top of page

आत्मीयता की संवेदना

  • Apr 11, 2021
  • 5 min read

Updated: Apr 8, 2024



ree

स्वामित्वाभिमान

जिसमें कुछ पाने की वृत्ति है, या पा लेने का गुमान है। 

मैं आपको पूछता हूँ – संघ की सेवा करके हमें चाहिये क्या? नाम, पद, प्रशंसा, वाहवाही, हार-तोरे? यदि हाँ, तो इसका मतलब यह हुआ कि हमें चंदन को जलाकर राख चाहिये। वस्तुपाल जीवन के आखिरी दिन पर जो प्रार्थना करता है, वह यह है:

यन्मयोपार्जितं पुण्यं, जिनशासन सेवया। 

जिनशासन सेवैव, तेन मेऽस्तु भवे भवे।।

जिनशासन की सेवा से मैंने जो कुछ भी पुण्य उपार्जन किया हो, उससे मुझे भवोभव जिनशासन-सेवा की प्राप्ति हो।

सेवा के बदले में यदि हमें कुछ चाहिये, इसका अर्थ यह है कि जो चाहिये वह चीज सेवा से ऊँची है। इसका अर्थ यह है कि सेवा तो तुच्छ है, और वह वस्तु महान है। जिसे सेवा तुच्छ लगती है, वह सेवा कैसे हुई ? तो जिसे सेवा के बदले में कुछ वस्तु चाहिये, उसे सेवा किए बिना भी सेवा का बदला चाहिये होता है। सेवा तो एक बहाना है, बदला लेने का एक उपाय मात्र है। सच्चे भाव के बिना यह सही उपाय भी नहीं है, यह मात्र दंभ बन कर रह जाता है। 

जो सेवा हमें मोक्ष दिला सकती है उसे सौदा और धंधे का माध्यम बनाकर सेवाधर्म की अवगणना करके हम हमारा संसार तो नहीं बढ़ा रहे हैं ? मान लीजिए कि हम उपाश्रय में गये, गुरुदेव के पास खड़े रहे। एक महात्मा को कहा, “मेरे लिए कुर्सी लेकर आइये।” हम कैसे लगेंगे? वहाँ खड़े लोग क्या कहेंगे? कहेंगे या टूट पड़ेंगे? “यह क्या? आप महात्मा से कुर्सी की अपेक्षा रखते हैं?”

मैं आपको पूछता हूँ, संघ की सेवा के नाम पर जब हमें कुर्सी चाहिये होती है, तब हमारी यही अपेक्षा नहीं है? कि भगवान महावीर हमारे लिए कुर्सी लाकर दे?

यदि संघ संवेदना भीतर बहने लगेगी, तो फूलों का हार – चप्पल का हार लगने लगेगा, प्रशंसा गाली लगेगी और कुर्सी अग्नि की चिता लगेगी। 

वस्तुपाल को ‘संघपति’ के रूप में नवाजा गया तब उनकी आँखों से आँसू उमड़ पड़े, वे बेचैन हो गये। उन्होंने गुरुदेव को भावावेश में कहा, ‘मैं संघ का पति? संघ का स्वामी? नंदीसूत्र जैसे आगमों में जिसकी चार नहीं, बल्कि चार सौ मुँह से तारीफ की गई है, जो तीर्थंकरों को भी वंदनीय है, जो पंच परमेष्ठी भगवंतों की खान है, उसका मैं पति? वह कैसे संभव हो सकता है?”

मैं आपको पूछता हूँ, हमारी गलत तारीफ होने पर हमने किसी को रोका? कुत्ते को भी उसकी गली का स्वामित्वाभिमान होता है। उसने मान लिया होता है कि यह मेरी गली है। हमने भी ऐसा न जाने कितनी चीजों में मान लिया है? 

तीन प्रकार की बहू होती है।

जो सास की सेवा ही ना करे,

जो सेठानी बनकर सेवा करे, जैसे कि सास की मालकिन हो। यदि सास को उसकी सेवा की गरज हो, तो उसे उसकी आज्ञा में रहना पड़ेगा। यह ना अच्छा लगे तो सेवा का ख्याल छोड़ना पड़ेगा। 

जो सेविका बनकर सेवा करे। सेवा भी करे और सास की आज्ञा में भी रहे। सच्ची सेवा यही होती है। 

स्वामित्वाभिमान के मूल में कर्तृत्वाभिमान होता है। 

‘मेरा संघ’यह बात दो तरह से बोल सकते हैं।

  1. स्वामित्व की संवेदना से 

  2. आत्मीयता की संवेदना से

स्वामित्व की संवेदना हमें सेठ बनाती है, और आत्मीयता की संवेदना हमें दास बनाती है। ‘सेठ’ इस तरह से सोचेगा कि यह देरासर, उपाश्रय, पेढ़ी आदि मेरा है। यह सब मेरे हिसाब से चलना चाहिये। सभी को मेरी इच्छा के मुताबिक चलना चाहिये। उसमें कुछ भी उन्नीस-बीस होगा तो हरगिज नहीं चलेगा। ‘दास’ यह सोचेगा कि मुझे इसमें कहीं भी कुछ भी करने का अवसर मिल जाये तो मेरा अहोभाग्य !

वस्तुपाल के हृदय में संवेदना थी – आत्मीयता की। स्वामित्व की छाया से भी वे भयभीत हो गये थे। मैं संघ का स्वामी कैसे? यदि मैं गुरुदेव का स्वामी नहीं हूँ, तो देव-गुरु को भी वंदनीय ऐसे संघ का स्वामी मैं कैसे बन सकता हूँ ?

हम अपने अंदर संसार भरकर शासन में आ भी गये तो इस शासन के द्वारा भी हम हमारे कषायों के पोषण का काम ही करने वाले हैं। एक इन्सान मोबाइल से अपनी दुन्यवी वासनाओं का पोषण करता है, और दूसरी व्यक्ति भगवान महावीर से अपनी दुन्यवी वासनाओं का पोषण करता है। दोनों के लिए है तो दोनों एक साधन ही। एक व्यक्ति स्त्री की लालसा से संसार बढ़ाता है, दूसरी व्यक्ति पद की लालसा से संसार बढ़ाता है। दोनों करते है तो संसार की वृद्धि ही ना ? 

महावीर स्वामी माध्यम नहीं है, साध्यम है।

‘जिससे’ कहीं पहुँचना है, वह ‘महावीर’ नहीं है, ‘जहाँ’ पहुँचना है, ‘वह’ ‘महावीर’ है।

जिनके कंधे पर चढ़कर कहीं ऊपर जाना है, वह महावीर नहीं है, जिनसे कुछ भी ऊपर है ही नहीं, वह महावीर है।

महावीर का ‘उपयोग’ नहीं करना है, महावीर की ‘उपासना’ करनी है।

पापी जीव पूरी जिंदगी महावीर का, संघ का, धर्म का लाभ उठाने की जद्दोजहद करता रहता है। और आखिर में सब कुछ पाकर सब कुछ हार जाता है।

पुण्यशाली जीव सब कुछ पाकर सिर पर चढ़ाकर, उपासना करके आत्मकल्याण साध लेता है।

वस्तुपाल उपाश्रय में गये। गुरुदेव का व्याख्यान चल रहा था। उन्होंने अहोभावपूर्वक व्याख्यान सुना। व्याख्यान के बाद गुरुदेव को शाता पूछा, कामकाज पूछा। उपाश्रय से उल्टे कदम दरवाजे की ओर आए। उस समय एक श्रावक वहाँ पतासे की प्रभावना कर रहा था। 

मैं आपको पूछता हूँ?

पैसे का मूल्य ज्यादा ? या परमेश्वर का मूल्य अधिक ? जिसके पास पैसा है वो महान ? या जिसके पास परमेश्वर है वो महान ? जिसके पास परमेश्वर है, पैसा नहीं है, यह यदि छोटा आदमी हो, तो इसका अर्थ यह है कि पैसा बड़ा और परमेश्वर छोटे हैं। परमेश्वर नहीं है, पैसा है, ऐसा व्यक्ति बड़ा आदमी हो तो इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर से ज्यादा पैसा बड़ा है। 

मुझे झांझणशा सेठ याद आते हैं, संघ लेकर निकले थे, कर्णावती (अहमदाबाद) आये। राजा ने आमंत्रण दिया कि संघ के मुख्य व्यक्ति खाने पर आये। लेकिन राजा को झांझणशा ने कह दिया – हमारा समग्र संघ मुख्य है, यहाँ कोई छोटा है ही नहीं।

संघ के एक भी सदस्य के साथ ऊँची आवाज में बात करना, भगवान महावीर के साथ झगड़ा करने जैसा है। संघ के एक भी व्यक्ति के साथ उद्दंडता से बात करना भगवान महावीर का तिरस्कार करने जैसा है। संघ के एक भी व्यक्ति के भाव को तोड़ना समवसरण में जाने वाले व्यक्ति को निकाल बाहर करने के बराबर है। संघ के परिसर में आए हुए अन्य धर्मी व्यक्ति के साथ भी असभ्य व्यवहार इन्द्रभूति को गौतमस्वामी बनने से रोकने की चेष्टा है।

अक्षर

श्री भगवतीसूत्र में वर्णित एक घटना है। भगवान महावीर स्वामी गौतम स्वामी को कहते हैं कि, “गौतम! अभी खंदक परिव्राजक यहाँ आयेगा।” प्रभु के ये वचन सुनकर गौतम स्वामी प्रभु की इजाजत लेकर खंदक परिव्राजक को लेने जाते हैं।

जो गौतम स्वामी के सीनियर मुनि नहीं है, जो मुनि भी नहीं है, जो कोई उत्कृष्ट श्रावक भी नहीं है, और जो व्रतधारी श्रावक नहीं है। अरे, यहाँ तक कि जो जैन भी नहीं है, अरे, जो न्यूट्रल गृहस्थ भी नहीं है। जो दूसरे धर्म में दीक्षित है, उनको गौतम स्वामी सामने से लेने जाते हैं। 

भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी के उद्गार हैं, “सागयं हे!” खंदक आपका स्वागत है। “सुसागयं” आपका बहुत-बहुत स्वागत है।

सर्वलब्धिनिधान, प्रथम गणधर, चौदहपूर्वी – द्वादशांगी के सृजनकर्ता,’ नेक्स्ट टु महावीर स्वामी ऐसे गौतम स्वामी, अंदर से और बाहर से संपूर्ण समृद्ध ऐसे गौतम स्वामी, एक जीव को धर्माभिमुख करने के लिए इतना झुक सकते हैं, तो हम तो बाहर से भी खाली और अंदर से भी खाली हैं, फिर भी हम झुक नहीं सकते?

यही खंदक परिव्राजक प्रभुवाणी को ह्रदय में धारण कर खंदक अणगार बनते हैं। यही खंदक अणगार शास्त्रों के पारगामी बनते हैं। यही खंदक अणगार गुणरत्न संवत्सर तप करते हैं, और अपनी आत्मा का कल्याण साध लेते हैं।

इन सभी के मूल में गौतम स्वामी के तीन अक्षर हैं। “सागयं” – अक्षर तीन ही हैं, पर प्रेम से तर-बतर कर दे ऐसे हैं, वात्सल्य में भिगोये हुए हैं, सामने वाले व्यक्ति के भावोल्लास बढ़े ऐसे हैं।

( क्रमशः )

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page