top of page

चढ़ावा पैसों के आधार पर ही क्यों बोला जाता है ?

  • Dec 12, 2021
  • 7 min read

Updated: Apr 7, 2024



ree

प्रश्न : हमारे यहाँ पैसों का बहुत बोलबाला है। प्रभु की प्रतिष्ठा है, तो चढ़ावा बोलो कि पहली पूजा कौन करेगा? मुमुक्षु को विदाई तिलक करना है तो चढ़ावा बोलो। हर जगह चढ़ावा… चढ़ावा… चढ़ावा… पैसा… पैसा… पैसा… ऐसा क्यों ?

उत्तर : जब अनेक भावुक आत्माएं भावना वाली हो तब किसकी भावना को सफल बनायें ? किसे लाभ दें ? इस निर्णय के लिए कोई तो आधार लेना ही पड़ेगा ना! वरना तो झगड़े ही झगड़े होंगे।

प्रश्न : आधार होना चाहिए यह बात सच है, पर पैसों का ही आधार क्यों ? पैसों का ही आधार बनाने से सर्वत्र श्रीमंतों को ही लाभ मिलता है, दूसरों को कभी भी लाभ नहीं मिल पाता, इसका क्या ? इससे अच्छा तो तपस्या, सामायिक, नवकारवाली आदि का आधार लेने से उनको भी लाभ मिल सकेगा ना ?

उत्तर : मान लीजिए कि तपस्या का आधार रखें, तो मात्र तपस्वियों को ही लाभ प्राप्त होगा, बाकी के देखते रह जायेंगे। मान लीजिए सामायिक का आधार लिया जाये, तो जो लोग समय की तंगी होने के कारण सामायिक नहीं कर पाते, वे सभी हाथ मलते रह जायेंगे। हर एक आधार में ऐसा प्रश्न तो रहेगा ही।

You can’t please each and everyone.

प्रश्न : तो फिर कभी पैसों का, कभी तप का, कभी सामायिक का ऐसे बारी–बारी से आधार रखने चाहिये जिससे क्रमशः सभी को लाभ मिल सके।

उत्तर : मान लो कि प्रतिष्ठा का प्रसंग है। कुछ लोग कहेंगे कि पैसों में चढ़ावा बोलो, कुछ कहेंगे कि तप में बोलो, तो कुछ कहेंगे माला में बोलो। ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ फिर झगड़े ही झगड़े होंगे। और जिनको प्रश्न खड़े करने ही हो वे तो इसमें भी प्रश्न उठायेंगे कि हमारे यहाँ एकसूत्रता नहीं है, कभी पैसों से बोली होती है, तो कभी तप से, कभी माला से। उससे अच्छा तो कोई भी एक base निर्धारित कर देने में क्या दिक्कत है ?

प्रश्न : तो भले ही एक Base तय कर लें ! पर यह ‘पैसा’ ही क्यों ? पैसों का आधार रखने से श्रीमंत के अलावा दूसरे लोगों को सिर्फ देखते ही रहना पड़ता है।

उत्तर : ‘पैसा ही आधार क्यों ?’ इस प्रश्न के जवाब के बारे में बाद में सोचेंगे, पर ‘दूसरों’ को देखते ही रहना है, यह बात तो तप आदि को Base में रखने में भी आने ही वाली है।

वस्तुत: ‘दूसरों को देखते ही रहना है’ यह बात सौ फीसदी सच है, ऐसा भी नहीं है।

पहली पूजा का लाभ भले ही चढ़ावा बोलने वाले श्रीमंत को मिलता है, पर उसके बाद बाकी सब को भी पूजा करने को तो मिलती ही है। और उसमें खुद यदि अपने भावों के उछलते हुए परिणाम से पूजा करे, तो लाख रूपये का चढ़ावा बोलकर पूजा करने वाले श्रीमंत को पूजा से जो लाभ प्राप्त होता है, उससे कईं गुना अधिक लाभ मिल सकता है। अरे! ऊपर से श्रीमंत के बोले हुए चढ़ावे की अनुमोदना द्वारा उसका लाभ भी पा सकता है।

प्रतिष्ठा आदि चीजें, जो एक को ही करने को मिलती है, उसमें दूसरों को सिर्फ देखते ही नहीं रहना होता है, वे भी अनुमोदना के द्वारा लाभ प्राप्त कर ही सकते हैं। 

करण, करावण और अनुमोदन – तीनों समान फल देते हैं।

अरे ! नारे लगाना, जय-जयकार करना, नृत्य करना, शुभ भावों को उछालना आदि इन सभी के द्वारा प्रतिष्ठा का एक माहौल भी खड़ा कर सकते हैं। इस तरह से प्रतिष्ठा के लाभार्थी का उत्साह बढ़ा सकते हैं। ऐसे माहौल और ऐसे उत्साह के द्वारा प्रतिष्ठा को प्रभावशाली बना सकते हैं। इससे सिर्फ स्वयं को ही नहीं, अपने परिवार को ही नहीं, अपने संघ को ही नहीं, बल्कि पूरे गाँव, नगर आदि को भी लाभ प्राप्त होता है।

बाकी निर्धन परिवारों को जिस तरह लाभ नहीं मिलता, उसी तरह सिर्फ एक श्रीमंत परिवार को छोड़कर बाकी के सारे श्रीमंत परिवारों को भी लाभ नहीं मिलता। अरे! इनमें कईं श्रीमंत ऐसे होते हैं कि बहुत बड़ी रकम तक चढ़ावे को खींचने पर भी आखिर में थोड़ी रकम के Difference के कारण चढ़ावे को Miss करना पड़ता है। क्या उनको अफसोस करते रहना चाहिये ? चढ़ावा लेने वाले की ईर्षा करते रहनी चाहिये या खुद भी उत्साह से झूमकर प्रतिष्ठा का रंग बढ़ाना चाहिये ?

प्रश्न : पर जिसको लाभ मिलता है, वह अहंकार करता है, और जिनको लाभ नहीं मिलता, वे दीनता का अनुभव करते हैं, उसका क्या ?

उत्तर : यह संभावना तो तप इत्यादि के आधार पर बोले गये चढ़ावे में भी कहाँ नहीं होगी ? यह अहंकार, दीनता, ऊपर बताया वैसी ईर्षा, ये सभी अविवेक हैं। जिनको अविवेक का ही सेवन करना हो, उनका हम क्या कर सकते हैं ? इस अविवेक का साम्राज्य तो संसार में कदम-कदम पर दिखाई देता ही है। एक श्रीमंत है, बाकी गरीब हैं, एक कार में घूम रहा है, दूसरे के पास साइकिल भी नहीं है। एक रूपवान है, दूसरा कुरूप है। एक की first rank आती है, दूसरे एक मार्क के लिए पहला नंबर ही नहीं, मेरिट लिस्ट में भी नहीं आ पाते।

संसार में ऐसी विषमताएँ रहने ही वाली हैं। विवेक के सहारे अहंकार और दीनता दोनों से दूर रहना सीखना चाहिये। चढ़ावा प्राप्त करने वाले को ऐसा विवेक रखना चाहिये कि मुझसे भी ज्यादा संपत्ति वाले श्रीमंत हाजिर हैं, फिर भी उनको चढ़ावा नहीं मिला, और मुझे ही मिला, सच में! यह तो देव–गुरु की कृपा है।

प्रश्न : यह तो खुद ने इतनी बड़ी रकम छोड़ने की भावना करके चढ़ावा बोला है, इसलिए लाभ मिला है ना !

उत्तर : जीव का अनादिकाल का संस्कार तो जमा करना है, उसे छोड़ने की भावना हो रही है, यह तो प्रभु की कृपा होने से संभव होता है। ‘श्री उपमिति भवप्रपंचा कथा’ नाम के ग्रंथ में बताया गया है कि प्रत्येक शुभभाव श्री अरिहंत परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है।

इसलिए, खुद को जो लाभ मिला है, यह देव–गुरु पसाय से प्राप्त हुआ है। ऐसा विवेक यदि ज्वलंत रहेगा, तो अहंकार का तो प्रश्न ही कहाँ ?

जिनको लाभ नहीं मिला उनको भी विवेक रहकर ऊपर बताये अनुसार उछलते हुए शुभभावों से प्रतिष्ठा को प्राणवंत बनाना चाहिये। फिर दीनता की बात कहाँ ?

परंतु, यदि अहंकार या दीनता दिखने को मिलती हो, तो यह उस व्यक्ति का अविवेक है, पैसों से चढ़ावे बोलने की पद्धति का यह दोष नहीं है। क्योंकि यदि अविवेक के नचाने से ही नाचना हो, तो तप इत्यादि से चढ़ावे बोलने में भी अहंकार–दीनता दिखने को मिल सकती है।

प्रश्न : पर कभी–कभी ऐसा होता है कि जोश-जोश में बड़ा चढ़ावा बोल देते हैं, पर बाद में वह रकम भर नहीं पाते, क्योंकि खुद की उतनी हैसियत ही नहीं थी।

उत्तर : विवेक तो सर्वत्र चाहिये ही। अपनी औकात के बाहर चढ़ावा बोलना ही नहीं चाहिए ना! यह तो ऐसा चढ़ावा बोलने वाले का अविवेक है। चढ़ावे की पद्धति का दोष नहीं है। और अविवेक तो तप आदि के चढ़ावे में भी हो ही सकता है। अरे! उसमें तो अविवेक की ज्यादा संभावना है। खुद कितनी रकम भर सकेगा ? उसकी कल्पना तो व्यक्ति अपनी संपत्ति और कमाई के आधार से कर सकता है। तप में धड़ाधड़ बोली जा रही बोली में यह संभावना घट जाती है।

और पैसों से चढ़ावा लिया हो तो पेढ़ी की खाताबही में उसका लेखा-जोखा होता है। इसलिए पैसे भर दिये जाने पर ‘रकम अदा कर दी गई है‘ ऐसी ट्रान्सपरंसी भी रहती है। तप आदि में यह कैसे रहेगी ? इसलिए तप आदि से चढ़ावा लेने वाला बाद में वो तप आदि ना करे, ऐसी संभावना भी ज्यादा रहती है। पर पैसों से चढ़ावा लेने वाले को खयाल रहता है कि बही में मेरे नाम की रकम बाकी है। इसलिए उस रकम को भरने की जिम्मेवारी उसके सिर पर रहती है। खर्च आदि में काबू में रखकर, कुछ ना कुछ Adjustment करके वह पैसा भरता रहता है। और क्रमशः संपूर्ण रकम भरपाई करके ही चैन की साँस लेता है।

इस परिप्रेक्ष्य में तो पैसों का चढ़ावा ही योग्य साबित होता है। दूसरी भी अनेक दृष्टि से यह योग्य साबित होता है।

एक पंथ दो काज, यह सूत्र तो सभी को स्वीकार्य है। कोई भी संघ या संस्था बिना पैसे के नहीं चलते हैं। आज के महंगाई के जमाने में तो कदम-कदम पर बड़ी रकम की जरूरत पड़ती रहती है। पैसों से चढ़ावे बोलने से यह प्रयोजन अच्छी तरह से पार पड़ जाता है।

जगद्गुरु श्री हीरसूरि महाराजा को प्रश्न पूछा गया कि प्रतिक्रमण में सूत्र बोलने के चढ़ावे बोलना – क्या यह योग्य है ? तो पूज्यश्री ने जवाब दिया था कि, यह सुविहित परंपरा नहीं है, फिर भी हमें उसका निषेध नहीं करना चाहिये। क्योंकि उसके बिना कईं स्थानों का निभाव होना मुश्किल हो जाता है।

भव्य मंदिर, बड़े उपाश्रय, सैकड़ों-हजारों आराधकों की विविध आराधनाएं यह सब क्या बिना पैसों के संभव है ?

जिस धर्म को आप नहीं मानते, वैसे धर्म के कार्यक्रमों के लिए भी आपके पास से जोर-जबरदस्ती पैसा लिया जाता है ना! हमारी संख्या तो बहुत छोटी है, फिर भी अन्यधर्मियों के पास से तो छोड़िए, जैनों के पास से भी धाक-धमकी से एक पैसा भी कभी नहीं माँगते। इसमें इस पैसों से बोले गए चढ़ावे का भी प्रभाव होता है।

हमारे श्रावकों के सिर्फ 5-10-15 घर ही हों, ऐसे छोटे गाँव–शहरों में भी प्रभु का मंदिर भव्य आलीशान होता है।

जहाँ से व्यापार आदि कारण श्रावक परिवार अन्यत्र स्थानांतरित हो गये, गुजरात, राजस्थान आदि के ऐसे गाँवों में भी मंदिरों का बहुत अच्छे से जतन किया जाता है।

छोटे गाँव के जिनालयों का भी कालांतर से जीर्णोद्धार होता रहता है, जिससे मंदिर सुरक्षित रहते हैं। सैकड़ों तीर्थ आज भी साधकों के लिए साधना केंद्र बन रहे हैं।

विहारमार्ग में आने वाले छोटे–छोटे संघ भी विहार करके पधारने वाले श्रमण–श्रमणी भगवंतों की आवश्यक वेयावच्च निःसंकोच कर सकते हैं।

ये, और ऐसे अन्य प्रयोजनों में भी, सभी में पैसों से चढ़ावे बोलने की हमारी प्राचीन परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है, यह कभी भी भूलने जैसा नहीं है।

यदि पैसों से चढ़ावे बोलना बंद करके, तप आदि से चढ़ावे बोलना चालू हो जाये तो इन सभी की क्या हालत होगी ? यह हर एक को शांति से सोचने जैसा है।

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page