top of page

सफर : गांगेय से भिष्म तक

  • May 4, 2020
  • 5 min read

Updated: Apr 12, 2024



ree

प्रस्तुत है भीष्म पितामह, कुरुवंश के आदरणीय वरिष्ठ महापुरुष। आइए सुनते हैं, इन्हीं की भाषा में, कि ये क्या कहते हैं:

श्री नेमिनाथ भगवान के शासन में हमारा राजवंश फला-फूला।

अरे ! उनका ही परिवार कहो, तो भी चलेगा।

पृथ्वी पर उनकी विद्यमानता में ही महाभारत का युद्ध हुआ था। 

  1. मेरे पिता का नाम शान्तनु, माता गंगा, और मैं उनका पुत्र गांगेय। हमारा राजवंश और खानदान आकाश की ऊँचाई छूता था। किन्तु सांसारिक मनुष्य में कोई दुर्बल कड़ी न हो, ऐसा भला होता है ?

मेरी माता गंगा परम धार्मिक थी, पिता शान्तनु भी संस्कारी थे। किन्तु उनमें एक बड़ी बुराई थी, उन्हें शिकार का शौक नहीं, बल्कि व्यसन था। तीर-कमान लेकर वे सदैव तैयार ही रहते थे। शिकार, अर्थात् पंचेन्द्रिय प्राणियों की निर्दय हिंसा।  संस्कारी कुल में ऐसी हिंसा सबको बिडम्बना में डालती थी, इसलिए मेरी माता गंगा इस नगर से दूर एक वन में महल बनाकर वहीं धर्मनिष्ठापूर्वक जीवन यापन कर रही थी। बहुत समय के बाद पिता को माता की याद सताई, इसलिए वे विनती करके उन्हें पुनः राजमहल लेकर आए। माता ने शर्त रखी कि शिकार को सम्पूर्ण तिलांजलि दो तो ही मैं अन्तःपुर में लौटूँगी, पिता ने शर्त मानी और माता का पुनः नगर और राज-महल में प्रवेश हुआ।

  1. कुछ समय तक सब कुछ सही चला, किन्तु आखिर व्यसन किसे कहते हैं ? 

प्रशमरति ग्रन्थ में उमास्वाति महाराज ने व्यसन की व्याख्या दी है,व्यसपति हितादिति व्यसनम्। जो आत्महित को धोखा दे, वह व्यसन है। 

कुछ समय बाद मेरे पिता फिर से उस क्रूर शिकार की लत में फंस गए। लत बहुत बुरी होती है, आदत जब लत बन जाए तो वह मनुष्य को लात मारती है। वर्तमान में ‘कोरोना’ किसकी देन है, सात व्यसनों में से एक, मांसाहार की ही तो। जो किसी न माने, उसे कुदरत की बात माननी पड़ती है। नॉन-वेज क्यों खाना? हाथी, गेंडा, भैंस, हिप्पो, बैल आदि क्या मांसाहारी प्राणी हैं? नहीं ! ये प्राणी भी वनस्पति से ही शक्ति प्राप्त करते हैं।

कोई भी व्यसन अच्छा नहीं होता। सिगरेट से लेकर शिकार तक, और व्हिस्की से लेकर वेश्या तक। जुआ, शराब, मांसाहार, चोरी, शिकार, वेश्यागमन और परस्त्री गमन, ये सात महाव्यसन हैं। व्यसन का एक अन्य अर्थ संकट भी है। मात्र एक व्यसन भी व्यक्ति को संकट में डाल सकता है। व्यसनी के घर एक बार जाकर देखकर आइए, कैसी रामायण चल रही होती है। महाभारत के मूल में भी जुए का व्यसन ही था, जो आज भी सावन-भादों के महीनों में अधिक खेला जाता है। शेयर बाजार भी सट्टा या जुआ ही है। 

महाभारत के मूल में युधिष्ठिर का जुआ है, तो युधिष्ठिर के प्रपितामह और मेरे पिता शान्तनु शिकार के शिकार बने। मेरी माता गंगा त्रस्त होकर पुनः वन के निवास में लौटी। उस समय तक मेरा जन्म हो चुका था। मेरे बाल्यकाल में छत पर चढ़कर आकाशमार्ग से गुजरते चारण मुनियों को बुलाकर मुझे पास बिठाकर उपदेश सुनती, मेरे बाल-मन पर उन सबका गहरा असर हुआ। उसमें भी अहिंसा एवं सदाचार (ब्रह्मचर्य) के उपदेश मेरे अन्तर्मन को स्पर्श कर गए। किसी भी आयु में कैसा भी परिवर्तन लाना हो तो श्रमण और श्रवण का सत्संग सतत रखना चाहिए। मुझे श्रमणों और उनके श्रवण का संग ठीक से लग चुका था।

एक बार फिर से ऐसी घटना हुई, कि मेरे पिता शान्तनु ने मुझे और मेरी माता को आग्रहपूर्वक पुनः नगर में लाने के लिए माता से विनती की। किन्तु मेरी माता ने सविनय स्पष्ट मना कर दिया, और अपने जीवन का उत्तरार्ध को देव, गुरु एवं धर्म की शरण में बिताना निश्चित किया। किन्तु मुझे अपने पिता के साथ जाने का निर्देश दिया।

माता को छोड़ने का दुःख था, किन्तु उनकी आज्ञा से मैं सुखपूर्वक हस्तिनापुर रहने चला गया। शस्त्रविद्या आदि अनेक कलाओं में निपुण बना। मैं वय, गुण और कलाओं में आगे बढ़ने लगा। जिस प्रकार किशोरावस्था में मुझे मातृभक्ति का अवसर मिला, उसी प्रकार युवावस्था में पितृभक्ति का अवसर मिला।

“चेंज ऑफ़ लाइफ ” फिर मेरे जीवन में महा-परिवर्तन का ऐसा समय आया, जिसने मुझे गांगेय से भीष्म बना दिया। हुआ ऐसा, कि मेरे पिता दिन-प्रतिदिन दुर्बल होते जा रहे थे। पड़ताल करने पर पता चला कि नदी किनारे भ्रमण करते हुए पिता किसी नाविक की पुत्री के प्रति आकर्षित हो चुके थे। उन्होंने नाविक के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा, किन्तु नाविक-श्रेष्ठ ने उनकी माँग को अस्वीकार कर दिया। हमारे समय में राजा-महाराज प्रजा-वत्सल होते थे। अपने निजी सुख के लिए वे प्रजा पर बल-प्रयोग का स्वप्न में भी विचार नहीं करते थे।

मेरे पिता शान्तनु चाहते तो उस नाविक कन्या को बलात् अपने अन्तःपुर में ला सकते थे, किन्तु प्रमाणिकता, उत्तरदायित्त्व और सदाचार के संस्कार राजा और प्रजा की रग-रग में भरे थे।

मेरे पिता ने बल-प्रयोग नहीं किया, उल्टे स्वयं दुर्बल हो रहे थे। मैंने येन केन प्रकरेण यह बात जान ली, और मैं सीधे नाविक के पास पहुँचा। उसकी सत्यवती नामक पुत्री रूपवती और सरस्वती थी। मैंने नाविक के समक्ष पिता के लिए प्रस्ताव रखा। नाविक चतुर था, उसने कहा, कि मेरी पुत्री का राजा शान्तनु के साथ विवाह करवा तो दूँ, किन्तु तुम ज्येष्ठ पुत्र हो, इसलिए राज सिंहासन पर तो तुम ही बैठोगे। मेरी पुत्री की सन्तान को तो राज्य नहीं मिलने वाला। नाविक की बात का मर्म समझकर मैंने उसी समय नाविक के सामने संकल्प किया, कि यदि यह बात है, तो मैं आजीवन राज्य सिंहासन का त्याग करता हूँ। यदि तुम अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिता के साथ करो तो मैं कभी भी राजा नहीं बनूँगा।

मेरे माता-पिता ही मेरे भगवान थे, उनके लिए कोई भी बलिदान देने की मेरी तैयारी थी। नाविक मेरी बात सुनकर मुस्कुराया, किन्तु अभी भी वह अन्यमनस्क था। इसलिए उसने असन्तोष जताते हुए सत्यवती के लिए ना कही। तो मैंने पूछा, अब तुझे क्या चाहिए? तो नाविक बोला, तुम राजा नहीं बनोगे, ठीक है, किन्तु तुम्हारे विवाह के बाद तुम्हारी सन्तान को ही राज्य मिलेगा, मेरी पुत्री के सन्तान को नहीं। इसलिए मैं सत्यवती नहीं दूँगा। उसी समय मैं एक क्षण भी समय गँवाए बिना भीष्म संकल्प किया और प्रतिज्ञा के रूप में नाविक को बताया। “हे नाविक श्रेष्ठ ! मैं आजीवन न राज्य लूँगा, न ही विवाह करूँगा। मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा, जिससे मेरी सन्तान होने की सम्भावना ही नहीं रहेगी। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।” 

मेरी ये दो भीष्म प्रतिज्ञाएँ सुनकर नाविक अत्यन्त प्रसन्न हुआ और सत्यवती के विवाह के लिए सहर्ष तैयार हुआ। उस समय वहाँ आकाश में स्थित देवताओं ने मुझ पर पुष्पवृष्टि की, ‘भीष्म-भीष्म’ का नाद किया और मेरी प्रतिज्ञाओं की अनुमोदना की। अब तक मेरा नाम गांगेय था, बस उस समय से मैं भीष्म कहलाया।

यदि मनुष्य के पास सत्य और सत्त्व दोनों हो, तो देव भी दौड़े चले आते हैं, वे भी आप पर न्यौछावर हो जाते हैं। माता-पिता की प्रसन्नता के लिए सिंहासन और विवाह दोनों का त्याग किया। पूरे भारतवर्ष में मेरे जैसी पितृभक्ति करने वाले कुणाल जैसे कोई विरले ही होंगे।

मेरा एक ही सन्देश है, श्रीराम ने पिता के वचन स्वीकार करते हुए अयोध्या की गद्दी छोड़कर १४ वर्ष तक वनवास स्वीकारा, पिता की प्रसन्नता के लिए मैं भी स्त्री और सत्ता छोड़ सकता हूँ, तो क्या आप अपने माता-पिता की छोटी-बड़ी प्रसन्नता के लिए छोटी-मोटी चीजें नहीं छोड़ सकते? कभी भोग-विलास, कभी सम्पत्ति, कभी समय तो कभी स्टेटस  छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए। माता-पिता की गरिमा के सामने ये सब तुच्छ बातें हैं।

याद रखिए, कि आपके सांसारिक जीवन में आपके लिए आपके माता-पिता से बढ़कर और कुछ नहीं है। उनसे मिली खुशी और आशीष आपका पूरा जीवन आनन्द से भर देने में समर्थ है। मेरा प्रारम्भिक और पूर्वार्ध जीवन आपको एक ही सन्देश देता है, कि कुछ भी भुला देना, किन्तु माता-पिता को कभी मत भूलना।

और माता-पिता का जीवन भी हमें एक सन्देश देता है, कि और कुछ छोड़ो या न छोड़ो, व्यसन अवश्य छोड़ना।

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page