
कुरु प्रदेश की रानी राक्षसी प्रवृत्ति की थी। उसे दूसरों को बिना किसी कसूर के भी दुःख पहुँचाकर आनंद मिलता था। एक बार जब गौतम बुद्ध के इस प्रदेश से गुजरने का समाचार मिला, तो रानी ने बुद्ध का अपमान करने की योजना बनाई और अपने नौकर-चाकरों को इसके लिए तैयार कर दिया।
जब बुद्ध ने इस प्रदेश में प्रवेश किया, तो वहां के लोगों ने बुद्ध पर चोर, गधा, ढोंगी आदि जैसे अपशब्दों की वर्षा कर दी। बुद्ध, अपने शांत चित्त और धैर्य के साथ, बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ते गए।
लेकिन उनके प्रिय शिष्य आनंद से यह असहनीय था। उसने व्याकुल होकर बुद्ध से प्रार्थना की, “हे भगवंत! हमें इस नगर को तुरंत छोड़ देना चाहिए।”
बुद्ध ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में पूछा, “आनंद, कहां जाना चाहिए? बताओ।”
आनंद ने उत्तर दिया, “प्रभु! हमें ऐसे नगर में जाना चाहिए, जहां कोई आपको अपशब्द कहकर अपमानित न करे।”
बुद्ध ने गंभीरता से कहा, “आनंद, यदि उस दूसरे नगर में भी कोई हमारा अपमान करेगा, तो क्या करोगे?”
आनंद ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “तो फिर किसी और नगर में चले जाएंगे।”
बुद्ध ने आनंद के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "नहीं, आनंद! हमें किसी अन्य नगर में नहीं जाना है। यहीं रहना है। जिस स्थान पर हमारा अपमान हो रहा हो, उस स्थान को तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक हम अपने जीवन और कर्मों के द्वारा उस अपमान को सम्मान में न बदल सकें। ऐसा कर पाना ही मनुष्य जन्म की सच्ची सफलता है।
लोग अपने वश में किए हुए घोड़े, हाथी आदि को उत्तम मानते हैं। लेकिन, आनंद! ऐसे पशुओं को वश में करने वाले या हज़ारों-लाखों लोगों को वश में करने वालों से भी श्रेष्ठ वही है, जो स्वयं को वश में रखता है।
यदि हम अपने आस-पास के लोगों, अपने अधीनस्थों या अपने परिवार के सदस्यों को नियंत्रित करने के बजाय स्वयं को नियंत्रित करना सीख जाएं, तो हम अपने जीवन को सच्चे अर्थों में जीत सकते हैं।"
श्रमण भगवान महावीर स्वामी भी श्री उत्तराध्ययन सूत्र में यही उपदेश देते हैं—“अप्पा चेव दमेअव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोए परत्थ य।।’’
हाथी, घोड़ा, सिंह, वाघ, पुत्र, पत्नी या प्रजा को वश में करना सरल हो सकता है, परंतु आत्मा को वश में करना अत्यंत कठिन है। इसलिए आत्मा को वश में करना चाहिए। जो आत्मा को वश में करता है, वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी रहता है।
आत्मा को वश में करना क्या है?जहां राग, द्वेष या मोह उत्पन्न हो, ऐसे कारणों से दूर रहना चाहिए। पांचों इंद्रियों और मन के जो प्रिय और अनुकूल विषय हों, उनसे दूरी बनाए रखना चाहिए। आत्मा को वश में करना अर्थात अपनी
इच्छाओं और वासनाओं पर नियंत्रण पाना है। यह कार्य अत्यंत कठिन है, परंतु ऐसा करने वाला ही सच्चा साधक है।
भगवान महावीर स्वामी ऐसे आत्मवश साधक को ही महान कहते हैं और उसके जीवन को सार्थक और सफल मानते हैं।
आइए, हम भी संकल्प लें:"मैं प्रतिदिन अपनी पांच इंद्रियों में से किसी एक के अनुकूल विषय का त्याग करूंगा और आत्मा को वश में करने का प्रयास करूंगा।"
Very nice