रामायण का प्रसंग है।
रावण को परास्त करके, लंका को जीतकर रामचंद्रजी अयोध्या में वापिस आ गये। लोगों के कहने से उन्होंने सीताजी को वन में भेज दिया। सीताजी गर्भवती है। वन में वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में रहते है। एकबार सीताजी पानी भरने के लिए नदी पर जा रहे थे। वहाँ पैर फिसला और वे गिर गये। वाल्मीकि ऋषि ने यह देखा और उनको खड़ा किया।
फिर उन्होंने कहा, आप इतना बोल दो कि मुझे न्याय दिलाओ।
मैं अयोध्या जाकर रामचंद्रजी को पूछूँगा। ‘सीताजी ने क्या गुनाह किया है? कि आपने उनको निकाल दिया?’ हम आपको न्याय दिलाएंगे।
सीताजी ने कहा, बापू! भोजन कौन माँगता है?
वाल्मीकि ने कहा, जो भूखा है।
सीताजी ने पूछा, पानी कौन माँगता है?
वाल्मीकि ने कहा, जो प्यासा है।
सीताजी ने पूछा, न्याय कौन माँगता है?
वाल्मीकि ने कहा, जिसको अन्याय हुआ हो।
सीताजी ने कहा, बस पिताजी! मुझे यही कहना है कि जिसको अन्याय हुआ हो वोही न्याय माँगता है। मेरे साथ अन्याय हुआ ही नहीं है। फिर क्यों मुझे न्याय माँगना चाहिए? पूर्वजन्म में मैंने ऐसा कोई अपकृत्य किया होगा, वह पापकर्म उदय में आकर आज उसका परचा दिखा रहा है।
उसमें मेरे स्वामीनाथ ने मुझ पर कहा अन्याय किया है? वे तो निमित्त मात्र है। मेरे ही कर्मों का फल मुझे मिला है। उसे समभाव से सह लेने में ही समझदारी है। मेरे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ है। उल्टा कुदरत ने जो न्याय किया है, उसका मुझे स्वीकार करना है और मैंने उसे स्वीकार लिया है।
सीताजी की बात सुनकर वाल्मीकि जी मन ही मन उनके सहनशीलता की वंदना करते रहे।
रामचंद्रजी ने सीताजी को वन में छोड़ दिया फिर भी सीताजी ने कभी-भी उसके लिए कोई भी फरियाद नहीं की, अपने लिए न्याय नहीं माँगा।
रामचंद्रजी के प्रति दुर्भाव नहीं किया, दुःखी नहीं हुए, उदासीन नहीं हुए। समतापूर्वक उन्होंने उस परिस्थिति को सहन किया। कर्मों के गणित को आगे किया। जिनवचन और जिनसिद्धांतों पर की श्रद्धा अडिग रखी।
हमें भी यह सिखना है कि,
कभी भी कोई हमारा अपमान – अवज्ञा, आज्ञाभांग या अपेक्षाभंग करे, कोई नुकसानी में उतार दे या रुपये दबा दे, कोई कठोर – कटाक्ष भरे वचन कह तब हम मानते हैं कि ‘मुझे अन्याय हुआ है।’
पर सीताजी का गणित हमें स्वीकारना ही है कि ‘कुदरत का न्याय बराबर है’
1) जो हो रहा है वह बराबर ही होता है।
2) मेरा कर्तव्य समता रखना है, आयी हुई परिस्थिति में मन को जरा भी बिगाड़े बिना उसे सहन करना है।
3) X, Y, Z कोई दुष्ट नहीं है, मात्र मेरे कर्मों ही दुष्ट है।
4) परिस्थिति हमारे हाथ में नहीं है, पर मनःस्थिति को प्रसन्न रखना यह हमारे हाथ में है।
तो चलिए संकल्प करते हैं कि,
“हम कभी भी अन्याय की फरियाद नहीं करेंगे और कभी-भी न्याय की याचना नहीं करेंगे।”
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