गुणपूजा - व्यक्तिपूजा नहीं
- Oct 1
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जिनशासन की एक अद्भुत विशेषता है -
जिनशासन गुण को महान मानता है, व्यक्ति को नहीं।
व्यक्ति की महानता भी गुण के कारण ही होती है।
इस विषय को थोड़े विस्तार से समझेंगे।
जिनशासन किसी एक 'व्यक्ति' को भगवान नहीं मानता।
भगवान किसे कहते हैं? इसका उत्तर जिनशासन इस प्रकार देता है –
जो वीतराग है और सर्वज्ञ है, वह भगवान है।
अर्थात् जो भी आत्मा अपने राग-द्वेष आदि दोषों का नाश करके सर्वदोषरहित-सर्वगुणसंपन्न बनता है, वही भगवान है।
अन्य धर्मों की ओर नज़र करें, तो दिखाई देगा कि वे सब कोई एक व्यक्ति को ही भगवान मानकर चलते हैं...
कोई कृष्ण को, कोई ईसा को, कोई पैग़ंबर को...
जिनशासन कोई एक महावीर को ही भगवान नहीं मानता...
आज तक अनंत आत्माएँ अपने दोषों का नाश करके परमात्मा बनी हैं, और भविष्य में भी बनेंगी – ऐसा जिनशासन मानता है।
इसी मान्यता के कारण जिनशासन को किसी के दोषों पर पर्दा डालना नहीं पड़ता, जैसा कि दूसरों को करना पड़ता है।
केवल महावीर स्वामी भगवान का चरित्र विचारें, तो -
तीसरे मरीचि के भव में किए गए कुल के अभिमान के कारण अंतिम भव में ब्राह्मणी की गर्भ में अवतरण, गर्भापहार...
तीसरे भव में ही शिष्य के लोभ में की गई उत्सूत्र प्ररुपणा और उसके कारण एक कोडाकोड़ी सागरोपम संसारभ्रमण...
अठारहवें भव में शय्यापालक पर किया गया क्रोध और उसके कारण कान में कीले ठोकने का उपसर्ग..
यह सब कुछ जिनशासन बेधड़क कह सकता है।
अरे! अंतिम भव में दीक्षा लेने के बाद (पर वीतराग बनने से पहले)
प्रभु ने जो प्रमाद किया (गृहस्थ से मिलने हेतु हाथ फैलाने रूप), उसका वर्णन भी जिनशासन बिना झिझक के करता है ।
दूसरी ओर अन्य धर्मों में,
जिन्होंने अपने माने हुए ईश्वर के कृत्यों पर पर्दा डालना सर्वत्र देखने मिलता है!
है न, मेरा जिनशासन महान!
जो आत्मा दोषमुक्त होकर परमात्मा बनी,
उसे जिनशासन पूज्य मानता है,
उसी आत्मा की दोषयुक्त अवस्था को जिनशासन पूज्य नहीं मानता।
इसीलिए तो मरीचि को वंदन करते समय भरत चक्रवर्ती ने स्पष्टता की है –
"नवि वंदु त्रिदंडिक वेश..."
इसीलिए हम पद्मनाभ स्वामी भगवान की मूर्ति बनवाकर भगवान रूप में पूजते हैं, श्रेणिक की नहीं...
जो बात परमात्मा के लिए है, वही बात गुरु के लिए भी है।
यदि कोई साधु वेश और आचार से रहित हो, तो उसमें गुरु के गुण होने की संभावना ही नहीं होती, उसे गुरु मानकर पूजने का प्रश्न ही नहीं उठता।
लेकिन यदि जैन साधु के वेश से युक्त हो, फिर भी
यदि साधु के मूलभूत गुण – महाव्रत आदि से रहित हो,
तो उन्हें वंदन करने से जिनशासन स्पष्ट मना करता है...
ऊपर से उन्हें वंदन करने में उनके दोषों की अनुमोदना का दोष बताता है।
और, यदि गुरु के गुणों से युक्त मानकर किसी को जीवन समर्पित किया –
उसके शिष्य बने, बाद में भी यदि वह आत्मा कर्म के वश में होकर मूलगुण खो बैठे,
तो जिनशासन उसका त्याग करने का स्पष्ट विधान करता है, चाहे वह संसार-सागर से तारने वाला – परम उपकारी ही क्यों न हो...
इसीलिए तो, निह्नव बने हुए (प्रभु के वचन पर श्रद्धा से भ्रष्ट बने हुए)
जमालि का उनके सभी शिष्यों ने त्याग किया था।
जिनशासन गुणपूजा में विश्वास रखता है, इसीलिए अनुमोदना के विषय बताते समय, जैनेतर (ग़ैर-जैन) के भी मार्गानुसारी गुणों की अनुमोदना दिखाई गई है
"थोडलो पण गुण परतणो, सांभळी हर्ष मन आण रे..."
और ‘जैन’ नाम के लेबल के नीचे होने वाले अमार्गानुसारी कृत्यों की कड़ी निंदा की है।
दुनिया के किसी भी धर्म के पास ऐसी समझ ही नहीं है...
दूसरे व्यक्ति में गुण हो, तो उसे स्वीकार करने की उदारता नहीं है...
अपने ही व्यक्ति में दोष हो, तो उस का स्वीकार करने की निष्कलंकता नहीं है।
केवल और केवल जिनशासन ही ऐसी दृष्टि रखता है, वैसा उपदेश देता है,
वैसा आचरण करके दिखाता है।
अहो ! जिनशासनम्!









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