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दिव्य प्रेम

  • Apr 15, 2021
  • 2 min read

Updated: Apr 7, 2024



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एक गाँव में एक छोटा-सा बालक अपनी विधवा और गरीब माँ के साथ रहता था। एक बार निकट के गाँव में मेला लगा हुआ था। बालक की मेले में जाने की बहुत इच्छा थी। माता ने मजदूरी करके, और बचत की हुई रकम में से 2 रुपये बालक को दिये। बालक खुश होकर मेले में गया। शाम को घर वापस लौटा।

माता ने पूछा, ‘बेटे! मेले से क्या खरीद कर लाया? मेले में क्या किया? झूले में बैठा? नहीं?

गन से गुब्बारें फोड़े?

नहीं?

रगड़ा-पेटिस, पानी-पूरी खायी?

नहीं?

तो 2 रूपयों का क्या किया।

बालक बोला, ‘मम्मी! तू आँख बंद कर, तो दिखाता हूँ।’

माता ने आँखें बंद की, हाथ खुले किये; बालक ने मम्मी के हाथ में लोहे का चिमटा रख दिया।

माता ने कहा, ‘ये तूने क्या किया? झूले, गुब्बारे, पानी-पूरी या आइसक्रीम में पैसे क्यों खर्च नहीं किये?’

बालक ने कहा, ‘मम्मी! मैं पिछले कईं सालों से देख रहा हूँ। तू विधवा है, मजदूरी करके मुझे पढ़ा रही है। दूसरों के घरों में काम कर रही है। घर में तू मुझे रोटी बनाकर खिलाती है, तब गरम तवे को पकड़ने के लिए हमारे घर में एक पकड़ या चिमटा नहीं है; इसलिए तू कपड़े से तवा पकड़ती है और कभी-कभी तेरी उँगलियाँ जल जाती है। “जब तक मेरी मम्मी के हाथ में चिमटा ना आये तब तक मैं झूले में बैठने का सोच भी कैसे सकता हूँ?” बोलते-बोलते बेटा रो रहा था, और सुनते-सुनते माँ रो रही थी।

इसे कहते हैं “दिव्य प्रेम!” “निस्वार्थ प्रेम !”

प्रेम यानी

» अपनी जरूरतों को न बताना और सामने वाले की जरूरतों को समझ लेना,

» सुखी होने की घटना नहीं, पर सुखी करने की मानसिकता,

» याचना की बात नहीं, पर भावना की बात हो,

» समर्पण हो, देखभाल हो, मरकर भी जतन हो,

» सामने वाले की कदर और संभाल हो,

» प्रेम दिखावे की चीज नहीं है, पर भीतर की अमीरी है।

» प्रेम करना कला है, प्रेम निभाना साधना है।

» प्रेम सहन करना सिखाता है, प्रेम संविभाग करना सिखाता है।

जैनशासन तो यहाँ तक कहता है,

“दु:खितेषु दया अत्यन्तं”

“धर्म रुपी राजमहल का प्रवेशद्वार ही जीवों के प्रति प्रेमभाव, मैत्रीभाव और दयाभाव है।

केवल ‘स्व’ और ‘स्वजन’ का ही विचार नहीं पर ‘सर्वजीव’ का विचार करें उसे ही जैनशासन में प्रवेश है।

मंदिर में भगवान के गर्भगृह तक पहुँचने के लिए, पहले रंगमंडप से गुजरना पड़ता है‌, वैसे ही जीव मैत्री रूप रंग-मंडप में से गुजरे बिना सही अर्थ में जिनभक्ति रूपी गर्भगृह तक नहीं पहुँच सकते हैं।

तो चलो, आज से संकल्प करते हैं, कि

अब जगत के सर्व जीवों के साथ निस्वार्थ प्रेम, निर्मल प्रेम का संबंध बाँधूँगा। कोई मेरा अपमान करे, मेरे साथ अन्याय करे, मेरी अपेक्षा भंग करें

तो भी उसके साथ द्वेष या वैर की गाँठ नहीं बाँधूँगा।

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