top of page

गोडीजी का इतिहास – 4

  • Apr 24, 2023
  • 3 min read

Updated: Apr 7, 2024



ree

मेरे प्रभु पारसनाथ

आंगन में कल्पवृक्ष पल्लवित होने पर जितना आनन्द प्राप्त नहीं होता, उतना आनन्द आज मेघाशा के हृदय में था। जब से पार्श्वनाथ प्रभु गृहांगन में विराजित हुए, तब से मेघाशा का मन-मयूर प्रसन्नता से नृत्य कर रहा था। वह प्रतिदिन प्रभुभक्ति के रंग से अपनी आत्मा को रंगता, और उसी में पूरा मग्न हो जाता था। 

इसी दौरान पाटण में पूज्य आचार्य श्री मेरूतुंग-सूरिजी पधारे। मेघाशा प्रतिदिन गुरुमुख से जिन-वाणी सुनने हेतु जाता था। एक दिन उसने अपने मन में उद्भव हुई जिज्ञासा गुरु के समक्ष प्रकट करते हुए कहा,

“मेरे घर प्रभु पार्श्वनाथ पधारे हैं, उन्हें विराजित करने एवं उनकी भक्ति हेतु मुझे क्या-क्या करना चाहिए?”

गुरु ने बड़े मीठे शब्दों में उत्तर देते हुए कहा, “श्रावक श्रेष्ठ! यह तो मैं प्रभु के दर्शन करके ही बता सकता हूँ।”

यह सुनकर मेघाशा ने तुरन्त ही गुरुदेव को अपने गृहांगन पधारने हेतु विनती की, और सौम्यमूर्ति गुरु ने सहर्ष यह विनती स्वीकार की। 

दूसरे ही दिन मेघाशा अपने प्रभातिक कार्यों से निवृत्त हुआ, उसने प्रभुभक्ति की और आतुरता से गुरु के पावन पगले होने की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी दृष्टि बार-बार द्वार की ओर जा रही थी। कुछ ही देर में शिष्यवृन्द के साथ गुरु आते हुए दिखे। 

“पधारिए गुरुदेव! पधारिए। मेरे आंगन को पवित्र कीजिए।” मेघाशा ने गुरुदेव का स्वागत किया। फिर उन्हें जहाँ प्रभु विराजित थे, वहाँ लेकर गया। 

अत्यन्त प्रभावशाली और नयनरम्य पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा देखकर आचार्यश्री मनोहर शब्दों से प्रभु की भावपूर्ण स्तुति करने लगे। 

फिर उन्होंने मेघाशा से कहा, “हे मेघ! ये प्रभुजी और कोई नहीं, वरन् तेरे पिता खेतसिंह द्वारा भराए गए पार्श्वनाथ भगवान ही हैं। तू इन प्रभुजी को पारकर देश लेकर जा, वहाँ शिखरबंधी जिनालय बनवा और पूरे ठाठ-बाट के साथ प्रभुजी को विराजित कर। प्रभुजी की महिमा वृद्धिमान होगी।”

मेघाशा को लगा कि मानो गुरुदेव के मुख से अमृत की वर्षा हो रही हो। गुरुवचन के अनुसार पारकर देश जाने हेतु उसने अपना रुई का व्यवसाय समेटा और 20 ऊँटों पर कपास व अन्य माल-सामान भरकर पाटण को अलविदा कहा। 

जहाँ प्रतिमाजी की अंजनशलाका हुई, प्राण-प्रतिष्ठा हुई, ऐसी पाटण की भूमि पर 38 वर्ष तक अपने वात्सल्य की गंगा बहाकर प्रभुजी विदा हुए। इसके बाद प्रभुजी पुनः पाटण नहीं आए। 

फिर कहाँ विराजमान हुए…!!

प्रभु का चमत्कार

पाटण से रुई की गांठें 20 ऊँटों पर भरकर मेघाशा पारकर देश की ओर प्रयाण कर रहा था। वह सारे माल-सामान के साथ पाटण की सीमा से लगे कुणघेर गाँव पहुँचा। प्रभुजी भी साथ ही थे। यह पहला ही दिन था। पूरी तैयारियाँ की, प्रभुजी की भक्तिभाव से पूजा की। इतने में तो वहाँ भक्तों की भीड़ आने लगी। 

प्रभु का प्रभाव अनुपम था, वे जन-जन की आस्था का केन्द्र थे। कुणघेर गाँव में प्रभुजी का रात्रि-निवास हुआ, तो वहाँ रहने वाले लोगों के मन में भाव आया कि जिस भूमि को प्रभु ने रात्रि-निवास करके पावन किया, वहाँ एक जिनालय का निर्माण होना चाहिए, और प्रभुजी के पगले स्थापित किए जाने चाहिए। तदनुसार वहाँ भव्य जिनालय बना और पगले स्थापित किए गए। 

इस प्रकार प्रभुजी जहाँ-जहाँ रात्रि-निवास करते वहाँ-वहाँ जिनालय बनता और प्रभुजी के पगले स्थापित होते। प्रभुजी ने पांच पड़ाव पार किए और छठे दिन भूदेशर पधारे। ये पांच पड़ाव इस प्रकार थे:

(1) कुणघेर,

(२) आणंदपर,

(३) राधनपुर-भीलोटा दरवाजा के बाहर वरखडी में पीलू के पेड़ के नीचे,

(४) मोरवाड़ा, और

(५) सुईगाम के बाहर डोडला तालाब के पास। वहाँ से 40-50 कि.मी. का मरुस्थल पार करके भूदेशर पहुँचे। 

बीच में राधनपुर के पास एक चमत्कारिक घटना घटी। 20 ऊँट लेकर निकले मेघाशा ने प्रभुजी को भी एक ऊँट पर विराजित किया हुआ था। जब वे राधनपुर पहुँचे तो कर वसूल करने वाले अधिकारी ने ऊँट गिने। गिनती में सिर्फ 19 ऊँट ही हुए तो वह बोला, “आप तो कहते हैं कि 20 ऊँट हैं, लेकिन मैंने गिने तो 19 ही निकले।”

मेघाशा बोले, “नहीं, मेरे तो 20 ऊँट हैं, शायद गिनने में गलती हुई होगी, आप फिर से गिनती कीजिए।” अधिकारी ने फिर से गिने। इस बार 21 निकले। 

मेघाशा 20 ऊँट का कर देने के लिए तैयार थे, लेकिन सही गिनती का निर्णय नहीं होने के कारण मामला राजा के पास गया। राजा ने खुद ऊँटों की गिनती की। लेकिन अभी भी कभी 19 तो कभी 21 हो रहे थे। राजा ने आश्चर्य से मेघाशा से पूछा, “मेघाशा ! ऐसा क्यों हो रहा है? इसका क्या रहस्य है?”

तो मेघाशा ने सोच-समझ कर कहा, “राजन् ! इनमें से एक ऊँट पर प्रत्यक्ष प्रभावी श्री पार्श्वनाथ प्रभु विराजित हैं, इसलिए ऐसा हो रहा है।”

राजा ने कहा, “मेरे धन्य भाग्य कि प्रभु यहाँ पधारे। मुझे प्रभुजी के दर्शन करवाइए, मुझे अपने नयन पावन करने हैं।”

मेघाशा ने राजा को प्रभुजी के दर्शन करवाए। दर्शन करके राजा इतना प्रसन्न हुआ कि जहाँ प्रभुजी का रात्रि-निवास हुआ वहाँ उसने जिनालय का निर्माण करवाया, और प्रभुजी के पगले स्थापित किए। साथ ही मेघाशा का पूरा कर भी माफ किया। 

मेघाशा ने कुछ दिन वहाँ रुककर फिर पारकर की ओर प्रयाण किया। रस्ते भूदेशर गाँव आया।

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page