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यात्रा Accept से Respect की ओर

Updated: Apr 7




एक रशियन तत्त्वचिंतक, जो बुद्धि से ज्यादा हृदय को प्रधानता देता था, ज्ञान के फलस्वरूप प्रसन्नता का हर पल वह अपने जीवन में अनुभव करता था। उसे एक बार राजा ने किसी अपराध के कारण जेल में बंद कर दिया।

7 दिनों के बाद राजा यह देखने के लिए आया कि, शांति-क्षमता और प्रसन्नता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इस तत्त्वचिंतक की जेल के सलाखों के पीछे क्या हालत है ? वह कितना तड़प रहा है, जरा देखता हूँ।

राजा ने जेल में आकर देखा तो, वह तत्त्वचिंतक शांति से किताब पढ़ रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता छायी हुई थी। 

राजा ने पूछा, “कैसे हो ?” 

तत्त्वचिंतक ने कहा, “राजन् ! बड़ा आनंद है! सैकड़ों किताबें पढ़ने की मेरी बरसों से तमन्ना थी, पर बाहर के तत्त्वप्रचार और लोकसेवा के कार्यों के बीच समय नहीं मिल पाता था। आपने मुझे जेल में डालकर बहुत अच्छा काम किया। किताबें पढ़ने की मेरी तमन्ना पूर्ण होने का बहुत आनंद है।” 

राजा ने सोचा, ‘मेरी जेल में यह खुश कैसे रह सकता है?’ राजा ने जेलर को कहा, “इसकी सारी किताबें छीन लो, और उसे एक भी नयी किताब पढ़ने के लिए मत देना।”

राजा की आज्ञा का पालन किया गया।

7 दिनों के बाद राजा फिर से देखने के लिए आया। अब की बार राजा ने जो दृश्य देखा तो वह आश्चर्य में पड़ गया। तत्त्वचिंतक मस्ती से कुछ लिख रहा था।

राजा ने पूछा, “कैसे हो ?”

तत्त्वचिंतक बोला, “राजन् ! मेरे प्रवचन 1000-5000 लोगों तक ही पहुँच पाते थे। मेरी बरसों की आरजू थी कि यदि वे किताब के रूप में लिखे जाएँ तो सिर्फ रशिया में ही नहीं, पूरे विश्व भर में उसका प्रचार हो जाये। पर बाहर था, तब लिखने का समय ही नहीं मिल पाता था। आपने बहुत ही अच्छा किया। यहाँ पर मेरा किताब लिखने का स्वप्न परिपूर्ण हो गया। इस बात का मुझे बहुत ही आनंद है।

राजा ने तुरंत जेलर को निर्देश दिए, “जेलर! इसके पास से कागज-पेन, सब कुछ ले लो, इसे लिखने के लिए कुछ भी नहीं देना है।”

7 दिनों के बाद राजा फिर से देखने के लिए आया। तत्त्वचिंतक प्रशांत और प्रसन्न चेहरे से आत्मध्यान में डूबा हुआ था।

राजा ने पूछा, “कैसे हो ?”

तत्त्वचिंतक बोला,  “परम आनंद है। आज तक लोगों के आनंद के लिए बहुत सोचता था, बहुत दौड़ता था, पर आत्मा के लिए कुछ नहीं किया। आपका बड़ा उपकार कि मुझे मेरी आत्मा में लीन होने का अवसर दिया।”

राजा मन ही मन भड़क उठा, ‘इसे किस तरह दुःखी करूँ ?’

आखिर में राजा ने कहा, “मान ले, कि जिस मन से तू अभी परम आनंद का अनुभव कर रहा है, तेरा वह मन ही मैं छीन लूँ तो ?” 

सुनकर तत्त्वचिंतक नाचने लगा ! 

राजन्! समस्त धर्मग्रंथों का सार तो यह ही है, “शून्यमनस्क बन जाओ”! मैं तो दोनों हाथ जोड़कर कहता हूँ, जल्दी से मेरा मन ले लो आपका बड़ा उपकार मानूँगा।”

अब ऐसे संत को कौन दुःखी कर सकता है, जो शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक आदि तमाम विपरीत परिस्थितियों का स्वीकार कर सकता है? वह इस दुनिया का सम्राट है।

एक बढ़िया Quotation याद रख लो।

“आप आने वाली हर एक परिस्थिति को Accept करना सीख लो, जिंदगी आपको अवश्य Respect देगी !

श्रमण भगवान महावीरस्वामी ने 12/½ वर्ष के साधना काल में जो भी परिस्थिति थी, देव, मानव या पशु की ओर से, वस्तु, व्यक्ति या वातावरण के रूप में, उन सभी का सिर्फ स्वीकार ही किया था। ना तो प्रतिकार किया, ना ही संघर्ष किया, ना ही वेदना का अनुभव किया।

तो चलिए संकल्प करते हैं, 

आज आने वाली किसी भी एक विपरीत परिस्थिति का प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करूँगा और मन को स्वस्थ रखूँगा।

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