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जिनशासन को हार्ट-अटैक

  • Nov 11, 2020
  • 3 min read

Updated: Apr 12, 2024



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बात हृदय की…

हृदय में जिनशासन की स्थापना हेतु…

जिनशासन के हृदय का

परिचय होना आवश्यक है,

वह न होने से

जिनशासन की उपेक्षा होती है…

अवगणना होती है…

वह अकुंचित हो जाता है…

और

अन्ततः जिनशासन को

हार्ट-अटैक आ जाता है ।

कईं दफ़ा ऐसा अटैक सिवियर भी होता है ।

वैसे तो हम

जिनशासन का सत्कार ही करते हैं…

लेकिन वह सिवियर अटैक में से

गुजर रहा है,

इसका हमें ख्याल ही नहीं आता ।

यदि हम हार्ट को ही नहीं समझ सकें,

तो हार्ट अटैक को किस प्रकार से समझ सकते हैं ?

चलो, तो फिर आज समझते हैं…

“हार्ट जिनशासन”

मोक्ष जाने के लिए कदाचित् सर्वप्रथम

हमें यही समझने की आवश्यकता है ।

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अमारि

अहंकार भी मछलियों के लिए बुनी हुई एक प्रकार की जाल है… आग्रह यह भी एक प्रकार से कसाई की छुरी है… पसन्द भी एक प्रकार से लघु हत्या है… और द्वेष एक प्रकार की मार-पीट होती है…

विभाव विमुख स्वभाव-सन्मुख व्यक्तित्व यह नैश्चयिक अमारि प्रवर्तन है ।

स्मरण आता है योगशास्त्र-

“स्निह्यन्ति जन्तवो नित्यं वैरिणोऽपि परस्परम् ।

अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रभावतः ॥”


वैरी जीव भी…

परसपर स्नेह करते हैं ।

यह प्रभाव है…

स्वार्थ के लिए भी समतामग्न बननेवाले

महात्माओं का…


 मैत्री-भावना यह विचार अमारि है, मीठी वाणी की बोली अमारि है, मुनिचर्या यह आचार अमारि है…

जिसमें इन तीनों का संगम है, वह स्वयं अमारि प्रवर्तन है । अमारि प्रवर्तन करना यह साधना है, अमारि प्रवर्तन की निर्मिती यह सिद्धी है । व्यवहार यह निश्चय की शुद्धि है, निश्चय यह व्यवहार की पुष्टि है ।

भीतर की छुरी की धार निस्तेज हो जाए तो बाहर काँट-छाट होना शक्य ही नहीं है । कषाय यह भीतरी कसाई है, बाह्य धर्म यदि ढक्कन बनकर उस कषाय को आच्छादित करें तो वह कसाई बहुत ड़र जाता है ।

अमारि सिवाय का धर्म यह धर्म नहीं होता, भीतर के मारि का आवरण होता है ।

धर्म का आवरण के रूप में उपयोग करना, यह धर्म का दुरुपयोग है ।

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साधर्मिक

पति से बंधे हुए रिश्ते के साथ ही ससुराल के साथ भी संबंध जुड़ जाता है । वैसे ही धर्म के साथ स्थापित संबंध से संघ के साथ रिश्ता भी अपने आप बंध जाता है । निश्चय की दृष्टि से पति और ससुराल दोनों ही समानार्थी शब्द है । निश्चयदृष्टि से ही धर्म और साधर्मिक ये दो शब्द भी समानार्थी है ।

छगन की पत्नी का उसकी सास के साथ झगड़ा हुआ । वह उसे जो मुँह में आए वैसा अनाब-शनाब बोलने लगी । तब सास ने उसे कहा, “तु एक संस्कारी खानदान की बहु है, इसका स्मरण रहें !”

छगन की पत्नी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा, “बहु नहीं ! पुत्री कहो, पुत्री !”

ससुर का अपमान यह पति का ही अपमान है । साधर्मिक का अपमान यह धर्म का ही अपमान है ।

“मेरे लिए मेरे पति तो देव हैं, परमेश्वर हैं । बस… केवल उनकी माँ अच्छी नहीं है, उनके पापा का ठिकाना नहीं होता, उनका घर विचित्र है, उनका भाई धूर्त है, उनकी बहन डेढ़-शहाणी है, उनकी भाभी एकदम बेवकूफ़ है…।”

ऐसी मान्यता वाली पत्नियों के ख्याल में यह बात नहीं आती कि हकीकत में इस प्रकार के सभी अपशब्द वह अपने पति परमेश्वर को ही दे रही हैं ।

– यदि पति परमेश्वर है, तो उसके साथ जुड़े हुए भी सभी परमेश्वर ही…

– यह भूमिका कुलवधू को कुलवधू बनाती है ।

–  यदि वासुपूज्य दादा परमेश्वर है, तो उनसे संबंधित भी सभी परमेश्वर ही…

– यह भूमिका जैन को वास्तव में ‘जैन’ बनाती है ।

ससुराल में से किसी एक के साथ भी मन-मुटाव हो, तो कुलांगना यह कुलांगना है ही नहीं…

वैसे ही यदि किसी एक जैन के लिए भी हमारे हृदय में शिकायत हो, तो फिर हम जैन है ही नहीं…

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