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खाद्य साम्रगी के साथ जुड़े जैन शब्द से सावधान






Junk Food

बाजार में बिकने वाले खाद्य – पदार्थ

 

आजकल सभी बड़े नगरों में गली - गली और चौराहे - चौराहे पर चाट की दुकाने दिखती है, जिसमें लोग खुशी - खुशी सड़ा हुआ, बासी चाट, पांऊभाजी, कचोरी, समोसा खाकर नए - नए रोगों को निमंत्रण देते हैं।

 

ठेलागाडी या हाथलारी वाले के आइटम टेस्टफूल लगते हैं जिसें बड़े घर के लोग भी गंदी गटरों के पास खड़े-खड़े खाते हैं। इन हल्के पदार्थों की अनिष्टता के परिणाम आए - दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होते हैं। तथापि घर के वृद्ध सहित परिवार के सभी सभ्य छुट्टी के दिन या रविवार को बाजार में सेन्डवीच, चाट, पानी - पुरी,  कचोरी,  समोसा, भेल,  दही-वड़ा, पाऊंभाजी, आमलेट खाते दिखाई देते हैं। आज से 30-40 वर्ष पूर्व बाजार में खाना शर्म की बात थी। समाज का भय रहता कि 'कोई देख तो नहीं रहा है?'  तब बच्चों को भी चने- चिरोंजी, सेव-ममरा, चिवड़ा-चक्की खिलाई जाती थी, आज अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा (?) के लिए बच्चों को चर्बी मिश्रित, दांतों को बिगाडने वाली चॉकलेट, अंडे मिश्रीत बिस्कीट, गोली दी जाती है।

 

बच्चों के हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क, किडनी, लीवर जैसे अंगों के लिए प्रोटीन युक्त मूँगफली - चने की अति आवश्यकता रहती है। इनसे बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास होता है।

 

बम्बई में फेरिवाले कीट लगे हुए डिब्बे में आलू उबालते है, जिसमें बने पेटिस, पाऊंभाजी को लोग गंदी जगह खडे होकर खाते हैं। वही आजु बाजू पड़े उच्छिष्ट से तथा एक ही बालटी में धोए गए चम्मच - प्लेट में रोगीष्ट जंतुओं का चेप लगता हैं। दुर्गंध - प्रदुषण युक्त हवा, बासी पदार्थ और तीखे मसाले-चटनी से एसीडीटि, पेट में जलन होती हैं। फिर दवाई भी कारगर सिद्ध नहीं होती है। अतः बाजारु या बाजार की चीजों का सम्पूर्ण त्याग आरोग्य के लिए आवश्यक है। अपनी रक्षा के लिए जीभ पर संयम-अंकुश जरुरी है।

 

खाद्य साम्रगी के साथ जुड़े जैन शब्द से सावधान :-

 

आजकल कुछ धंधादारी वर्ग खाने की अभक्ष्य वस्तुओं के साथ जैन शब्द जोड़ देते हैं, जिससे धर्मी आत्माएँ भ्रमित हो जाते है। अभक्ष्य वस्तुओं को जैन नाम दे देने से वह भक्ष्य नहीं हो जाती। जैसे कि -


जैन पाऊंभाजी : कालव्यतीत हो जाने वाला बाजार का मैदा उपयोग में लिया जाता हैं। इतना ही नहीं, अपितु सभी कुछ बासी होने से असंख्य त्रस जीव उत्पन्न होते है। इन्हें खाने से असंख्य त्रस जीवों के संहार का महादोष लगता है। आरोग्य की हानी करता है।

 

जैन आइसक्रीम : यह जिलेटीन, केक और बरफ से बनती है। जो अभक्ष्य है। मंदाग्नि रोगकारक है।

 

जैन कचोरी, समोसा, खमण : इसमें भी बासी मैदा, खराब हल्का तेल, खमण में रात बासी और कच्ची छाछ रहती है। फाल्गुन सुदी 14 से आठ माह तक हरे धने का प्रयोग भी होता है, जो निषेध है। अतः सावधान रहना चाहिए।

 

आजकल फ्लोर मिल पर तैयार पीसा हुआ आटा मिलता है। यह मिल के कोल्ड स्टोरेज में भरे महिनों - वर्षों पुराने गेहूँ, मक्की, चना आदि भरा रहता है । जो सड़ भी जाता है और उनके थेलों में असंख्य धनेरिया, ईल आदि जीवात हो जाती है। जो कि चक्की में अनाज के साथ ही पिस जाती है। इन्ही थेलों में मैदा, रवा, बेसन भर दिया जाता है, जिसमें समय बितने पर अनेक जीव-जन्तु पैदा हो जाते हैं। और काल व्यतीत हो जाने के कारण अभक्ष्य भी हो जाता है। इसी आटे, मैदे की बिस्कीट, पाउं में उपयोग लिया जाता है। इस प्रकार निर्मित बस्तुओं के दोष को सूक्ष्मता से देखे तो जैन शब्द लगाना शोभा नहीं देता। केवल पैसा कमाने का तरीका है। प्रत्येक जैन सावधान बने।

 

जहाँ यतना पूर्वक अनाज निरीक्षण किया गया हो, अन्न सड़ा हुआ न हो यह देखकर पीसा गया हो, उस आटे का काल, ऋतु के अनुसार पूर्ण न हुआ हो, तो उसकी बनायी शुद्ध वस्तु भक्ष्य कहलाती है। कोई भी चीज बनाने से पूर्व आहारशुद्धि का, गुरुगम द्वारा 22 अभक्ष्य का ज्ञान आवश्यक है।

 

बुक स्टॉलों पर बिकने वाली विविध व्यंजन आदि बनाने की विधियों की पुस्तकों में जैन व्यंजन लिखा होता हैं। परन्तु इनके लेखकों को बावीस अभक्ष्य का सही ज्ञान न होने से अभक्ष्य वस्तुओं को भी जैन शब्द के साथ जोड़ देते हैं। जो सरासर गलत हैं। इस पुस्तक के अन्त में अभक्ष्य वस्तुओं का चार्ट दिया गया है। जिसे समझकर अपनी आत्मा और आरोग्य की रक्षा करना चाहिए। विवाह, पार्टी, धार्मिक प्रसंगों में भी भक्ष्याभक्ष्य का पूरा ख्याल रखना चाहिए। आजकल के रसोइयों को केटरर्सों को भी भक्ष्य - अभक्ष्य का पता नहीं होता है।


अतः बहुत सावधानी रखकर इस पुस्तक के ज्ञान का अधिकाधिक प्रचार करना चाहिए। गुरु भगवंत से जानकारी प्राप्त करे।

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