी के जमाने में देखता ही रहता है, शादी करने की कोई जल्दी ही नहीं है।

 

दादाजी के जमाने में अपने भाल पर तिलक लगाते थे।

पिताजी के जमाने में तिलक गायब होने लगे थे।

लेकिन पोताजी के जमाने में भाल को छोड़कर शरीर के विभिन्न अंगों में, हाथ पे, पैर पे, छाती पर, पीठ पर, गलें पर टेटू दिखने लगे है।

मानों अलग प्रकार के कोई तिलक हो इस प्रकार टेटू चिपका रहे है। (पोती भी इस में सम्मिलित है)

 

दादाजी के जमाने में रोग-बुखार आने पर भी दवाई नहीं लेते थे। ख़ान-पान में बद‌लाव कर लेते थे।

पिताजी के जमाने में रोग आने पर दवाई लेनी शुरू हुई और अब पोतेजी के जमाने में रोग ही ना आये इसलिए वैक्सीन ठुकवा रहे है और कई बार ऐसी हानिकारक वैक्सीन के कारण ही भरपूर रोग आ रहे है।

 

दादाजी के जमाने में घर में खाते थे, बाहर जाते थे।

पिताजी के जमाने में घर में ही खाने लगे, घर में ही जाने लगे।

पोताजी के जमाने में घर में जाते है, बाहर खाते है।

पूरा शीर्षासन दिखने लगा।

 

दादाजी के जमाने में जन्मदिन कम ही मनाते थे, नहीं मनाते थे।

पिताजी के जमाने में जन्मदिन, दिन को मनाने लगे।

पोताजी के जमाने में रात को मनाने लगे, उसमें भी मोमबत्ती बुझाकर, केक काटकर। केक चुपड़कर अलग से।

 

दादाजी के जमाने में तिथि से सारे व्यवहार करते थे।

पिताजी के जमाने में तिथि एवं तारीख दोनों से।

पोताजी के जमाने में Only Date, No तिथि...

आजकल के किसी भी बच्चे को अपना जन्मदिन लगभग -लगभग तिथि से याद ही नहीं है।

 

दादाजी के जमाने में गाय पालते थे।

पिताजी के जमाने गाय गायब हो गई।

पोताजी के जमाने में अब कुत्ते पालने का ट्रेण्ड चल रहा है।

 

कितने सारे जैनियों के घर पे मैं कुत्ता देख रहा हूँ आज।

दादाजी के और पिताजी के जमाने में कपड़े बदलते तब एकान्त में जाकर बदलते थे, लेकिन आज जमाना बड़ा एडवान्स हो गया, कपड़े बदलने के वीडियो बनाकर इन्स्टाग्राम में डाला जा रहा है, सिर्फ़ कुछ चन्द लोगों को खुश करने के चक्कर में पूरी संस्कृति माँ को नाराज किया जा रहा है।

 

माँ भारती, माँ संस्कृति, और शासन माता इन तीनों को खुश करने का समय आ गया है।

या इस पार... या उस पार

निर्णय आपको ही करना है।

1 Comment


Pragnesh Shah
Aug 30

Thank you for sharing very nice article which helps us to understand today's generation. Thank you so much

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