
चरम तीर्थपति भगवान महावीर का दीक्षा कल्याणक वास्तव में आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है।
प्रभु के जन्म कल्याणक का वर्णन कई बार और अनेक तरीकों से प्रस्तुत किया गया है, लेकिन दीक्षा कल्याणक का वर्णन बहुत ही संक्षिप्त में हमने सुना है। इसी कारण से दीक्षा कल्याणक के बारे में सभी को इतनी अधिक जानकारी नहीं है।
प्रभु के दीक्षा कल्याणक की इस महत्वपूर्ण घटना में चार मुख्य चरण हैं :
1. विनती
2. वर्षीदान
3. वरघोड़ा
4. विहार
इस जन्म में मोक्ष निश्चित है, यह प्रभु जानते हैं। प्रभु स्वयं जन्म से ही वैरागी हैं। उन्हें किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है, न ही किसी के प्रतिबोध की। जो जगत की वास्तविकता को जानते हैं। और मति, श्रुत, और अवधि जैसे तीन ज्ञान के स्वामी होने के कारण, जिनकी बुद्धि राग से प्रभावित नहीं होती है। ऐसे परम वैरागी को वैराग्य के लिए और धर्मतीर्थ के प्रवर्तन के लिए किसी उपदेश या आदेश की आवश्यकता नहीं है।
नव लोकांतिक देवताओं की विनती तो केवल औपचारिकता है। यह देवताओं का आचार है, इसलिए वे आते हैं और इस औपचारिकता को पूर्ण करते हैं।
इन महत्वपूर्ण चार पड़ावों में मुख्य रूप से बात करनी है वर्षीदान की!
‘प्रभु ने नव लोकांतिक देवताओं की विनती स्वीकार करके दान शुरू किया, अर्थात संसार छोड़ना शुरू किया’ ऐसा कहना मूर्खता का प्रदर्शन है। 'छोड़ा' उसे कहते हैं, जिसने पहले 'पकड़ा' हो। जिसने कुछ पकड़ा ही नहीं, उसे कुछ छोड़ना होता ही नहीं। प्रभु अनासक्त होने के कारण उनमें संसार था ही नहीं। इसलिए प्रभु ने संसार 'छोड़ा', यह कहना उचित नहीं है।
प्रभु ने पूरे वर्ष दरमियान दान दिया, इसलिए इसे ‘वर्षीदान’ कहा जाता है। जैसे एक वर्ष तक चलने वाली तपस्या को ‘वर्षीतप’ कहा जाता है, वैसे ही इस दान को भी वर्षीदान कहा जाता है।
जब प्रभु वर्षीदान देने का संकल्प करते हैं, तब इंद्रसभा में बैठे इंद्र महाराज का सिंहासन चलायमान होता है। तत्पश्चात् इंद्र महाराज अवधिज्ञान से प्रभु का वर्षीदान का समय जानकर अपने कुबेर नामक लोकपाल देव को आज्ञा देते हैं, और कुबेरदेव तिर्यक जृंभक देवों के माध्यम से प्रभु के राजभवन में सुवर्ण मुद्राओ के ढेर लगाना शुरू कर देते हैं। पूरे वर्ष के दौरान 388 करोड़ 80 लाख स्वर्ण मुद्राएं राजकोष में रखी जाती है। ये स्वर्ण मुद्राएं उन व्यक्तियों की होती हैं, जिनका कोई मालिक जीवित नहीं है, अगर उनका मालिक जीवित है तो उन्हें अपने धन का स्मरण नहीं है। यानी, यह कोई चोरी का माल नहीं है।
रोज-रोज स्वर्ण मुद्राएँ प्रभु के राजभवन में नहीं पहुँचायी जाती, लेकिन वर्ष के मुख्य आठ दिनों में, अर्थात् आठ अवसरों पर, इन स्वर्ण मुद्राओं को प्रभु के राजभवन में पहुँचायी जाती है।
प्रभु के इस वार्षिक दान को "वरवरिका" कहा जाता है। इसका अर्थ है, "जिसे जितना चाहिए, उतना प्रभु से लेकर जाओ" – ऐसी उद्घोषणा।
सूर्योदय से प्रभु दान देना आरंभ करते हैं और मध्याह्न भोजन के समय तक अविराम रूप से यह महादान देते रहते हैं। इसके बाद भी प्रभु दान देना बंद नहीं करते, लेकिन उस दिन जितने याचक आए होते हैं, उन्हें उस समय सीमा के भीतर दान दे दिया जाता है।
सूर्योदय से दोपहर तक के समय में प्रभु 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। यह आंकड़ा न्यूनतम (कम से कम) है। यदि याचकों की संख्या अधिक हो या वे अधिक मांग करें, तो प्रभु इससे भी अधिक दान करते हैं।
प्रभु के दान का प्रभाव ही ऐसा होता है, कि लेनेवाले के भाव पलट जाते है। बहुत सारा माँगने की इच्छा रखने वाले भी जब प्रभु के हाथ से दान ग्रहण करते है। तब उनकी माँगने की इच्छा अल्प हो जाती है। प्रभु के करकमलों से जो प्राप्त हुआ उसे भी 'मुझे बहुत प्राप्त हुआ' यह मानकर प्रसन्न होते है। इसलिए प्रभु कम देते है ऐसा नहीं मान सकते। नाप-तोल के देते है, ऐसा भी नहीं कह सकते।
एक स्वर्ण मुद्रा का वजन 80 रत्ती होता है। इसका मतलब है कि प्रतिदिन 9,000 मन सोने का दान किया जाता है, जो 225 गाड़ियों में भरा जा सकता है, क्योंकि एक गाड़ी में 40 मन सोना रखा जाता है। (1 मन = 40 किलो)
इस प्रकार, 1,08,00,000 स्वर्ण मुद्राएं 3,60,000 किलो सोने के बराबर होती हैं, जो प्रतिदिन प्रभु द्वारा दान किया जाता है। रुपये के मूल्य में देखा जाए तो यह प्रतिदिन 28,80,00,00,00,000 करोड़ रुपये का सोना होता है।
पूरे वर्ष में, प्रभु 3,88,80,00,000 स्वर्ण मुद्राएं दान करते हैं, जो 12,96,00,000 किलो सोने के बराबर है। आज के सोने के मूल्य (₹80,000 प्रति 10 ग्राम) के अनुसार, यह 10,36,80,00,00,00,000 करोड़ रुपये का सोना होता है।
इन स्वर्ण मुद्राओं की एक विशेषता यह भी होती है कि प्रत्येक स्वर्ण मुद्रा के एक तरफ तीर्थंकर के पिता का नाम और दूसरी तरफ तीर्थंकर का नाम अंकित होता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु के हाथों से वर्षीदान प्राप्त करने वाला जीव निश्चित तौर पर भव्य ही होता है।
और दूसरी बात, तीर्थंकर प्रभु के हाथों से महिलाओं को वर्षीदान प्राप्त करने का सौभाग्य नहीं होता। क्योंकि उस समय महिलाएं घर से बाहर नहीं निकलती थीं, इसलिए वे राजसभा में (प्रभु के हाथ से) दान लेने नहीं जाती थीं। प्रभु महावीर के वर्षीदान के समय सोम ब्राह्मण अनुपस्थित थे, और उनकी पत्नी, जो गरीब थीं, फिर भी प्रभु के पास नहीं गईं। उस समय महिलाओं को आर्थिक व्यवहारों में या राजसभाओं में बड़े व्यक्तियों के पास जाने की अनुमति नहीं थी, ऐसी मर्यादा थी। इसलिए...
प्रभु के वर्षीदान के जो छह अतिशय बताए गए हैं, वे इस प्रकार हैं :
1) दान देते समय प्रभु के हाथों में सौधर्म इंद्र द्रव्य प्रदान करते हैं, ताकि प्रभु को दान देते समय कोई श्रम न हो। इंद्र महाराज का आंतरिक भक्ति-भाव यह है कि मेरे प्रभु को ज़रा भी श्रम नहीं होना चाहिए। इसलिए वे प्रभु के हाथों में द्रव्य देते हैं और उनके हाथों में शक्ति का संचार करते हैं।
बाकी अरिहंत तो अनंत शक्ति के स्वामी हैं। जो जन्म के बाद तुरंत ही मेरु पर्वत को भी कंपित कर सकते हैं, वे युवा अवस्था में कैसे श्रमित हो सकते हैं?
जैसे सो रहे हुए सेठ को खुद कंबल ओढ़ने की शक्ति होने के बावजूद, नौकर उन्हें ओढ़ाकर देता है, क्योंकि नौकर के मन में सेवा का भाव होता है। वैसे ही यहाँ इंद्र महाराज भी प्रभु की शक्ति होते हुए भी, भक्ति के भाव से शक्ति का संचार करते हैं।
2) ईशान इंद्र हाथ में रत्नजड़ित सोने की यष्टिका (छड़ी) लेकर पास खड़े रहते हैं। वे चौंसठ इन्द्रों के अलावा अन्य देवताओं को दान लेने से रोकते हैं, क्योंकि केवल विद्याधरों और मनुष्यों को ही प्रभु दान देते हैं। और दान लेने वाले का जो भाग्य होता है, उसी के अनुसार वह इच्छा या मांग प्रभु से करवाते है।
ऐसा क्यों करते होंगे?
तो एक विचार यह आता है कि याचक बहुत कुछ मांग ले, और प्रभु शायद दे भी दे, लेकिन चूंकि याचक का पुण्य नहीं होने से, वह दान उसके पास टिकता नहीं है और फिर वह दुःखी हो जाता है। प्रभु किसी भी जीव को दुःख हो ऐसा नहीं चाहते। जीव अपने भाग्य अनुसार प्राप्त करे, और खुश रहे, इसलिए ईशान इन्द्र ऐसा करते होंगे।
हां, हर बार याचक मांग करे, यह जरूरी नहीं है। लेने वाले की क्या इच्छा है और क्या देने से उसे आनंद होगा, प्रभु इसका अनुमान लगाकर, जीव की योग्यता के अनुसार विवेक पूर्वक दान देते हैं।
अगर कोई राजा, राजकुमार, सेनापति, श्रेष्ठी आदि आते हैं, तो उन्हें गाँव, नगर, ज़मीन, हवेली, मकान, फर्नीचर, वस्त्र, बग़ीचा, हाथी, घोड़ा, रथ, वाहन, आभूषण, मणि, रत्न, अनाज, धान्य, घी-तेल, श्रीफल जैसे फल, सुगंधी द्रव्य आदि भी प्रभु देते हैं।
महादान देकर पूरे जगत को ऋणमुक्त करते है। किसी को किसी का भी कर्ज चुकाने का बाकी नहीं रहता है।
3) बलिन्द्र और चमरेंद्र प्रभु की मुट्ठी में रही हुई सुवर्ण मुद्रा दान लेने वाले की इच्छा (भाग्य) अनुसार क्रमशः न्यून-अधिक करते है। सामान्यतः यह रोज़-रोज़ न्यून-अधिक नहीं करते और यह घटना सभी के साथ होती ही है, ऐसा समझना नहीं चाहिए। और जो न्यून-अधिक करते है, उसमें वे कोई भ्रष्टाचार नहीं करते। विवेकपूर्ण तरीके से वे यह न्यून-अधिक करते हैं।
प्रश्न : प्रभु ने दे ही दिया है तो फिर क्यों यह इंद्र हस्तक्षेप करते है? कम दिया गया हो और उसमें वृद्धि करना तो प्रभु की शोभा में वृद्धि करने वाली बात है, लेकिन द्रव्य को घटाया जाए तो वह कितना उचित लगता है?
उत्तर : थोड़ा सोचने पर ऐसा लगता है कि शायद भाग्य से ज्यादा मिल जाये तो वह सुवर्ण मुद्राएँ व्यक्ति के पास टिकती नहीं है। कहीं न कहीं वह गुम हो जाती है, खो जाती है, लेकिन वह उसका उपभोग नहीं कर सकता। आखिरकार वह उसके पास टिकने वाली नहीं होती है, इसलिए वे ऐसा करते होंगे।
4) अन्य भवनपति देव भरतक्षेत्र के गांव-नगर में जाकर प्रतिदिन इस 'वरवरिका' की उद्घोषणा करते हैं कि "जो तुम्हारे मन में इच्छित है, वह तुम मांगो, जितना तुम माँगोगे, उतना तुम्हें मिलेगा।"
लोगों के मन में इस वर्षीदान को प्राप्त करने के लिए उत्साह जगाते है और उन्हें प्रभु के नगर तक आने के लिए आकर्षित करते है, जिससे वे प्रभु के समीप पहुँचते हैं।
जब गाँव-नगरों से लोग प्रभु का वर्षीदान प्राप्त करने के लिए आते हैं, तब तीर्थंकर के पिता या उनके स्वजन उनकी सुंदर व्यवस्था करते हैं।
शास्त्रों में इस व्यवस्था के दो प्रकार के वर्णन हैं।
1. राजा द्वारा एक भव्य भवन बनवाया जाता है, जिसमें चार बड़े दरवाजे होते हैं। इन चार दरवाजों में चार प्रकार की सुंदर व्यवस्था होती है।
2. तीन अलग-अलग बड़ी दानशालाएँ खोली जाती हैं, जिसमें आगंतुकों के लिए सुंदर व्यवस्था की जाती है।
हम दोनों वर्णन को संयुक्त रूप से समझें, तो बात यह है कि...
"वर्षीदान ग्रहण करने के लिए पधारें हुए महानुभावों को प्रवास की थकान उतारने के लिए सबसे पहले मिष्ठान्न-पकवानों का भोजन परोसा जाता है, फिर सुगंधित और निर्मल जल से स्नान की व्यवस्था की जाती है। इसके बाद उन्हें सुंदर-शाही वस्त्र पहनने के लिए अर्पित किए जाते हैं, और अंत में उन्हें स्वर्ण के अलंकारों से सजाया जाता है या उन्हें नकद धन दिया जाता है।
5) वाणव्यंतर देव दान ग्रहण कर आने वाले मनुष्यों को उनके स्वस्थान पर निर्विघ्न रूप से पहुँचाने का कार्य करते हैं।
क्योंकि अब आये हुए मनुष्यों के पास जोखिम है। सुरक्षा का प्रश्न है। रास्ते में जंगल आदि आते हैं, वहाँ लूट का भय है। और दूसरी बात, दूर-दूर से जब थक कर यहाँ आए तब उनकी तीर्थंकर के पिता या स्वजन द्वारा उत्तम आगता-स्वागता और व्यवस्था की गई थी। लेकिन अब इतना लंबा प्रवास करके थक कर घर जाएँगे तब उन्हें फिर से अपने कार्य में जुड़ने के लिए समय लग जाएगा। प्रभु की करुणा ऐसी है कि “मेरे कारण कोई भी जीव को आंशिक रूप से भी कष्ट न हो।”
6) ज्योतिष इंद्र विद्याधरों को वार्षिक दान का समय बताते हैं। सामान्य मनुष्य से विद्याधर विशिष्ट महानुभावों की श्रेणी में आते हैं, इसलिए उन्हें वार्षिक दान प्राप्त करने के लिए कब आना चाहिए? यह समय बताने का कार्य यही ज्योतिष के इंद्र करते हैं।
अब जानिए प्रभु के वार्षिक दान का उद्देश्य...
प्रभु जो वार्षिक दान देते हैं, वह दो उद्देश्यों से देते हैं।
(1) धर्म प्रभावना (2) अनुकंपा
वर्षीदान लेने के लिए आनेवाले मनुष्यों जब प्रभु का इंद्र भी शर्मिंदा हो जाये ऐसा अद्भुत रूप, राजवैभव, इंद्रों और देवों की सेवा को देखते है, तब उनके मन में यह विचार आता है कि हम संसार में बैठे हैं और ऐसे प्रभु दीक्षा ले रहे हैं? तो क्या संसार में राग करने जैसा है? अंत में, वैराग्य, संयम और जिनशासन की सुंदर प्रभावना लेकर वे जाते हैं।
और जगत के जीवों के प्रति अपार करुणा-अनुकंपा यानी सर्व जीवों के दुःख को दूर करने और सर्व जीवों को सुखी बनाने के लिए प्रभु वर्ष दरमियान प्रतिदिन दान देते हैं।
अंत में, प्रभु के वार्षिक दान में मिली स्वर्ण मुद्राओं का प्रभाव कितना अद्भुत होता है!!
1. 64 इंद्रों के बीच 2 सागरोपम तक कभी भी आपसी कलह नहीं होता।
2. चक्रवर्तियों का भंडार 12 वर्षों तक अक्षय रहता है।
3. रोगियों के रोग समाप्त हो जाते हैं और 12 वर्षों तक नए रोग उत्पन्न नहीं होते।
अहो आश्चर्यम्!!!
Last Seen :
प्रभु के करकमलों से वर्षीदान ग्रहण करने से ‘लाभ’ होता है और ‘लोभ' हो जाता है।
Very detailed information. Thank you
Very nice 👍 thank you for sharing