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आतम सुख अनुभव करो प्यारे




Aatamsukh

बात हमारी है। अबजोपति का वारसदार यानी हमारा आत्मा। उसे सभी कुछ मिल सकता है, शर्त ईतनी ही है कि, उसे बाहर भटकना छोड़ देना होगा और घर में आकर हमेशा के लिए घर पर ही रहने की शपथ लेनी होगी।


और हमारी आत्मा इस वास्तविकता को नजर अंदाज करके मजदूरी करती रहती है।

अर्थोपार्जन की मजदूरी, विषयसेवन की मजदूरी, इंद्रियों को सहलाने की मजदूरी, बाह्य भावों में भटकने की मजदूरी..... उपाधियों की कोई सीमा नहीं है।......नीपजता तो कुछ भी नहीं है।


कोई घर की, विरासत की, अनंत समृद्धि की बात करें तो हमें बिलकुल समझ में नहीं आती है।हमारी बात बस यही ही है। मजदूरी किये बिना, पैसे कहाँ से मिल पायेंगे? विषयों के बिना, विजातीय के बिना, अर्थोपार्जन के बिना सुख कैसे मिल सकेगा? आत्मिक सुख तो समझ के बिलकुल बाहर है।अबजों कि तो आशा ही नहीं है।


दोसौ छूट जायेंगे और बाबाजी की दोनों बातें बिगड़ जायेगी उसकी चिंता लगी रहती है।

दूसरी तरफ हम घर में मात्र पैर रख देंगे और हमारी तमाम विरासत हमें मिली जानेवाली है, यह हकीकत है।मजदूरी करते करते अनंत कालचक्र बीत गये। हम दुःखी - महादुःखी हो गये। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं आया।हमारे सुख के मात्र दो ही स्टेप्स थे। घर को समझना और सब कुछ छोड़- छोड़कर घर में आकर बस जाना।पर हमने ये दो स्टेप्स नहीं लिये तो नहीं ही लिये।


आत्मस्वरूप यह हमारा घर है। आत्मपरिणति यह हमारा घर है। 

शुद्ध आत्मपर्याय यह अंतरंग विश्व की हमारी अर्धांगिनी है। वह रो रही है। और तड़प रही है। 

वह सब कुछ समझती है, और इसी ही लिए यह परिस्थिति उसके लिए असह्य हो गई है। 

हम मजदूरी करते करते पसीना बहा रहे हैं। और वह खून के आंसू बहा रही है। उसका एक एक आंसू अंतर को हचमचा दे ऐसे शब्दों में कह रहा है।


पिया निज महल पधारो रे, करी करुणा महाराज.. पिया..

तुम बिन सुंदर साहिबा रे, मो मन अति दुःख थाय,मन की व्यथा मन ही मन जानत, किम मुख से कही जाय… पिया..


बिना आत्मा के शुद्धता निराधार है। बिना शुद्धता के आत्मा निराधार है। हकीकत में यह दोनों है ही नहीं।बिना सक्कर की मीठाश कहाँ से रहेगी? चाहे गुड़ में... गन्ने में,... कम से कम कोई तो आधार चाहिये ना? अकेली मीठाश कहाँ से मिलेगी? यह है ही नहीं तो कहाँ से मिल पायेगी? बिना शुद्धता के आत्मा यह अनात्मा है।यह निर्जीव है। यह आत्मा है ही नहीं।


याद आता है अध्यात्मसार -

अजीवा जन्मिन: शुद्ध – भावप्राणव्यपेक्षया ।सिद्धाश्च निर्मलज्ञाना, द्रव्यप्राणव्यपेक्षया ।।

शुद्ध भाव प्राण की अपेक्षा से संसारी जीव अजीब है। शुद्ध ज्ञानादि भाव प्राण संपन्न सिद्ध द्रव्यप्राण की अपेक्षा से अजीव है।

बाहर भटके यह संसारी, घर आ जाये वह सिद्ध।

याद आती है वो कहावन -

'घर यह घर, बाकी सारे दर'


छगन ने मगन को पूछा, बाहरगाँव घूमने फिरने से बहोत कुछ जानने को मिलता है। तू धंधे के लिए हर जगह घूमता‌ रहता है। तुझे क्याँ जानने को मिला?


मगन ने कहाँ, "यहीं, कि घर जैसी उत्तम जगह अन्य कोई भी नहीं है।"


पिया निज महल पधारो रे


आप पूरी दुनिया में घूमेंगे.. अनंतकाल तक घूमेंगे, फिर भी आखिर में तो यहाँ ही आना पड़ेगा घर में। अन्य कहीं पर भी ठिकाना नहीं पड़ने वाला है। बाकी हर जगह हैरानगति है। त्रास है। हर जगह हाथ पैर मारकर भी अगर आखिर में तो यहाँ पर ही आना है, तो अभी से ही यहाँ पर क्यों नहीं आ जाते?

घर छोड़कर यहाँ - वहाँ भटकना किसे शोभा देता है? नाही है ये समझदारी की निशानी है, और नाही है ये पुख्तता की निशानी है। सुमता अब यही बात करना चाहती है।


बालभाव अब बिसरी है, ग्रहो उचित मरजाद,आतम सुख अनुभव करो प्यारे, भांगे सादि अनाद... पिया...2

बस, अब बालिशता को भूल जाओ। अब तो उचित मर्यादा का ग्रहण करो। और है प्रिय! अब उस आत्मसुख का अनुभव करो, जिसकी शुरुआत है, अंत नहीं है।

परद्रव्य में रमण करना- यही बालभाव। घर के सिवा हर जगह पर भटकना- यह बालभाव। जिनवाणी को पाकर भी घर में वापिस नहीं आना यह पच्चीस वर्ष के नौ-जवान की अँगूठा चूसने जैसी घटना है।

दर्शन – ज्ञान - चारित्र को समझकर भी दूसरा-तीसरा करना, यह पचास वर्ष के प्रौढ़ की दूध की बोटल पीने जैसी घटना है। आत्मा को समझकर भी आत्मा में डूबकी नहीं लगाना।वह पचपन वर्ष के भाई की झूले में सो कर ऊॅंवा-ऊॅंवा वाला करने जैसी घटना है।


एसी घटनाओं को देखकर हमें जितना आश्चर्य होता है उतना ही आश्चर्य ज्ञानिओं को हमारी घटनाओं को देखकर होता है। और फिर भी हमें हमारा जीवन बेहूदा नहीं लगता है। यह हमारी बालिशता का पक्का सबूत है।


बालभाव अब बिसरी है, ग्रहो उचित मरजाद


जहाँ औचित्य या मर्यादा का अवकाश नहीं होता है, उसका नाम बालिशता। जहाँ औचित्य और मर्यादा के सिवा कुछ भी नहीं जमता हो उसका नाम परिपक्वता। कब तक हम ऐसा पागलपन करते रहेंगे? जरा रुककर हम अपने आपसे पूछेंगे, क्याँ यह हमें शोभा देता है? क्याँ हम इस सब के लिए बने है? क्याँ हमें ये सब करना था? हमें क्याँ करना चाहिये था?


आतम सुख अनुभव करो प्यारे, भांगे सादी अनाद


कर्तव्य एक ही है, आत्मसुखानुभव। उसके सिवा और कुछ भी नहीं। यह निश्चय नय है। व्यवहार नय से जो उस कर्तव्य का संधान कर दे, वह भी कर्तव्य है।

पू. हरिभद्रसूरि महाराजा कहते है-


उपेयसाधकत्वे उपायस्य तत्त्वात्


उपेय जिससे मिल सकता है वह उपाय खुद भी उपेय बन जाता है।

अर्थात् साध्य जिससे मिल सके वह साधन भी खुद साध्य बन जाता है। पहले उसे साधना पड़ेगा। उसके बाद ही साध्य को साध सकेंगे।

उपेय है आत्मसुखानुभव। उपाय है रत्नत्रयी की आराधना।

याद आता है अध्यात्मसार


ज्ञानदर्शनचारित्रै-रात्मैकयं लभते यदा ।कर्माणि कुपितानीव, भवन्त्याशु तथा पृथक् ।।


जब आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र के साथ ऐक्य प्राप्त करता है, तब कर्म जैसे कि रुठ गये हो, वैसे दूर हो जाते हैं।

कर्म टल जाये, शुद्ध स्वरूप मिले तो आत्मसुख का अनुभव तो होने ही वाला है। और वह अनुभव होगा सादि अनंत। उसका भांगा यानी कि उसका प्रकार यह होगा- उसकी शुरुआत होगी। अंत नहीं होगा।


भांगे सादि अनाद


एक इंसान का घर स्वादिष्ट वानगीओं से भरा हुआ है। वह उसके पाड़ोसी की डोरबेल बजाता है। और कहता है, "बहुत भूख लगी है।"  कुछ खाने को मिलेगा? पड़ोसी कहते है, "क्यों हमारी मजाक कर रहे हो? आप आपके बने हुए पकवान खाओ ना? आप के पास जो है, वह तो हमारे पास है ही नहीं। उसका हजारवाँ हिस्सा भी हमारे पास नहीं है।" बात यह है। तू तेरा खाँ।


आतमसुख अनुभव करो प्यारे


कल्पना करते है,

पैसा हमें कहता है- 'तू खुद से श्रीमंत बन।'

स्त्री हमें कहती है- 'तू खुद को भोग'।

होटल्स हमें कहती है- 'तू खुद की ज्याफत उड़ा'।

बंगला हमें कहता है- 'तू खुद में ऐश कर'।

हिलस्टेशन और रिसॉर्ट हमें कहते हैं- 'तू खुद में फिर'।

बेटा हमें कहता है- 'आप खुद को लाड़ लड़ाओ'।

पत्नी हमें कहती है- 'आप खुद से व्याह रचाओ'।

धंधा हमें कहता है- 'तू खुद को कमा ले'।

दुकान हमें कहती है- 'तू खुद को नगद कर ले'।

स्कूल कोलेज में हमें कहते हैं- 'तू खुद ही को पढ़ ले'।

सेंट-परफयुम्स हमें कहते हैं- 'तू खुद को सुंघ ले'।

टी.वी., सिनेमा, मोबाइल हमें कहते हैं-'तू खुद को देख ले'।

दुनियाभर का संगीत हमें कहता है, 'तू खुद की सुन ले’‌।

दुनियाभर की कोमल वस्तुएँ हमें, कहती है, 'तू खुद की स्पर्शना कर ले'।

दुनियाभर के विशेषण हमें कहते है, 'तू खुद की अस्मिता से विशेषित बन जा'।

दुनियाभर की सिद्धियाँ हमें कहती है, 'तू खुद को साध ले’।

वे सारे ही इकट्ठे होकर उस पाड़ोशी की तरह हमसे कहते है, "क्यों हमारी मजाक उड़ा रहे हो जो आपके पास है, वह तो हमारे पास है ही नहीं। उसका अनंतवाँ हिस्सा भी हमारे पास नहीं है।"

आतमसुख अनुभव करो प्यारे


विशिष्ट खाद्य सामग्रियों से घर भरपुर पड़ा हो,  तब तुच्छ क्षणिक भ्रान्तिपूर्ण सुख के लिए विषयों के पास हाथ फैलाना, यह पड़ोशी की मजाक उड़ाने के बराबर है, एसा पड़ोशी भले ही कहता हो, गंभीरता से सोचोंगे तो समझ में आ जायेगा कि, हकीकत में तो वह खुद की मजाक करने बराबर है।

अक्षय, अव्याबाध अनंत सुख से आत्मस्वरूप (छलक रहा हो) भरा पड़ा हो, तब तुच्छ क्षणिक भ्रान्तिपूर्ण सुख के लिए विषयों के पास हाथ फैलाना, यह हकीकत में विषयों की नहीं, पर खुदके आत्मा की ही ठिठौरी है। बहुत ही क्रूर उपहास एक करोड़पति भिखारी के पास हाथ फैलायें उसके जैसी यह घटना है। करोड़पति को भिखारी की कोई भी जरूरत नहीं है। आत्मा को विषयों में कोई भी रस नहीं है।

याद आता है प्रवचनसार -


तिमिरहरा जई दिठ्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं। तह सोकखं सयमाया विसया किं तत्थ कुव्वंति।।

यदि ईष्ट ही अंधकार का भेदन करता है। तो दिये का क्याँ काम है? आत्मा स्वयं ही सुख है, तो विषयों का क्याँ काम है?


याद आता है हृदयप्रदीप -


तावत्सुखेच्छा विषयार्थभोगे यावन् मनः स्वास्थ्यसुखं न वेत्ति। लब्धे मनः स्वास्थ्यसुखैक्लेशे, त्रैलोक्यराज्येऽपि न तस्यै वाञ्छा।।


विषयों को भोगने की इच्छा तब तक ही है जब तक मन की स्वस्थता के सुख को पहचाना नहीं है। उस सुख का एक अंश भी मिल जाये तो तीनलोक के राज्य की ओफर हो जाये, तो भी उसे लेने की इच्छा नहीं होती है।

 

(क्रमशः)

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