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धर्म में हमारी प्रगति क्यूं नहीं होती?




करुणा के सागर श्री अरिहंत परमात्मा ने अपने ज्ञान से जगत के जीवों को दुःख से त्रस्त देखकर,  दुःख से हमेशा के लिए मुक्त होने का - शाश्वत सुख को पाने का जो मार्ग दिखाया है, उसी का नाम है जैन धर्म,

यानि जिनशासन।

 

उस मार्ग का अनुसररण हम सभी दुखों से मुक्त होकर वह शाश्वत सुख की प्राप्ति कर सकते है, जिसके लिए हमारी इच्छा अनंत काल से रही है, पुरुषार्थ अनंत काल से रहा है, पर प्राप्ति नहीं हुई है।

 

मार्ग का अनुसरण वो ही करता है, जिसे 'यह मार्ग सही है, मंजिल तक पहूँचायेगा' उसकी पक्की श्रद्धा हो।

 

दिल्ली जाने को निकला हुआ व्यक्ति, अपनी गाड़ी को तभी फूल स्पीड में दौड़ायेगा, जब उसे रास्ता सही होने का विश्वास हो।

 

यदि 'यह रास्ता कहाँ जा रहा है' यह पता न हो, 'या दिल्ली जा रहा है' उसका पक्का विश्वास न हो, तो या तो गाड़ी खड़ी कर देगा, नहीं तो धीरे धीरे चलायेगा...स्पीड से नहीं चलायेगा

 

हमें जैन धर्म मिला है... कुछ हद तक उसका अनुसरण भी हम कर रहे है... फिर भी धर्म के रास्ते पर फूल स्पीड से हमारी जीवन की गाड़ी चल नहीं रही है... उसका एक मुख्य कारण यह है कि 'धर्म करने से हमे सुख मिलेगा ही' ऐसी पक्की श्रद्धा शायद नहीं है...

शायद हमें  शंका है- 'धर्म करते तो है, किन्तु उससे सुख मिलेगा?'

 

यह शंका हमारी स्पीड तोड़ देती है... धर्म में हमारी प्रगति नहीं होने देती... धर्म में उत्साह नहीं जगने देती... ओर इसी कारण धर्म का फल श्री अल्प मिलता है।

(इसके फलस्वरूप श्रद्धा बदली नहीं... यह विषचक्र चलता रहता है।)

 

यह  व्यवहार की भाषा में निरूपण हुआ। इसी पदार्थ को शास्त्रीय परिभाषा में दर्शन - ज्ञान - चरित्र के रूप में कहा जाता है।

 

परमात्माने बताये हुए मार्ग पर चलना - यह चारित्र है।

परमात्मा ने बताये हुए मार्ग की जानकारी - यह ज्ञान है।

'परमात्मा ने बताया हुआ मार्ग सुख की प्राप्ति अवश्य करवायेगा' ऐसी श्रद्धा - यह दर्शन है।

इन तीनों का संयोग ही मोक्षमार्ग है।

 

इन तीनों में प्रधान सम्यग्दर्शन है - श्रद्धा है, क्योंकि श्रद्धा के बिना जानकारी ज्ञान बनती नहीं है ओर आचरण होता नहीं है।

कोई कह दे कि 'यह रास्ता दिल्ली जायेगा' पर उस पर विश्वास न हो, तो 'यह रास्ता दिल्ली जायेगा' ऐसा ज्ञान होता नहीं ओर हम गाड़ी उस पर दौड़ाते नहीं है।

 

परमात्मा ने बताया हुआ मार्ग मुझे सुख की प्राप्ति करवायेगा ही, परमात्मा ने बताया हुआ मार्ग ही मुझे सुख की प्राप्ति करवायेगा ही, ऐसा दृढ़ विश्वास (श्रद्धा) केसे होगा?

 

उसके लिए उस मार्ग की विशेषताओं का ज्ञान होना जरूरी है, इस लिए सन्मति तर्क जैसे ग्रंथों में, सम्यग्दर्शन  की प्राप्ति दार्शनिक अभ्यास के बिना नहीं होती - ऐसा कहा गया है।

 

यद्यपि ऐसे अभ्यास के बिना भी, मोहनीच कर्म के क्षयोपशम से श्रद्धा हो सकती है - ऐसा शास्त्रकार बताते है, परंतु ज्यादातर ऐसा देखा जाता है कि श्रद्धा की प्राप्ति दृढ़ता और निर्मलता, ज्ञान से होता है।

 

इस लेखश्रेणी में जिनशासन की ऐसी विशेषताओं को उजगार करने का प्रयास करना है, जिसकी जानकारी 'जैन धर्म' दुनिया के सभी धर्मों में सर्वश्रेष्ठ  है - विशिष्ट है - उत्कृष्ट है' ऐसा ज्ञान हो, ऐसी श्रद्धा पैदा हो।

 

ध्यान में रहे की किसी की लकीर छोटी करने का प्रयास जैन धर्म ने कभी नहीं किया है। इसी लिये अन्य दर्शनों को भी द्वादशांगी रूप समुद्रों में धूल जाने वाली नदी की उपमा दी गयी है... अन्य दर्शनों में कही हुई अच्छी बातों का खंडन करने का निषेध किया गया है... अन्य दर्शन के वेश में भी वीतरागता की प्राप्ति संभवित बतायी गयी है।

 

पर क्षीर - नीर का विवेक तो होना ही चाहिये, 'दूध को दूध' और 'पानी को पानी' कहना,यह पानी की निंदा नहीं है, वास्तविकता का दर्शन मात्र है।

 

जो सुख का मार्ग  है, उसे ही सुख का मार्ग कह सकता है,

जो दुःख का मार्ग है, उसे उसके समान नहीं कहा जा सकता है।

 

तो चलिये, श्रद्धा की सफर का प्रारंभ करेंगे।

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