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‘मैंने कुछ भी नहीं किया है।’

Updated: Apr 8, 2024



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संघ संवेदना

परम पावन श्री भगवतीसूत्र में एक घटना का वर्णन है। चमरेन्द्र के अपराधी सिद्ध होने के कारण सौधर्मेन्द्र ने उन पर वज्र छोड़ा। बाद में ख्याल आया कि वे तो भगवान की शरण में थे। प्रभु के शरणागत पर वज्र छोड़ा, इसके पश्चात्ताप के साथ सौधर्मेन्द्र दौड़े। गज़ब के वेग के साथ असंख्य योजन के अंतर को काटा। उधर चमरेन्द्र मच्छर जितना छोटा रूप करके भगवान के दो पैरो के बीच में घुस गए। वज्र उनसे चार अंगुल ही दूर था, कि तब आनन-फानन में सौधर्मेन्द्र ने तीव्र गति से आकर वज्र को पकड़ लिया।

एक ओर चमरेन्द्र, शक्र के भय से काँप रहे थे, तो दूसरी ओर शक्र प्रभु की आशातना के कारण अत्यन्त व्यथित हो गये थे। शक्रेन्द्र ने प्रभु को प्रदक्षिणा दी, मस्तक झुकाकर वंदन किया, और बिलख-बिलख कर रोने लगे, “प्रभु! मुझे माफ करो! मुझे पता नहीं था कि वे आपकी शरण में आये हुए थे। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। आपके भक्त पर मैंने वज्र छोड़ा!” शक्र ने चमरेन्द्र को भी क्षमा दी और कहा ‘अब मुझसे तुम्हें कोई भय नहीं है।’

जो प्रभु का भक्त है, उसके हजार गुनाह या दोष गौण हो जाते हैं। और उसकी आशातना में प्रभु की आशातना हो जाती है। यह प्रभु का भक्त है, उसमें ही सब कुछ आ जाता है। ऐसा स्पष्ट संदेश भगवतीसूत्र देता है।

भगवतीसूत्र में प्रभुवीर कहते है कि, ‘शक्र संघ का हितकामी है इसलिए एकावतारी है।‘ प्रभु ऐसा नहीं कहते हैं कि पूर्वभव की घोर साधना के कारण शक्र एकावतारी हैं। प्रभु दूसरी उत्कृष्ट आराधनाओं से भी संघ के प्रति के अहोभाव को, हितभावना को ज्यादा महत्त्व देते हैं।

दुन्यवी सूत्र है – सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते

सारे गुण ‘सोने’ में है, पैसा है तो ही सारे गुण हैं।

शासन का सूत्र है – सारे ही गुण संघ बहुमान में है।

तीन दोष ऐसे हैं जो संघ बहुमान में विघ्न कर्ता हैं। 

कर्तृत्वाभिमान

‘मैंने किया’।

जिनशासन को समझेंगे तो इस शब्द को भूल जायेंगे। जिनशासन की शुरूआत ही ‘नमो’ से होती है। और हमारी बातों की शुरुआत ही ‘मैंने ये किया और मैंने वह किया’ से होती है। 

निश्चय दृष्टि से ‘मैंने किया’ – यह मिथ्यात्व है।

‘देव-गुरु-पसाय’ से हुआ, यह सम्यक्त्व है।

आपने संघ के कितने काम किए, उसका गणित रखा, यह भी एक तरह का परिग्रह है। सुकृत अनुमोदना अलग है, और कर्तृत्वाभिमान अलग है। 

‘मैंने बहुत किया पर मुझे उसका बदला नहीं मिला; यह विचार इस बात का प्रूफ है, कि हमने संघ की सेवा नहीं की थी, सौदा किया था। ‘मैं करूंगा तो मेरे तरीके से ही करूँगा।’ यह वृत्ति साबित करती है कि हमें संघ सेवा से ज्यादा अहं-सेवा में रुचि है।

दुनिया की कोई भी माँ ने अपने बेटे की कितनी सेवा की उसकी गिनती नहीं रखती है। और ना कहीं बोलती है कि मैंने नौ महीने इसका भार उठाया, मैंने मौत के जैसी पीड़ा सहकर उसे जन्म दिया। मैंने पूरे दिन घर का काम करके रात को उसके रोने पर रतजगा किया। हजारों बार मेरे हाथों से उसकी गंदगी साफ की। हजारों बार उसके बिलकुल विचित्र बरताव को सहन किया। मेहनत-मजदूरी करके उसकी इच्छाएँ पूर्ण की। मैंने फटे हुए कपड़े पहनकर उसके शौक़ पूरे किए। ऐसा कोई माँ सोचती भी नहीं है। माँ यानी निस्वार्थ सेवा, माँ यानी निर्लेप सेवा, माँ यानी निर्गणित सेवा, माँ यानी नि:कर्तृत्व सेवा, माँ यानी शून्य बनकर की जाती सेवा, माँ यानी समर्पण में न्यौछावर हो गई सेवा, माँ यानी बेशुमार उपकारों के बदले में बेहिसाब अपकारो को सहन करने के बाद भी सेवा करने के लिए तत्पर सेवा।

‘बेटे’ के लिए माँ की ऊँचाई को छूने पर भी आत्मा का मोक्ष नहीं होता है। उलटा पुत्रमोह से संसार बढ़ता है। ‘संघ’ के लिए जब वात्सल्य भाव उमड़ेगा और ‘संघ के लिए’ माँ की ऊँचाई को छू सकेंगे तब मोक्ष मिलता है।

संघ के लिए अरबों रूपये खर्च करके हर तरह से संघ का मंगल करने में पूरी जिंदगी लगा देने वाले वस्तुपाल के अंतिम समय के उद्गार थे:

कृत नं सुकृतं किञ्चित् सतां संस्मरणोचितम्।

मैंने ऐसा कोई भी सुकृत नहीं किया है, जो सज्जनों के याद करने लायक हो।

मुस्लिम बादशाह की खान में से जो प्रतिमा के लिए शिला प्राप्त कर सके, महात्मा को तमाचा मारने वाले राजा के मामा के भी जो हाथ की उँगलियाँ कटवा सके, एक जीवन में जिनशासन की सौ जीवन जितनी सेवा जिन्होंने की थी, वह व्यक्ति ऐसी बात कहता है। 

कृत नं सुकृतं किञ्चित् सतां संस्मरणोचितम्।

मनोरथैक साराणां मेवमेव गतं वयः ।।

मैंने कुछ भी ऐसा सुकृत नहीं किया है, 

जो सज्जनों को याद करने जैसा हो। 

बस हम तो मनोरथ करते रहे

और हमारी उम्र ऐसे ही कटती रही।

हमारी शुरूआत ही ‘मैंने किया’ वहाँ से होती है। जीवन के आखिरी दिन पर भी जिनके शब्द थे – ‘मैंने कुछ नहीं किया’ ऐसे वस्तुपाल महामंत्री ने कितने सुकृत किए? पता है?

1313 नूतन जिनालय, 3300 प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार, 1,25,000 नूतन जिनप्रतिमा, 700 दानशालाएँ, 984 उपाश्रय, 100 ज्ञानभंडार, 100 पत्थर की प्याऊ, 300 ईंट की प्याऊ – जिसमें श्रावक पानी छानते थे। (तो उनकी तुलना में हम कहाँ हैं संघसेवा में?) 

और उनका कहना है – ‘मैंने कुछ भी नहीं किया है।’

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – माता के घर में तखती लगाना।

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – पिता की सेवा करके रसीद माँगना।

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – भगवान को आंगी का बिल देना।

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – साधर्मिक को खाना खिलाकर, उनको खिलाने में, कौन-सी आइटम का कितना खर्चा हुआ यह बताना। 

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – दान की रसीद की गठरी बांध कर पूरी जिंदगी सर पर लेकर घूमना।

कर्तृत्वाभिमान का अर्थ है – स्वद्रव्य के स्टेज पर खुद के हाथों से बनायी हुई माला, स्वहस्त से पहनकर स्वहस्त से तालियाँ बजाना।

‘अधूरा घड़ा छलकता है’, ‘थोथा चणा, बाजे घणा’, ‘सोने से कांसे की आवाज ज्यादा होती है’ यह सभी किंवदंतियाँ क्या हम पर लागू नहीं होती? 

कर्तृत्वाभिमान यानी : गाड़ी के नीचे चलता हुआ कुत्ता, जो मानता है कि यह ठेला वह उठाकर चल रहा है।

मैं करूँ मैं करूँ यही है अज्ञानता ,

शकट का भार जैसे श्वान खींचे …..

यह कुत्ता कम से कम हमारे से तो अच्छा ही है। हम तो जिस गाड़ी में बैठे हुए हैं, उसी को हम उठाकर चलते हों, ऐसी हमारी अंतर्गत मान्यता हो चुकी है। जिस संघ में हमने जन्म लिया, जिस संघ में हम बड़े हुए, जिस संघ ने हमें आराधना करने के बेशुमार आलंबन दिये, जिस संघ ने हमारे भीतर में धर्म को जन्म दिया, और इस धर्म को निरंतर ऑक्सिजन देता रहा, ऐसा संघ जैसे कि हमारे कारण ही चल रहा है। इतनी नीची भूमिका तक हम पहुँच गये? 

शांति से इतना सोचेंगे तो हमें कभी भी ऐसा नहीं लगेगा कि हमने संघ की सेवा करके कुछ उपकार किया है। अरबों रूपये देने वाले को कोई 1 रूपया दे दे  तो भी वह दाता नहीं कहलाता है। अरे! वह रूपया भी हकीकत में तो हमने हमारी आत्मा को ही दिया होता है। क्योंकि इससे हमारी आत्मा का हित होता है। 

हमारे सत्कार्य वस्तुपाल के कितने हिस्से में? और हमारा दिखावा उससे कितना गुना बड़ा ? वस्तुपाल ने पूरी जिंदगी में कोई दिखावा नहीं किया था। एक महात्मा ने उनके जीवन पर – उनके सुकृतों पर एक पूरे ग्रंथ की रचना की। महात्मा श्री जिनहर्षगणि द्वारा रचित ग्रंथ – श्री वस्तुपाल चरित्र। ग्रंथ के 270 पन्ने हैं। इसके पन्ने-पन्ने पर वस्तुपाल की कीर्ति-पताका लहरा रही है। इसके अंत में यह कहा है कि जो शाश्वत देवों के श्वासोच्छ्वास गिन सके, वही वस्तुपाल-तेजपाल के सुकृतों को गिन सकता है। 

संघ का कार्य करने के बाद, हमें जब ऐसा लगे कि हमने संघ पर उपकार किया है। तब हमारी आत्मा पर हुआ उपकार रद्द हो जाता है। संघ का कार्य करने के बाद प्रशंसा चाहिये, मतलब सेलरी चाहिये, माला चाहिये मतलब बोनस चाहिये, पद चाहिये मतलब गोल्डन पेराशूट चाहिये, सत्ता चाहिये, मतलब भागीदारी चाहिये, एकाधिकारी सत्ता चाहिये मतलब मालिकाना अधिकार चाहिये होता है। यदि हमारी यही भूमिका है तो हमने सेवा की, ऐसा कैसे कह सकते हैं?

कर्तृत्वाभिमान भीतर की गंदगी है, जिससे इन्सान बदबूदार हो जाता है। कुछ करके शोर नहीं करने वाला और मौन रहने वाला व्यक्ति सह्य होता है, शोभास्पद बनता है। और करके भी कुछ नहीं किया है, ऐसा बोलने वाला व्यक्ति वंदनीय होता है।

( क्रमशः)

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